Thursday, January 6, 2022

हंगामा... हंगामा!

    2021 तो चला गया, लेकिन कुछ कटु यादें छोड़ गया। इस एक साल में उत्थान भी देखा। पतन भी देखा। कई लोगों की महानता तो कुछ लोगों की नीचता भी देखी। यह सच भी समझ में आया कि कुछ भारतीयों की वाणी हरदम जहर उगलने को आतुर रहती है। उन्हें आप कितना भी दूध पिला लो, समझा लो, लेकिन वे विष उगलना नहीं छोड़ते। इनमें नामी-बेकामी ज्ञानी चेहरे भी शामिल हैं। इस कुटिल खेल में शामिल तो वे भी हैं, जिन्हें बात-बात पर प्रतिक्रियाएं देने की बीमारी है। बदतमीजी करने और उकसाने वाले जन्मजात बयानवीरों को नजरअंदाज करना तो उन्होंने सीखा ही नहीं। अपने-अपने तरीके से बस उनका मनोबल बढ़ाते रहते हैं। ये चुप्पी बनाये रहते तो बड़े से बड़े बकवासी की जुबान पर कुछ तो ताला लग जाता और हौसला ठंडा हो जाता। दरअसल ये धुरंधर आग में पेट्रोल डालने की कला के जबरदस्त खिलाड़ी हैं। धूर्त, कपटी और तमाशबीन तो वे भी कम नहीं, जो खुद को सेक्युलर यानी धर्मनिरपेक्ष बताते हैं और अपने स्वार्थ का झंडा लहराते हैं। इनमें से कई तो कांग्रेस के सत्ता में नहीं होने के गम में डूबे हैं। बेचारे कभी-कभार दिखावे के लिए गांधी का चरखा चलाकर अपने आकाओं का दिल बहलाते हैं...।
    पिछले कुछ वर्षों से बड़े ही सुनियोजित तरीके से आस्थाएं और परिभाषाएं बदलने का भी नाटक चल रहा है। नाटककारों के लिए न दर्शकों की कमी है और ना ही तालीबाजों की। इसलिए भय और नफरत का सैलाब लाने वालों के हौसले बुलंद हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आयोजित धर्म संसद के मंच पर खुद को हिंदुओं का रक्षक कहने वाले कालीचरण ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को देश का सत्यानाश करने वाला बताते हुए हत्यारे नाथूराम गोडसे को नमस्कार किया तो वाहवाही भी हुई और तालियां भी गूंजीं। मंच पर उपस्थित एक-दो भगवाधारियों के विरोध के स्वरों ने जब हलचल मचायी तो हंगामा बरपा हो गया कि अच्छे-भले मंच पर एक भगवाधारी ने यह क्या कह डाला? सच कहें तो इसमें नया कुछ भी नहीं था। हैरत जताने वालों को कालीचरण के इतिहास की पूरी जानकारी थी। उसने गांधी को अपमानित करने वाले बोल कोई पहली बार तो नहीं बोले थे। वह तो वर्षों से ही अपने सोचे-समझे अभियान में लगा है। टोकने-बोलने वाले कितना भी जोर लगाते रहें सवाल पर सवाल उठाते रहें कि क्या संत ऐसे होते हैं? उसे न फर्क पड़ा है और न ही पड़ने वाला है। उसकी अपनी धारणा है, अपने ही विचार हैं...। उसका दावा है कि वह सनातन धर्म, मानवता और हिंदुओं के लिए लड़ रहा है। अपनी राह में रोड़ा अटकाने वालों को वह अपना शत्रु मानता है।
    हत्यारे नाथूराम गोडसे को नमन और बापू को देश का शत्रु मानने वाला कालीचरण पहला शख्स नहीं, जिसने गांधी के खिलाफ कटु शब्दों का छाती ठोक कर इस्तेमाल कर अपनी विषैली उद्दंडता दिखायी है। सच तो यह है कि जो चेहरे बापू के हत्यारे गोडसे का मंदिर बनाने का साहस दिखा सकते हैं उनकी तस्वीरों पर गोलियां बरसा कर लाल रंग की धारा दिखा सकते हैं, उनमें बदलाव लाने की कल्पना ही बेमानी है। कालीचरण की तरह उसकी हिंदू राष्ट्र सेना तथा सैनिकों ने भी यह धारणा अपने मन-मस्तिष्क में बसा ली है कि महात्मा गांधी हिंदू समाज के सबसे बड़े दुश्मन थे। गांधी का महात्मापन नकली था। उसे किसी पर जबरन नहीं थोपा जा सकता। वह स्वतंत्रता सेनानी हो सकते हैं, लेकिन राष्ट्रपिता नहीं। कालीचरण के भक्तों के पास और भी कई सवालों और आपत्तियों की भरमार है...। जेएनयू में जब देश विरोधी नारे लगते हैं तब गांधी के अधिकांश अनुयायियों के मुख पर ताले क्यों लग जाते हैं? खुद पर सेक्युलर का ठप्पा लगाये घूमते असली-नकली क्रांतिकारी बुद्धिजीवी कौन-सी बिल में घुस जाते हैं? श्री कृष्ण और श्रीराम को कटघरे में खड़े करने और उनके अस्तित्व को नकारने वालों के होश ठिकाने क्यों नहीं लगाये जाते? इस सच को भी क्यों नजरअंदाज किया जाता है कि देश को आजाद कराने में अकेले गांधी की ही सर्वोपरि भूमिका नहीं थी। शहीद भगतसिंह, लाला लाजपत राय, सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद जैसे कई नाम हैं, जिनकी कुर्बानी गांधी से कमतर नहीं। गांधी और नेहरू परिवार को ही आजादी के एकमात्र नायक दिखाने की साजिश के सूत्रधार कौन हैं? सभी सवाल अपनी जगह हैं, लेकिन कलमकार का यही मानना है कि आप चाहे किसी को भी अपना नायक मानें, लेकिन दूसरों की पसंद और आस्था को अपमानित करने का गुनाह क्यों? गाली और गोली तो वो हिंसा है, जिसके जख्म कभी नहीं भर पाते।
    धर्म और अधर्म के बीच फर्क बताने वाले तथाकथित धार्मिक चेहरों के मंच पर अपनी भड़ास निकालने वाला कालीचरण अपने मकसद में तो कामयाब हो ही गया। अभिजीत धनंजय सराग उर्फ कालीचरण ने घाट-घाट का पानी पिया है। मात्र आठवीं तक पढ़े इस शख्स ने कई साल इंदौर में स्वर्गीय भैय्यूजी महाराज के दरबार में गुजारे, जो खुद पहुंचे हुए प्रवचनकार थे। यह सच दीगर है कि उन्हें किन्हीं कारणों से आत्महत्या करनी पड़ी। कालीचरण ने और भी कई साधु-महंतों की चौखट में माथा टेका। कुछ ग्रंथ भी पढ़े होंगे, लेकिन लगता है वह प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ना भूल गया या फिर पढ़कर भी भुला बैठा और संतई के अर्थ ही बदलने पर तुल गया है। वह ‘काली विद्या’ में सिद्धहस्त होने का भी दावा करता है। वह तो बड़े गर्व से यह भी बताता है कि मैं स्वयं काली हूं और काली माता मुझमें समाहित है। राजनीति में रमने को आतुर साधु-संतों की संगत में रहते-रहते उसने यह भी जान लिया है कि विवाद और धमाके बड़े काम की चीज़ हैं। मजबूत प्रचार तंत्र का होना भी निहायत जरूरी है। उसे खुद के लोकप्रिय होने का जबरदस्त भ्रम है। इसलिए उसने 2017 में महापालिका चुनाव लड़ा, लेकिन पराजय का मुंह देखना पड़ा। चुनावों में होने वाली हार-जीत के मायने भी उसे पता हैं। सोशल मीडिया पर हमेशा छाया रहने वाला कालीचरण कच्ची नहीं, पक्की मिट्टी का बना है। गिरफ्तारी के बाद भी उसके तेवर नहीं बदले। उसका लक्ष्य भी धूमिल होता दिखायी नहीं दिया। दरअसल, उसके सामने कई ऐसे चेहरों की जीती-जागती तस्वीरें हैं, जिन्होंने हिंदुओं के मन में भय जगाकर अपने सपनों को साकार किया है। उन्हीं में से एक नाम है, प्रज्ञासिंह ठाकुर का, जो मुस्लिमों और गांधी पर शाब्दिक वार करते-करते सांसद बन लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में पहुंच चुकी हैं...।

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