Thursday, January 27, 2022

डॉक्टर भी इंसान ही हैं

    मेडिकल साइंस कहां से कहां तक का सफर तय कर चुकी है। उसके कदम सतत आगे बढ़ते ही चले जा रहे हैं। उसका इरादा तो इंसान को अमरत्व प्रदान करने का है, लेकिन यह इंसान ही है, जो अक्सर अंधा हो जाता है। विवेकशून्य होने के कगार पर जा खड़ा होता है। अमानवीयता का नृशंस दामन थाम लेता है। जहां बड़ा दिल दिखाने की जरूरत होती है, वहां निजी स्वार्थ का गुलाम होकर रह जाता है। क्या कभी कल्पना की गई थी कि इंसान के अंदर सुअर का दिल धड़केगा? इंसान को इंसान का दिल लगाये जाने की उत्साहवर्द्धक हकीकत से तो सभी वाकिफ हैं। बहुतों की तरह मेरे लिए भी यह खबर चौंकाने और हिलाने वाली रही कि, ‘अमेरिका के मेरीलैंड अस्पताल में एक इंसान की जान को बचाने के लिए सुअर का हार्ट ट्रांसप्लांट किया गया है। जिस शख्स को सुअर का दिल लगाया गया है वह बहुत अच्छा महसूस कर रहा है। डॉक्टरों का कहना है कि ‘ये अभूतपूर्व प्रक्रिया है। इससे अंग प्रत्यारोपण का इंतजार कर रहे लाखों लोगों में नई आशा का संचार हुआ है। जीने की उम्मीद जागी है।’ इस खबर को पढ़ने और जानने के चंद दिनों बाद ही यह खबर भी पढ़ने में आयी है कि वाशिंगटन में चिकित्सकों ने सुअर की किडनियों को ब्रेन-डेड व्यक्ति में प्रत्यारोपित किया और काफी सकारात्मक परिणाम सामने आये हैं। जानवरों के अंगोें को मानव शरीर में लगाने की कई कथाएं कभी सुनी-सुनायी जाती थीं, लेकिन उन पर कम ही यकीन होता था, लेकिन अब तो जीती-जागती सच्चाई हमारे सामने है।
    जिस इंसान के हृदय ने उसका साथ देने से इंकार कर दिया हो, मौत सिरहाने खड़ी ठहाके लगा रही हो, पल-पल डरा रही हो, उसे विज्ञान की इस नई पहल, नये प्रयोग ने कितनी आत्मिक खुशी दी होगी उसे शब्दों में तो कतई व्यक्त नहीं किया जा सकता। इस सच को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि विदेशों में इंसानों की जान को बचाने के लिए किए जानेवाले विभिन्न प्रयोगों को शंका की निगाह से नहीं देखा जाता। दूसरों के लिए अपने सुखों और खुशियों की कुर्बानी देने वाले डॉक्टरों, नर्सों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों का आदर-सत्कार किया जाता है, लेकिन अपने देश में...!?
    आज से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व असम में रहने वाले डॉक्टर धनीराम बरूआ ने एक बत्तीस वर्ष के दिल और फेफड़ों के मरीज को सुअर का दिल और फेफड़े ट्रांसप्लांट किए थे। हांगकांग के एक कुशल डॉक्टर के साथ मिलकर की गई इस थका देने वाली सर्जरी में 15 घंटे लगे थे। जिस मरीज पर यह अभूतपूर्व प्रयोग किया गया था वह काफी खुश और संतुष्ट था। यह सच्चाई अपनी जगह है कि एक हफ्ते के भीतर उसकी मौत हो गई थी, लेकिन उसने डॉक्टरों के अथक परिश्रम की बदौलत उपहार में मिले जो दिन जिए थे वे यकीनन अनमोल थे।
    अमेरिका में तो इंसान की जान बचाने के लिए किये गए ऐतिहासिक प्रयोग की वाहवाही हुई, लेकिन भारत में शक्की और अहसानफरामोशों की कतार लग गई। एक हिंदुस्तानी डॉक्टर ने यह कैसा अपराध कर डाला? इंसान को सुअर का दिल! यह भी कोई बात हुई? लगाना था तो किसी अच्छे-साफ सुथरे जानवर का दिल लगाते। सुअर तो उस गंदगी और कीचड़ में जीता-खाता है, जिससे इंसानों की जात को घोर नफरत है। ऐसे में उसका दिल इंसान को... तौबा...तौबा। यह तो घोर अनर्थ है। अक्षम्य अपराध है। अधर्म है। अमेरिकी डॉक्टरों को जहां पुरस्कृत किया गया वहीं भारतीय डॉक्टर को चालीस दिन तक हत्या के जुर्म में जेल की हवा खानी पड़ी। उनके अस्पताल में तोड़फोड़ की गई। जेल से बाहर आने के बाद भी उन्हें लोगों के तंज, ताने सुनने पड़े। अपमान के नुकीले दंशों से बार-बार आहत होना पड़ा। डॉक्टर बरूआ ने तो खुद को कोसा होगा। किसी की जान बचाने चले थे, कातिल घोषित कर दिये गए। अपने देश में डॉक्टरों के साथ ऐसे अमानवीय और अभद्र व्यवहार का होना कोई नयी बात नहीं है। अस्पताल में भर्ती करवाने के पश्चात मरीज बच गया तो डॉक्टर भगवान और यदि कहीं मर गया तो वो हो गया हत्यारा और शैतान। भूल-चूक तो कहीं भी हो सकती है। होती ही रहती है, लेकिन डॉक्टरी के पेशे में यदि सतर्कता और मानवता नहीं होगी तो लोग डॉक्टर को धरती का भगवान मानना ही छोड़ देंगे। बीमार बड़े भरोसे के साथ डॉक्टर की शरण में जाता है और लगभग हर सच्चा डॉक्टर अपने मरीज की रक्षा-सुरक्षा के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देता है। कोई भी डॉक्टर अपने नाम पर बट्टा नहीं लगाना चाहता। हम भले ही डॉक्टर को भगवान मानें, लेकिन सच तो यही है कि वह भी इंसान है, जो अपना कर्तव्य निभाता है। कोरोना जब चरम पर था, तब हमारे यहां अधिकांश डॉक्टरों, नर्सों एवं अन्य स्वास्थ्य कर्मियों ने दिन-रात अपनी सेवाएं दीं, लेकिन कुछ लोगों ने जानबूझकर अपनी नीचता और वैमनस्य का प्रदर्शन किया। अस्पतालों और डॉक्टरों पर भेदभाव के आरोप लगाये गए। कई कोरोना से जंग लड़ते योद्धाओं को इसलिए मारा, पीटा और अपमानित किया कि उनके अपने करीबी बच नहीं पाये। कुछ मकान मालिकों ने उन्हें अछूत मानते हुए घर खाली करने का जिद्दी फरमान सुनाये तो कुछ ने उनका सामान ही सड़क पर फेेंक दिया। उनके आसपास रहने वाले लोग भी यह सोचकर उनसे दूरी बनाते रहे कि उनके निकट जाने से कहीं वे भी कोरोना के शिकार न हो जाएं। सोचिए जिन्हें सेवा के बदले सजाएं झेलनी पड़ें उनके दिल पर क्या बीतती होगी?

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