Thursday, July 22, 2021

शोहरत

    डॉक्टर रंजन कुमार को फेसबुक से चिपका देख उसकी पत्नी का पारा चढ़ जाता है। कल रात को जब डॉ.रंजन लघुशंका के लिए उठा तो उसके हाथ में मोबाइल देख पत्नी फटकारने की मुद्रा में आ गई, ‘ये तो हद की भी इंतिहा हो गई। सब कुछ बर्बाद करने के बाद भी जब देखो तब फेसबुक खोलकर बैठ जाते हो। मुझे तो चिंता होने लगी है कि ये कहीं सचमुच का पागल बना कर तुम्हें पागल खाने न पहुंचा दे। तुम्हरी देखा-देखी अब तो बेटी भी मोबाइल से चिपकी रहती है। मुझे उसके भविष्य की भी चिंता सताने लगी है। अरे, अपनी नहीं तो कम अज़ कम मेरी नींद का तो ख्याल कर लिया करो। तुम अच्छी तरह से जानते हो कि बत्ती जलते ही मेरी नींद में खलल पड़ जाती है और यहां तुम हो कि आधी रात को एकाएक किसी न किसी बहाने उठकर बैठ जाते हो। तुम्हारे इस नशे के कारण मुझे सारी रात करवटें बदल-बदल कर काटनी पड़ती है। तुम्हारा क्या है...सुबह बारह बजे तक खर्राटों वाली नींद लेते रहते हो। मरण तो मेरा है जो समय पर बिस्तर न छोड़ूं तो बच्चे शोर मचाने लगते हैं उनकी भी कोई गलती नहीं। उन्हें सुबह आठ बजे तक स्कूल पहुंचना होता है। पत्नी बोलते-बोलते अंतत: शांत हो गई।
    डॉ. रंजन फेसबुक में मगन रहा। उसने शाम को अपनी ‘रक्तदान’ वाली जो फोटू फेसबुक पर डाली थी, उसमें उसे उतने लाइक नहीं मिले थे, जितने की उसे चाहत थी। डॉ. रंजन को फेसबुक के दोस्तों पर गुस्सा आने लगा। आदान-प्रदान के दस्तूर को भी निभाना नहीं जानते, ऐसी दोस्ती किस काम की...! बीमार होने के बावजूद वह आज गिरते-पड़ते दोपहर को रक्तदान शिविर में रक्तदान करने पहुंच गया था। बड़ी मुश्किल से एक अनजान औरत को तस्वीर लेने के लिए मनाया था। उसी तस्वीर को फेसबुक पर अपलोड करने के बाद कई मित्रों की पोस्ट पर कमेंट्स किये थे। धड़ाधड़ लाइक भी किया था। पांच हजार मित्र होने के बावजूद इतने घण्टों में ‘लाइक’ का आंकड़ा मात्र पचास तक ही पहुंच पाया था।  
    दरअसल, रंजन को कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही नाम कमाने और चर्चा में आने का चस्का लग गया था। तभी उसने कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं। उसे तब बड़ी तकलीफ होती थी जब उसकी लिखी कविताओं को कहीं छापा नहीं जाता था। कई बार उसने दैनिक अखबारों के कार्यालयों के चक्कर काटे, लेकिन संपादकों को उसकी कविताएं पसंद नहीं आयीं। फिर भी कभी-कभार उसकी चार-छह लाइनों की तुकबंदी कहीं छपती तो वह खुशी में झूमने लगता। अपनी अनगढ़ कविता की पंक्तियों को अपने दोस्तों को सुनाने तथा दिखाने के लिए उतावला हो उठता। इसी दौरान उसने कहानियां लिखने की भी कोशिश की, लेकिन दाल नहीं गली। वह जब भी किन्हीं जाने-माने लोगों के बारे में अखबारों में प़ढ़ता तो अपना नाम और फोटो देखने की उसकी इच्छा और बलवति हो जाती।
तब पिता जिन्दा थे। उनकी शहर के मेन बाजार में बड़ी-सी रेडिमेड कपड़ों की दुकान थी। रंजन भी उनका हाथ बंटाता था। इसी दौरान उसने शहर में आयोजित होने वाले विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जाना प्रारंभ कर दिया था। आयोजकों से नजदीकी बनाने के लिए अपनी जेब भी ढीली करनी शुरू कर दी। किसी छपास रोगी की देखा-देखी उसने नियमित ऐसे रक्तदान शिविरों में जाकर रक्तदान करना भी प्रारंभ कर दिया, जहां पर नेताओं और मंत्रियों के कारण भीड़ उमड़ती थी और उनके रक्तदान महाकल्याण की खबरें शहर के समाचार पत्रों में प्रकाशित होती थीं। रंजन की हमेशा किसी मंत्री या बड़ी हस्ती के करीब खड़े होने की कोशिश होती। उसकी कुछ फोटोग्राफरों से भी पहचान हो चुकी थी, जिन्हें वह पहले से ही कुछ दान-दक्षिणा देकर अपनी असरदार तस्वीर लेने को तैयार कर लेता था। बाद में जब हर हाथ में मोबाइल आ गए तो उसे उनकी ज्यादा जरूरत नहीं रही। अब तो जो भी आसपास दिखता उसे अपना मोबाइल देकर फोटो लेने की विनती कर देता। धीरे-धीरे रंजन के पास अखबारों में छपी खबरों का विशाल भंडार जमा होता चला गया। उसने इनकी कटिंग काट कर कई फाइलें तथा एलबम तैयार कर लीं। इन्हें वह अपने घर के ड्राइंगरूम में रखी टेबल पर ऐसे सज़ाकर रखता कि आने वाले किसी भी मेहमान की उन पर नज़र पड़ ही जाती। बातचीत के दौरान वह अपनी खबरों तथा तस्वीरों से सजी-संवरी एलबम उन्हें ऐसे दिखाता जैसे कोई महान लेखक अपनी मौलिक कृति ज्ञानवान पाठक, समीक्षक के समक्ष पेश कर उसकी तारीफ तथा मूल्याकंन का सुख पाता है। इसी दौरान देश के विभिन्न शहरों में स्थित उन संस्थाओं से भी उसका संपर्क होता चला गया जो धन लेकर समाजसेवक, प्रकांड विद्धान, राष्ट्र सेवक साहित्य श्री, राष्ट्र प्रेमी, धर्माचार्य, सर्वश्रेष्ठ बिजनेसमैन आदि-आदि के प्रमाण पत्र तथा सम्मान पत्र देती थीं। पैसा फेंकने में हमेशा तत्पर रहने वाले रंजन को मेरठ की एक संस्था ने मोटी रकम की ऐवज में डॉक्टर की पदवी से भी नवाज दिया।  तब से वह अपने नाम से पहले ‘डॉक्टर’ लगाने लगा। पिता चल बसे थे। अब तो वह मन का राजा था। नाम चमकाने तथा लोगों की नजरों में बने रहने की उसकी अपार लालसा के बारे में शहर ही नहीं, दूर-दूर के लोगों को पता चलता गया। कई धन की लालची संस्थाएं उसे निमंत्रित करने लगीं। वह उन्हें मोटा चंदा देकर मंच पर आसीन होने का आनंद लेता। जब वह मंच पर होता तो उसका सीना चौड़ा हो जाता। एक से एक चमकती शील्ड, प्रमाणपत्र, सम्मान पत्र और डिग्री पर डिग्री शोकेस में सजती चली गयी।
    आज तो सब खत्म हो चुका है, लेकिन तब पत्नी रोती-कलपती रहती थी कि दुकानदारी में ध्यान दो, लेकिन उसने उसकी एक नहीं सुनी। जब भी कोई उसे बुलाता, दुकान नौकरों के भरोसे छोड़कर चल देता। आखिरकार वही हुआ जो होता आया है...। एक समय ऐसा आया जब दुकान पूरी तरह से खाली हो गई। सामान नहीं होने के कारण ग्राहकों ने दुकान की तरफ झांकना तक बंद कर दिया।
    सोचते-सोचते जब रंजन को नींद आने लगी तब उजाला हो चुका था। पत्नी, बेटी और बेटे के लिए नाश्ता और टिफिन तैयार करने में लग चुकी थी। वह रंजन को लेकर भी बेहद चिंतित रहती है। पिता की छोड़ी विरासत को कुछ ही साल में तबाह करके रख देने वाले पति के प्रति उसके मन में गुस्सा और सहानुभूति दोनों है। अब तो रंजन की जेब भी पूरी तरह से खाली हो चुकी है। इन दिनों बस उसका एक ही काम है, फेसबुक पर विभिन्न पोस्ट तथा तस्वीरें डालकर कमेंट्स और लाइक्स का बड़ी बेसब्री से इंतजार करना...। जब कमेंट्स और लाइक मनमाफिक नहीं मिलती तो वह उदास हो जाता है। इस गम के दौर में भी वह दूसरों को लाइक देने में कंजूसी नहीं करता। सजग पत्नी को तो अपने पति की बर्बादी की वजह बताने में ही शर्म आती है...। दुकान के खाली हो चुके शोकेस में सजायी गई शील्डों, सम्मान पत्रों के साथ रखी पचासों तस्वीरें उसे गुस्सा दिलाती हैं, जिनमें मंचों पर पुरस्कृत होता रंजन नेताओं और खाकी वर्दी वालों के साथ मुस्कुराता नज़र आता है।
    घड़ी के कांटे बता रहे थे कि दोपहर के दो बज चुके हैं। उदास और निराश रंजन ने बड़ी मुश्किल से बिस्तर छोड़ा। चाय पिलाने के बाद पत्नी ने जो बताया उससे जो उसके हाथ-पैर कांपने लगे। सुबह करीब दस बजे मोहल्ले की एक कॉलेज गर्ल की किसी सिरफिरे ने चाकू घोंपकर निर्मम हत्या कर दी। हट्टा-कट्टा काला-कलूटा हत्यारा युवक किसी तरह कुछ पड़ोसियों के पकड़ में आ गया और उन्होंने उसे पुलिस के सुपुर्द कर दिया था। पुलिसिया पूछताछ में उसने बताया कि युवती उसकी फेसबुक फ्रेंड थी। छह महीने पहले दोनों दोस्त बने थे फ्रेंड रिक्वेस्ट युवती ने ही भेजी थी। दोस्ती के तुरंत बाद उसी ने चैटिंग की शुरुआत की थी। बार-बार कहती रहती, ‘‘मुझे तुम से प्यार हो गया है। अब तो कोरोना भी ठंडा पड़ गया है। जल्दी मिलने आ जाओ। खूब मौज-मस्ती करेंगे।’’मोबाइल नंबर देने की पहल भी उसी ने की थी। मेरी हर फोटो पर लाइक की झड़ी लगा देती और ऐसी-ऐसी कमेंट्स लिखती कि मैं मिलने को बेकरार हो गया। मिलने का दिन भी उसी ने सुझाया था। उसने वीडियो कॉल में मादक अंगड़ाई लेते हुए बताया था कि मकान मालिक कुछ दिनों के लिए बाहर गये हुए हैं। तुम बस उड़कर आ जाओ। मैं भी उसे पाने को उतावला था इसलिए अमृतसर से यहां आ पहुंचा। होटल के कमरे में नहा-धोकर जब उसके घर पहुंचा तो मेरी खुशी की कोई सीमा नहीं थी, लेकिन वह मुझे देखते ही जली-कटी सुनाने लगी, तुम तो कपटी और धोखेबाज इंसान हो। फेसबुक में तो अपनी ऐसी-ऐसी आकर्षक तस्वीरें डालते रहे, जिन्हें देखकर मैं तुम पर लट्टू होती चली गई। तुम्हें देखने के बाद तो मुझे डर लगने लगा है। फौरन दफा हो जाओ यहां से...। हजारों मील की लंबी रेलयात्रा कर मैं उसके पास पहुंचा था और उसने दुत्कारते हुए दरवाजा ही बंद कर लिया। ऐसे में मेरा खून खौल गया और चाकू घोंपकर मैंने उसे वो मौत दे दी, जिसकी वह हकदार थी...हत्यारे की हिंसक सोच ने पुलिस अधिकारी के खून को खौला दिया और उन्होंने उसे तब तक पीटना जारी रखा जब तक वह अधमरा नहीं हो गया।

No comments:

Post a Comment