Thursday, November 25, 2021

यही तो हैं भगवान

    तस्वीरें देखता रहा और बहुत देर तक बस सोचता रहा। कोई भी औरत या आदमी किसी शादी-समारोह या किसी उत्सव में शामिल होने के लिए जाता है, तो नयी से नयी पोशाक धारण कर जाता है। उसकी यह हसरत भी होती है कि सजधज में वह सबसे अलग और खास नज़र आये, जब नये वस्त्र नहीं होते तो पुराने को अच्छी तरह से इस्त्री कर बन-ठन कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है। फिर यह तो पद्म सम्मान वितरण समारोह था, जिसमें सभी रोजमर्रा के पहनावे से हटकर कुछ नया धारण कर पुरस्कार लेने और कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आये थे। लिपे-पुते चेहरों की भीड़ में बदन पर पुरानी साड़ी लपेटे नंगे पांव पद्मश्री सम्मान हासिल करने के लिए राष्ट्रपति भवन पहुंचीं तुलसी गौडा को जिस किसी ने करीब से देखा, नतमस्तक होकर रह गया। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने भी बड़े गर्व और आदर-सम्मान के साथ उनका अभिवादन किया। वे पल यकीनन अद्भुत भी थे और अभूतपूर्व भी। प्रकृति को अपनी मां की गोद मानने वाली तुलसी गौडा का जन्म कर्नाटक के एक अत्यंत गरीब परिवार में हुआ। गरीबी ने उनसे पढ़ने-लिखने का अधिकार भी छीन लिया। स्कूल तक का मुंह नहीं देखने वाली तुलसी गौडा ने मानव कल्याण के लिए जिस तरह से अपने आपको समर्पित कर दिया उसकी दूर-दूर तक मिसाल नहीं। पिछले पचास-साठ साल से पर्यावरण संरक्षण में लगी हैं। पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों की वे अभूतपूर्व जानकार हैं। वनस्पतियों की जितनी जानकारी और समझ उन्हें है, उतनी तो वैद्यों और वैज्ञानिकों को भी नहीं है। बारह वर्ष की जिस उम्र में बच्चे खेलने-कूदने के लिए पगलाये रहते हैं, तभी से इस गरीब वनवासी परिवार की जिज्ञासु पुत्री ने पेड़-पौधों से बातें और दोस्ती करनी प्रारंभ कर दी थी। अभी तक लगभग एक लाख से ज्यादा पेड़, पौधे लगाकर हरियाली फैला चुकीं तुलसी वाकई पवित्र वो ‘तुलसी’ हैं, जो हर किसी के घर-आंगन की शान होती है।
    कर्नाटक के ही एक और कर्मयोगी जब एकदम साधारण पोशाक में नंगे पांव राष्ट्रपति भवन में पद्मश्री पुरस्कार लेने पहुंचे तो लोग उन्हें भी विस्मित होकर देखते रह गये, जब उन्हें सम्मानित किया जा रहा था, तब हॉल में उत्साह भरी जो तालियां बजीं उनकी आस्था, गूंज और पवित्रता मंदिर की घंटियों से कमतर नहीं थी। तुलसी गौडा की तरह हरेकला हजब्बा भी ऐसी प्रेरक हस्ती हैं, जिनकी पूजा की जानी चाहिए। जिन भक्तों को फिल्मी सितारों के मंदिर बनाने की सूझती रहती है, उन्हें एक बार इन फरिश्तों का भी दीदार कर लेना चाहिए। इन फरिश्तों ने दिखा दिया है कि अगर जनहित का जुनून हो तो कोई भी तकलीफ रास्ता नहीं रोक पाती। अपने मन की करने के लिए धनवान होना तो कतई भी जरूरी नहीं। हजब्बा का भी पैदा होते ही गरीबी और अभावों से पाला पड़ा। जिस गांव में जन्मे वहां स्कूल नहीं था। दूसरे बच्चों की तरह अनपढ़ रहे, लेकिन जिन्दगी के स्कूल ने खूब पढ़ाया और तपाया। हजब्बा ने गरीबी से लड़ने के लिए कई छोटे-मोटे काम किए। मन में एक टीस भी थी कि पढ़-लिख पाता तो कुछ बन जाता। संतरे बेचते-बेचते कितना कुछ सोचते, मैं तो शिक्षा से वंचित रहा। मेरा तो जैसे-तैसे बचपन बीत गया, लेकिन आज के गरीब बच्चों का क्या होगा? गांव में स्कूल के अभाव में वे भी अपनी पढ़ने और आगे बढ़ने की इच्छा का गला घोंटते रहेंगे? हजब्बा दिन-रात चिंतित रहते, लेकिन इससे तो कुछ हल नहीं निकलने वाला था। उन्होंने खूब मेहनत कर पैसे बचाने प्रारंभ कर दिए। पाई-पाई जोड़कर अपने छोटे से पिछड़े गांव में स्कूल खोल डाला। हजब्बा के इस स्कूल में आसपास के गांवों के बच्चे-बच्चियां पढ़ने के लिए आते हैं। बच्चों के मां-बाप के लिए हजब्बा भगवान हैं, जिन्होंने उनके बच्चों की चिंता की। हजब्बा तो अभी और भी बहुत कुछ करना चाहते हैं। उनका बस चले तो इस देश के किसी भी बच्चे-बच्ची को शिक्षा से वंचित न रहने दें।
    चमचमाते नगरों-महानगरों में बड़ी आसानी से मिलने वाली तमाम सुख-सुविधाओं का आनंद लेने वाले अधिकांश लोगों को शायद ही भारत के गांवों की दुर्दशा की जानकारी होगी। महात्मा गांधी कहा करते थे कि ग्राम तो देश की आत्मा हैं। यही भारत का असली चेहरा हैं, लेकिन इस असली चेहरे पर आज भी उदासी है, जिसे दूर करने के लिए वो चेहरे अपना सबकुछ समर्पित कर रहे हैं, जिन्हें अक्सर नजरअंदाज किया जाता रहा है। उन्हें पुरस्कार पाने और अपना नाम चमकाने की कोई चाह नहीं है। कोई साथ दे या न दे, लेकिन उन्होंने तो जो सोचा और ठाना, उसी को चुपचाप करने में लगे हैं। यही उनकी पूजा है। यही उनका धर्म है।
    राम भगवान की अयोध्या नगरी के मुहम्मद शरीफ को भी इस बार पद्मश्री से नवाजा गया। दरअसल, मेरा तो यह लिखने का मन हो रहा है कि पद्मश्री को उन्होंने नवाजा। सरकारी सम्मान की मान-मर्यादा और कद को और ऊंचा कर दिया। परोपकारी शरीफ के जवान बेटे की तीस वर्ष पूर्व सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी। उन्हें अपने मृत बेटे का चेहरा देखना तक नसीब नहीं हुआ था। उन्हें तो खबर ही नहीं लग पायी थी कि बेटे के साथ क्या हुआ। वह कहां गुम हो गया। वे तो कई दिनों तक उसे यहां-वहां तलाशते रहे। एक दिन उन्हें पता चला कि पुलिस ने लावारिस मानकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया है। अपने इकलौते बेटे को इस तरह से खोने वाले मुहम्मद शरीफ जब किसी तरह से मातम से बाहर आये तो उसके मन-मस्तिष्क में विचार आया कि मेरा बेटा तो अब नहीं रहा, लेकिन कितने और बदनसीब होते होंगे, जिनके जवान बेटों की ऐसी ही लावारिस मौत हो जाती होगी और उनका ऐसे ही अंतिम संस्कार कर दिया जाता होगा। तभी उन्होंने कसम खायी कि उन्हें अब ताउम्र लावारिसों का वारिस बनकर इंसान होने के फर्ज को निभाना है। अपनी उस कसम की जंजीरें उन्होंने कभी भी कमजोर नहीं होने दीं। पिछले पच्चीस वर्षों में पच्चीस हजार से अधिक लावारिसों की अंतिम क्रिया करने के बाद भी मुहम्मद शरीफ ज़रा भी नहीं थके हैं। यह भी जान लें कि उनके पास भी धन का खजाना नहीं है। आर्थिक तंगी तब भी थी। आज भी बनी हुई है, लेकिन जिद और हौसला हर अड़चन को सतत मात देता चला आ रहा है।

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