हमारे एक परिचित वकील थे। कुछ महीने पूर्व हार्ट अटैक से उनका देहावसान हो गया। उनके पास करोड़ों की सम्पत्ति थी। बैंक बैलेंस भी खासा तगड़ा था। उन्होंने अपनी जिन्दगी अपने ही अंदाज में जीते हुए अपनी अधिकांश तमन्नाएं पूरी कीं, लेकिन एक इच्छा अधूरी रह गई। उनकी बड़ी चाहत थी कि जिस बस्ती में वे जन्मे, बड़े हुए और सफलता की सीढ़ियां चढ़े, उसका नामकरण उनके नाम पर हो जाए। इसके लिए उन्होंने कई पापड़े बेले। शहर के पत्रकारों, संपादकों को लिफाफे देकर अपनी तारीफों के लेख छपवाये। कागजी संस्थाओं को पैसे देकर पुरस्कृत हुए। यहां तक कि डॉक्टर की उपाधि भी हथिया ली। उन्हें धनवानों का वकील कहा जाता था। उनके मन में यह बात घर कर चुकी थी धन, नाम और लोकप्रियता ही सबकुछ है। बस्ती में अपनी आदमकद प्रतिमा और अपने नाम का ठप्पा लगवाने के लिए उन्होंने पक्ष और विपक्ष के नेताओं से नजदीकियां बनायीं। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री को निवेदन पत्र भेजे। यहां तक कि शहर के महापौर और इलाके के नगरसेवक से न जाने कितनी बार विनती की व हाथ जोड़े, लेकिन आम लोगों के विरोध के कारण उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। अपने नाम को जिन्दा रखने के लिए वे तो दो-चार करोड़ की आहूति देने को भी तैयार थे, लेकिन...बात नहीं बनी। उनकी मौत के बाद उनके करोड़पति बेटे ने एक मंत्री से अपने पिताश्री के सपने को साकार करने के लिए पार्टी फंड में मोटा चंदा देकर आश्वासन का झुनझुना तो हासिल कर लिया और वे उसे जहां-तहां बजाते भी रहते हैं कि वो दिन दूर नहीं जब बस्ती में उनके पिता के नाम के शिलालेख लगे नजर आएंगे। चतुर-चालाक वकील पुत्र ने नोटों की बरसात कर विरोधियों को भी अपने पाले में ले लिया है। अब बस उन्हें कोरोना के भाग खड़े होने का इंतजार है...।
महाराष्ट्र के एक गांव के बस स्टॉप को एक मेहनतकश के नाम से जाना जाता है। इस शख्स का नाम है राजमणि वीरेंद्र पाली उर्फ अन्ना। अन्ना कोई उद्योगपति, व्यापारी, नेता या अभिनेता नहीं है। वह तो एक अदना सा होटलवाला है, जो लगभग 50 वर्षों से गरीबों को मात्र दस रुपये में भरपेट खाना खिलाता चला आ रहा है। अन्ना की कभी मिलिट्री में भर्ती होने की दिली तमन्ना थी, लेकिन पैर के टेढ़ा होने के कारण जब वह सैनिक नहीं बन पाया तो नीम के पेड़ के नीचे चाय-नाश्ते की टपरीनुमा छोटी सी दुकान खोल ली। शुरू-शुरू में अन्ना ने ट्रक ड्राइवरों तथा गरीब मजदूरों को मात्र तीन रुपये में दाल-चावल भरपेट देना प्रारंभ कर दिया, जिससे टपरी पर भीड़ लगने लगी। कुछ वर्षों के पश्चात जब महंगाई बढ़ी तो उसे मजबूरन भरपेट भोजन की कीमत दस रुपये करनी पड़ी। आसपास के होटलों के मालिकों ने इतने कम दाम पर खाना उपलब्ध कराने का कई बार विरोध भी किया, लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। उसका तो आटे में नमक जैसी कमायी का इरादा था। उसने गरीबी, बदहाली देखी थी। भूख क्या होती है इसका भी उसे पता था। इस दौरान आसपास के होटल वाले लखपति और करोड़पति हो गये। उनके आलीशान मकान बन गये। कारें भी आ गईं। अन्ना धन तो नहीं जोड़ पाया, लेकिन लोगों के दिलों में बसने का कीर्तिमान जरूर बनाया। उन्हीं लोगों ने ही बस स्टॉप को अन्ना के नाम कर दिया। छोटी सी टपरी वाले ने बड़े-बड़े रईसों, समाजसेवकों और नेताओं को मात दे दी, जो अपने नाम का डंका बजवाने के लिए पगलाये रहते हैं। अन्ना की जवानी विदा हो चुकी है। पहले से भी ज्यादा भीड़ उनकी टपरी पर लगी रहती है। अन्ना किसी को निराश नहीं करता। खाना खाने के बाद जब कभी-कभार लोग कम पैसे देकर चले जाते हैं तो भी उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती। कुछ गरीबों की तो जेब एकदम खाली होती है उन्हें भी भरपेट खाना खिलाकर तृप्त कर देता है। अन्ना ने कई बंद आंखों को खोला है। उसने दिखा दिया है कि सच्ची नीयत इंसानियत और गहरी संवेदनशीलता बड़ी से बड़ी महाघमंडी ताकतों को मात दे सकती है। लोगों के दिल जीत सकती है।
अपने देश में न तो धन की कमी है और न ही धनवानों की। यह अपना हिंदुस्तान ही है, जहां असंख्य मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे हैं, जहां धन-सम्पत्ति के भंडार भरे पड़े हैं। इस अपार धन से मानव कल्याण का इतिहास रचा जा सकता है। असंख्य गरीबों के जीवन को खुशहाल किया जा सकता है। हजारों स्कूल, विद्यालय, अस्पताल बनाये जा सकते हैं, लेकिन अधिकतर वहां भी राजनीति, लालच और तेरी-मेरी चलती है। अपने-अपने धर्म को ऊंचा बताने का राग गाया जाता है। पूजा स्थलों की सम्पत्तियों पर कब्जा करने की चालें चली जाती हैं। यह भी सच है कि समय-समय पर कुछ इबादत...पूजा स्थल के कर्ताधर्ता मानव सेवा का धर्म निभाते रहते हैं। कोरोना की महामारी के वक्त भी कुछ मंदिर, मस्जिद और चर्चों ने पीड़ितों तक भोजन पहुंचाया। दवाइयां भी भिजवायीं। अपने-अपने तरीके से सभी ने जनसेवा का धर्म निभाया, लेकिन सिखों ने तो पूरी दुनिया का दिल जीत लिया। हमारा किसी को कमत्तर दर्शाने का मकसद नहीं, लेकिन जो सच है..वो सच ही है...। दुनिया के चाहे किसी भी कोने में आपदा के चलते लोग तकलीफों से घिरे हों तो सिख समुदाय के लोग बिना किसी भेदभाव के सबसे पहले दिलोजान से सहायता करने के लिए पहुंच जाते हैं। देश और दुनिया को एकता और भाईचारे का प्रबल संदेश देने वाले श्री गुरुनानक देव जी ने 15वीं सदी में जिस लंगर प्रथा की शुरुआत की थी, उसे जुनूनी, परोपकारी सिखों ने अभी भी सतत कायम रखा है। लंगर में बिना किसी भेदभाव के एक ही स्थान पर बैठाकर भोजन कराया जाता है। दुखियारों को अपना सर्वस्व अर्पित करने को तैयार रहने वाले सिखों को नाम की भूख नहीं होती। उनका सेवाकार्य ही उनके नाम के डंके बजा देता है और उनके आदर-सम्मान में कालीन बिछ जाते हैं। जब पूरे देश में ऑक्सीजन की जबरदस्त किल्लत थी, इसके अभाव में कोरोना के मरीज तड़प-तड़प कर मर रहे थे तब विभिन्न गुरुद्वारों में ऑक्सीजन लंगर शुरू किया गया। बीमार मरीजों को अस्पताल में बेड मिलने तक ऑक्सीजन उपलब्ध करवायी गई। सिख समाज ने अब फैसला किया है कि गुरुद्वारों की साज-सज्जा में धन खर्च करने की बजाय देश भर में अस्पताल बनाये जाएंगे, जहां कम से कम शुल्क में लोगों के इलाज की उच्चतम सुविधाएं उपलब्ध होंगी। महाराष्ट्र के नांदेड़ में गुरुद्वारा तख्त हजूर साहिब ने तो ऐलान कर दिया है कि उनके यहां पिछले 50 साल से जमा हुए सारे सोने को कोरोना अस्पतालों के निर्माण के लिए अर्पित कर दिया जाएगा।
Thursday, June 3, 2021
वंदन...अभिनंदन
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