Thursday, July 15, 2021

अंतहीन फिल्म

    वो भी क्या दिन थे जब मैं और साहित्यकार मित्र गिरीश पंकज रात का शो सायकल पर बैठकर देखने जाया करते थे। आधा रास्ता सायकल गिरीश चलाते तो आधा रास्ता मैं। वो मोटर सायकलों, स्कूटरों के नहीं पैदल और सायकल के दिन थे। पांच-सात सौ की पगार थी, लेकिन शहजादाओं वाले ठाठबाट थे। कई वर्ष बीत जाने के बाद भी बिलासपुर की प्रताप, लक्ष्मी, मनोहर और बिहारी टाकीज की याद आ जाती है। सदर बाजार का वो मारवाड़ी भोजनालय भी यादों में है जहां की शुद्ध घी से चुपड़ी पतली-पतली रोटियां और रविवार को विशेष तौर पर परोसी जाने वाली मिठाई-कलाकंद या गुलाब जामुन अभूतपूर्व तृप्ति और उत्सव का अहसास कराते थे। अब भी जब कभी हम दोनों मिलते हैं, तो उन दिनों को याद कर तरंगित हो जाते हैं। काश! वो दिन फिर हमारे हिस्से में आते।

    उन दिनों राजेश खन्ना, संजीव कुमार, जितेंद्र, धर्मेंद्र, मुमताज, राखी, हेमामालिनी आदि के जलवे थे। राजेश खन्ना की दो रास्ते, आराधना, सफर, खामोशी, आनंद तो संजीवकुमार की संघर्ष और खिलौना जैसी फिल्मों को देखने के लिए जबरदस्त भीड़ उमड़ा करती थी। दिलीप कुमार, राजकपूर और देवानंद की सजीव अदाकारी के दिवाने भी कम नहीं थे। पर्दे के नायक तथा नायिका की तकलीफें और परेशानियां दर्शकों को चिन्ता में डाल देती थीं। फिल्म के अंत में हीरो की मौत असहज और उदास कर देती थी। कुछ फिल्में मनोरंजन के साथ-साथ रुलाती भी थी। फिल्मों में मिलने-बिछड़ने, धोखा देने, धोखा खाने के दृश्यों को देखकर लड़कियां और महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी भाव विभोर होकर अपनी आंखें गीली कर लेते थे। सिनेमा हॉल के अंदर प्रवेश करते ही तनाव गायब हो जाता था। बेफिक्र होकर फिल्म का आनंद लिया जाता था। तब आज सी भागम भाग नहीं थी।
फिल्मी हीरो, हीरोइन वाकई आसमान के चमकते सितारे थे। धरती पर कम ही उनके पांव पड़ते थे। उन्हें देखने के लिए भीड़ ऐसे पगला जाया करती थी जैसे वे कोई फरिश्ते हों। इन फरिश्तों के निजी जीवन के बारे में छपने वाली खबरें भी लोगों को आकर्षित करती थीं। कितनी फिल्मी पत्रिकाओं की रोजी-रोटी उल्टी-सीधी गप्पबाजी से चलती थी। कुछ अभिनेता अपनी फिल्म को हिट करवाने के लिए भी अपने बारे में ऐसे-ऐसे किस्से गढ़वाते और छपवाते थे, जिससे लोग मनोरंजित होते थे और उनकी कल्पनाओं के घोड़े दौड़ने लगते थे। बेमेल इश्क के खेल में धोखे खाये भी जाते थेे और दिये भी जाते थे। समय तो बदलता ही है। उसका रथ कहां रुकता है।
    मोबाइल के इस युग में बहुत कुछ बदल गया है। इसी बदलने के तारतम्य से मुझे चाकलेटी सितारों पर भारी पड़ने वाले अभिनेता ओमपुरी की याद आ रही है, जिनकी फिल्म अर्धसत्य ने दर्शकों के दिमाग के ताले खोल दिये थे और शासन-प्रशासन के भ्रष्ट चेहरे को बेनकाब कर सोचने को विवश कर दिया था। कालांतर में नामी-गिरामी सितारों का साक्षात्कार लेना मेरा पसंदीदा काम होता चला गया। गिरीश पंकज ने साहित्य के क्षेत्र में तेजी से झंडे गाड़ने प्रारंभ कर दिये। तब ऐसे-ऐसे हीरो और हीरोइन से मिलना सहज होता चला गया था, जिनकी फिल्में देखे बिना कभी चैन नहीं आता था। ऊबड़-खाबड़ चेहरे वाले अभिनेता ओमपुरी से दिल्ली के कनॉट प्लेस के काफी हाऊस में अचानक हुई मुलाकात बाद में हल्की-फुल्की दोस्ती में तब्दील हो गयी थी। एक समय ऐसा भी आया जब ये मंजा हुआ अदाकार अपनी ही पत्नी नंदिता की दुष्टता और गद्दारी से टूट गया था। पत्नी पत्रकार थी। 48 साल के ओमपुरी का 26 साल की नंदिता पर दिल आ गया था। बहुत भरोसा करते थे वे अपनी पत्रकार पत्नी पर, लेकिन उसी पत्नी ने अपने पति पर एक ऐसी किताब लिख डाली जो वास्तव में ओमपुरी का काला इतिहास थी। कोई भी पति अपनी पत्नी से सच नहीं छुपाता। ओमपुरी ने किन्हीं मधुर पलों में अपनी वो कमियां और भूलें उजागर कर दीं जिन्हें छिपाये रखना जरूरी था, लेकिन नंदिता तो उनकी पत्नी थी। पूरा भरोसा था उस पर लेकिन उसने भरोसे का कत्ल करने से पहले यह भी नहीं सोचा कि पति को अय्याश साबित कर नाम कमाने की भूख अच्छे-खासे रिश्ते को तबाह कर देगी। नंदिता की बेवफाई ने ओमपुरी को शराबी बना दिया। इतना ही नहीं उसने तो एक पिता को अपने बेटे से मिलने पर भी बंंदिशें लगा दीं। 2017 की एक रात शराब के नशे में इस महान कलाकार की हार्ट अटैक से मौत हो गई, लेकिन नंदिता को कोई फर्क नहीं पड़ा।
    महान फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार 98 वर्ष की उम्र में चल बसे। इस दुनिया में जो भी आया है, उसे एक न एक दिन तो जाना ही होता है। दिलीप कुमार ने भरपूर जिन्दगी जी और इसमें अतुलनीय योगदान रहा उनकी पत्नी सायरा बानो का। सर्दी, जुकाम भी होता तो वे पति को अस्पताल ले जाने में देरी नहीं लगातीं। कितनी बार इलाज के लिए दिलीप कुमार अस्पताल ले जाए गये इसकी गिनती तो उनका इलाज करने वाले डॉक्टरों के पास भी नहीं होगी। वे भी सायरा के समर्पण को सलाम करते होंगे। सायरा बानो तो बस मौत के सामने दीवार बनकर डटी रहीं। कभी पत्नी तो कभी मां और बहन बनकर। इतनी देख-रेख और सेवा तो कोई मां ही कर सकती है। दिलीप कुमार ने भले ही किसी दूसरी औरत से कभी रिश्ते जोड़े हों, लेकिन सायरा ने कभी भी वफा का दामन नहीं छोड़ा। अपनी सारी नींदें कुर्बान कर दीं। पति तक किसी चिंता और गम की आंच नहीं पहुंचने दी। पति के चल बसने पर टूटे तन-मन से बोलीं, ‘मेरे जीने का मकसद ही नहीं रहा...।’
    अभिनेत्री मंदिरा बेदी कम उम्र में विधवा हो गयीं। मात्र 49 वर्ष के थे उनके पति राज कौशल। अचानक आये हार्ट अटैक से चल बसे। मंदिरा की तो सारी दुनिया ही लुट गई। दुखों के पहाड़ के बोझ तले दबी मंदिरा अंतिम समय तक पति के साथ बनी रहीं। जब पति के शव को अस्पताल से श्मशानघाट ले जाया गया तो काफी दूर तक अर्थी को पकड़े चलती रहीं। वे लोग जिनका काम ही बस आलोचना करना है उन्हें मंदिरा का पति की अर्थी को कंधा देना भारतीय परंपरा का अपमान लगा। कुछ विचारवानों ने उसकी मुड़ी-तुड़ी टी शर्ट और जींस पर तंज कसे। उनके विचार से उसे अपने पति की मौत का मातम तक मनाना नहीं आया। उसे अच्छी सुसंस्कृत नारी की तरह सफेद साड़ी या सलवार सूट पहन कर लोगों के सामने आना चाहिए था। सदियों से चली आ रही परंपरा को तोड़ने की हिमाकत जो उसने की वह अक्षम्य अपराध है। ऐसे बुद्धिधारियों को हमारा यही कहना है कि जिस नारी को अचानक अपना पति खोना पड़े, वह तो अपनी सुध-बुध ही खो देगी। पति की लाश सामने पड़ी हो और पत्नी लोगों की पसंद का परिधान पहनने के लिए दौड़-भाग करने लगे, सोचकर ही अटपटा और शर्मनाक लगता है। यकीनन, मंदिरा ने वही किया जो एक अच्छी पत्नी के लिए जरूरी था, वह राज से सच्चा प्यार करती थी। सच्चे प्यार में नापतौल और नाटक-नौटंकी की कोई जगह हो ही नहीं सकती...।

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