Thursday, October 7, 2021

इसे भी पढ़ लीजिए

एक तरफ तरह-तरह की अवधारणाओं और जंजीरों को तोड़ने के ताकतवर सफर का सिलसिला है, जो सदियों तक याद रहने वाला इतिहास लिख रहा है, दूसरी तरफ वही पुराना अनंत उत्पीड़न है, वहशीपन है, जो खत्म होने को तैयार नहीं! केरल के त्रिशूल जिले की सुबीना रहमान को हिंदू श्मशान घाट पर शवों का दाह संस्कार करते हुए तीन वर्ष से ज्यादा हो चुके हैं। सुबीना से लोग अक्सर सवाल करते हैं कि मुसलमान होकर भी हिंदुओं का दाह संस्कार क्यों करती हैं, तो वह उन्हीं से पूछती हैं कि आप ही बताएं कि मौत का किसी जात-पात और धर्म से कोई नाता है? हर इंसान के खून का रंग भी तो एक-सा लाल है और हर किसी को खाली हाथ अपनी अंतिम यात्रा पर जाना है...। फिर कैसा भेदभाव और दूरियां! मेरे लिए तो इंसानियत से बढ़कर और कोई मजहब नहीं...। आपसी सद्भाव और मानवता की यह सच्ची साधक रोज सुबह श्मशान घाट पहुंच पीतल का दीया जलाकर शवों के दाह संस्कार की तैयारी में लग जाती है। पहले तो शवों की संख्या ज्यादा नहीं होती थी। कुछ आराम करने का वक्त मिल जाता था, लेकिन कोविड-19 ने एकाएक मृतकों की तादाद इतनी अधिक बढ़ा दी कि दो पल राहत की सांस लेना भी मुश्किल हो गया था। फिर भी सुबीना कतई नहीं घबरायी। कोरोना महामारी के हाथों असमय मारे गये लगभग ढाई सौ लोगों के शवों का अंतिम क्रियाकर्म कर चुकी इस अकेली जान को घंटों पीपीई किट में जलती चिताओं की तपन से पसीना-पसीना होते देख लोग हैरत में पड़ जाते थे, लेकिन सुबीना के चेहरे पर कोई शिकन नहीं होती थी। ऐसा लगता जैसे वह किसी पूजा-अर्चना में तल्लीन है। हां, कई बार उसे इस बात का अफसोस जरूर होता था कि कई मृतकों के परिजन बीमारी, महामारी के डर से उनकी अंतिम यात्रा में शामिल नहीं होते थे। अग्नि देना तो बहुत दूर की बात थी।
    हिम्मती सुबीना यह कहने में भी कभी कोई संकोच नहीं करती कि उसके इस पेशे में आने का एक कारण धन पाना भी है, जिससे उसके परिवार का भरण-पोषण होता है और बीमार पिता का समुचित इलाज भी हो पा रहा है। वह तो बचपन में पुलिस अधिकारी बनने के सपने देखा करती थी...। भाग्य में जो लिखा था, उससे भागना संभव नहीं हो पाया। वैसे यह मेरी खुशनसीबी ही है, जो ऊपर वाले ने मुझे इंसानी फर्ज़ और धर्म को निभाने की ताकत बख्शी है...। भारतीय समाज में नये कदमों और नये विचारों को पूरे मनोबल और निर्भीकता के साथ आत्मसात करने वाली नारियों की कभी कमी नहीं रही। पुरुषों को चुनौती देती चली आ रही संघर्षशील महिलाओं के रास्ते में कंटक बिछाने की साजिशें हमेशा होती आयी हैं। नारियों की उदारता, सहनशीलता और समर्पण भावना की पहचान पुरुष को अभी भी नहीं हो पायी! सच तो यह है कि उसकी गहराई और विशालता का पता लगा पाना आज भी दंभी और स्वार्थी पुरुषों के बस की बात नहीं। स्त्री-पुरुष में पिता, भाई और प्रेमी का चेहरा तलाशती है, लेकिन पुरुष देह के चक्रव्यूह से बाहर ही नहीं निकल पाता। सच्चे प्रेम को लेकर भी नारियां जितनी गंभीर हैं, पुरुष नहीं। बुरे समय में पुरुषों का साथ देने में नारियां अपना सबकुछ अर्पित कर देने में नहीं हिचकिचातीं। बेटियां तो पिता की दुलारी होती हैं। मां से ज्यादा वे पिता के करीब होती हैं। उनके जीवित रहने और गुजर जाने के बाद भी। हर पिता भी अपनी दुलारी को हमेशा खुश देखना चाहता है। पुत्री की हल्की-सी उदासी उसे गमगीन कर देती है। उसकी रातों की नींद तक उड़ जाती है, लेकिन कुछ बाप सिर्फ पाप हैं। कहने को वे अपवाद हैं, लेकिन इन्हीं दुष्टों ने पवित्र रिश्तों पर ऐसी कालिख पोत दी है, जिसे मिटाना आसान नहीं।
    पेशे से डॉक्टर रजनी के पिता की बीते वर्ष कोरोना से मौत हो गई थी। पिता को मुखाग्नि देने के लिए जब इधर-उधर देखा जा रहा था, तब रजनी ने बेटी होने के बावजूद बेटे का फर्ज निभाया। इस वर्ष पितृपक्ष में उसने श्राद्घ और तर्पण कर बेटे की कमी पूरी की। रजनी कहती हैं कि जिस पिता ने उम्र भर मुझे दुलार, प्यार दिया, पढ़ाया-लिखाया, मेरी सुख-सुविधाओं के लिए अपनी सभी खुशियां कुर्बान कर दीं उनके लिए मैं बेटी होने के साथ-साथ बेटे का दायित्व और कर्तव्य क्यों न निभाऊं? रजनी की तरह और भी अनेकों बेटियां हैं, जो फर्ज़ और परिवर्तन की मशाल जलाती चली आ रही हैं, लेकिन यह कितना शर्मनाक सच है कि हौसलों के साथ उड़ान भरती बेटियों के पंख काटने वाले कई मर्द अपने भीतर की कुरूपता और नपुंसकता उजागर करने से बाज नहीं आ रहे हैं।
बिहार के बक्सर जिले में एक शिक्षक ने गुरू-शिष्य... शिष्या के पवित्रतम रिश्ते को वासना की सूली पर लटका कर अपना असली चेहरा दिखा दिया। यह नराधम शिक्षा देना छोड़ अपनी छात्राओं को निर्वस्त्र कर नचवाता था। इसकी गंदी निगाहें और हाथ उनके जिस्म को टटोलते रहते थे। छात्राएं विरोध करतीं तो वह उनकी छड़ी से पिटायी कर अपनी शारीरिक तथा मानसिक हवस की आग को बुझाता था। मध्यप्रदेश के धार जिले में एक 19 वर्षीय युवती को अपने 21 वर्षीय प्रेमी के साथ घर से भागने की सज़ा के तौर पर गले में टायर डालकर गांव में घुमाया और नचवाया गया। इतना ही नहीं जिस तेरह वर्षीय नाबालिग लड़की ने घर से भागने में दोनों की सहायता की थी उसका भी उनके साथ नग्न जुलूस निकाला गया। यह सारा तुगलकी तमाशा समाज के जाने-माने प्रतिष्ठित चेहरों की निगाहों के सामने चलता रहा, लेकिन वे उसे बंद करवाना छोड़ मनोरंजित और आनंदित होते रहे। जब मैं इन खबरों को पढ़ रहा था तभी एकाएक मेरी निगाह दो अगल-बगल छपी इन खबरों पर पड़ी। पहली खबर का शीर्षक था, डूबती बच्ची को कुत्ते ने बचाया। एक छोटी-सी बच्ची समुद्र के किनारे खेलते-खेलते लहरों के बीच में जा फंसी। उसी वक्त घर के पालतू कुत्ते ने उसे देखा और डूबने का अंदेशा होते ही तेजी से उसकी तरफ दौड़ा। समुद्र की तेज लहरें बच्ची को निगल जाने को आतुर थीं। बेबस बच्ची को बड़ी तेजी से अपने साथ बहाती चली जा रही थीं। अपने मालिक के वफादार कुत्ते ने चीते की सी फुर्ती के साथ नायक की तरह बच्ची के कपड़े को मुंह में दबाया और खींचकर किनारे ले आया। बच्ची की जान बच गई। दूसरी खबर इंसान के घोर पतित और खूंखार जानवर होने की है..., एक नाबालिग लड़की महीनों अपने ही पिता की अंधी वासना की भेंट चढ़ती रही। उसके रोने, बिलखने और रहम करने की फरियाद को भी नराधम ने अनदेखा कर दिया। जब वह गर्भवती हो गई तब कहीं जाकर मां की आंखें खुलीं। आसपास रहने वाले लोग माथा पीटते रह गये। इस खबर को पढ़ते... पढ़ते मुझे लगा किसी ने ऊंचे पुल से नीचे बहती नदी में फेंक दिया है। यह कितनी शर्मनाक हकीकत है कि जिस जन्मदाता पर अपनी इकलौती बेटी की रक्षा-सुरक्षा की जिम्मेदारी थी, वही भक्षक बन गया! उस बच्ची को तो कुत्ते ने डूबने से बचा लिया, लेकिन मानव के रूप में जन्मा यह कुत्ता-पिता वहशी जानवर बन ऐसी खबर बन गया, जिसे पढ़कर कितनों का खून खौल गया। उनका बस चलता तो गर्दन मरोड़कर जान ही निकाल देते। बस मुर्दा ज़िस्म ही कहीं गटर में पड़ा मिलता।

No comments:

Post a Comment