Thursday, February 3, 2022

जय हिन्द

    इन तीन खबरों ने मन-मस्तिष्क में जो तस्वीर बनाई उसे मैं आपको भी दिखाने को आतुर हूं। इन बोलती तस्वीरों ने जितना कुछ बताया और समझाया उतनी क्षमता तो विद्वानों की लिखी पचासों किताबों में भी नहीं दिखी। अपने छोटे-बड़े जीवनकाल में मनुष्य कहां-कहां नहीं भटकता। दिन-रात पता नहीं कैसे-कैसे विचार उसके मन-मस्तिष्क में हलचल मचाये रहते हैं। आज के दौर की भागदौड़ की जिन्दगी और आगे बढ़ने की अंधी प्रतिस्पर्धा में शामिल रहने की ललक ने आम इंसान के जीवन को तनाव और अवसाद से भर दिया है। जिसे देखो, वही असंतोष और घबराहट की कैद में छटपटाता प्रतीत होता है। भगवद गीता कहती है कि जो जिन्दा है उसकी मौत भी तय है। इसलिए जो होना है उसके लिए चिंतित और दुखी होना व्यर्थ है। फिर भी अनेकों इंसान मौत के भय में जकड़े हैं। ऐसे लोगों की भीड़ में ऐसे लोग भी हैं, जो कल की चिंता का त्याग कर आज के पल-पल का आनंद लेने में यकीन रखते हैं। वे खूब मेहनत कर कमाते हैं। अच्छा भोजन करते। अपने मनपसंद कपड़े पहनते हैं। देश-दुनिया की यात्राएं करते हैं। प्रकृति की अलौकिक सुंदरता का आनंद उठाते हैं और अपने परिवार की खुशियों के लिए कोई भी कुर्बानी देने को तत्पर रहते हैं। उनके पास लोगों की बातें और शिकायतें सुनने की फुर्सत नहीं।
    किसे क्या अच्छा लगता है, बता पाना आसान नहीं। यहां हर जिन्दा इंसान की अपनी-अपनी इच्छा, चाहत, जरूरत और पसंद है। छत्तीसगढ़ के शहर राजनांदगांव के करोड़पति डाकलिया परिवार के पांच सदस्यों ने बीते हफ्ते अपने तमाम सुख, धन, दौलत और सम्पत्ति का त्याग कर दीक्षा ले ली। देश के महान साधु-संत हमेशा कहते आये हैं कि यह सारा संसार मिथ्या है। क्षणभंगुर है। यहां की घोर आपाधापी में मनुष्य करोड़ों की माया जुटाता है। इसके लिए कई बार मान-मर्यादायें भी दांव पर लगा देता है, लेकिन जब ऊपर वाले का बुलावा आता है, तो उसे सबकुछ छोड़कर खाली हाथ ही जाना पड़ता है। इसी तरह के उपदेशों को सुनते-सुनाते तो कई लोग हैं, लेकिन अपनी खून-पसीने की कमायी और भौतिक सुख-सुविधाओं को सदा-सदा के लिए त्यागने की हिम्मत विरले ही दिखाते हैं। कोई भी त्याग बहुत बड़ा हौसला और धैर्य मांगता है, जो हर किसी में नहीं होता।
    डाकलिया परिवार का 2011 में जब रायपुर स्थित कैवल्यधाम की यात्रा पर जाना हुआ था, तभी उनके परिवार के सबसे छोटे बच्चे हर्षित के मन में दीक्षा लेने का विचार आया था। मात्र छह साल के मासूम बच्चे के मन-मस्तिष्क में मायावी संसार से दूरियां बनाने का भाव कालांतर में भी बना रहा। उसने तब गुरु के सानिध्य में खुशी-खुशी अपना केशलोचन कराया था। साहसी और सहनशील हर्षित से ही प्रेरित होकर परिवार के अन्य चार बच्चों के मन में भी दीक्षा लेने की इच्छा बलवति हुई थी। तब बच्चों की उम्र दीक्षा लेने के लायक नहीं थी इसलिए उनके और परिपक्व होने की राह देखी गई। दस साल बाद जब वे सभी सबकुछ जानने-समझने लगे और उनकी दीक्षा लेने की ललक में कोई कमी नहीं आयी तो परिवार के पांच सदस्यों ने दीक्षा लेने का अंतिम फैसला करते हुए जगत की मोहमाया का हमेशा-हमेशा के लिए त्याग करते हुए संयम के पथ को अपना लिया। उन्होंने अपनी 30 करोड़ की संपत्ति भी समाज कल्याण के लिए दान कर दी।
ब्रिटेन के निवासी ब्रायन चोर्ले 83 साल के हो चुके हैं। यह वो उम्र है जब लगभग हर आदमी खुद को थका पाता है। हाथ-पांव जवाब दे देते हैं। कई तो बिस्तर ही पकड़ लेते हैं, लेकिन ब्रायन आज भी भागदौड़ करते नज़र आते हैं। वे थकना नहीं सतत चलना चाहते हैं। धन कमाने की अपार चाह में सत्तर वर्ष पूर्व जिस जूता फैक्टरी में 15 साल के ब्रायन ने काम करना शुरू किया था आज उसका चेहरा-मोहरा बदल चुका है, लेकिन ब्रायन नहीं बदले। कितनी भी ठंड हो, गर्मी हो या फिर बरसात और आंधी तूफान का बवंडर हो, लेकिन ब्रायन कभी छुट्टी नहीं लेते। आठ साल पहले पत्नी को हमेशा-हमेशा के लिए खोने के बाद भी इस उम्रदराज ने मातम और अकेलेपन की स्याह चादर ओढ़ने की बजाय अपने कार्य और कर्तव्य को ही अपना धर्म मानने की परंपरा से मुंह नहीं मोड़ा। लॉकडाउन में जब कुछ समय के लिए फैक्टरी का काम बंद हुआ था तब भी वे हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहे। तब फैक्टरी के शापिंग सेंटर में तब्दील होने पर वे कतई नहीं घबराये। उन्होंने युवकों की तरह नये काम को ठीक से समझा और भरपूर ट्रेनिंग लेने के बाद शापिंग सेंटर में युवकों की तरह काम करने लगे।
    कई सवाल ऐसे होते हैं, जिनके जवाब भी जीते-जागते इंसान होते हैं। डॉक्टर जयदीप शर्मा से वाकिफ होने के बाद मैंने तो यही माना है। 29 वर्ष पूर्व ट्रक से कुचले जाने के बाद उनका पूरा परिवार खत्म हो गया। वे स्वयं बच तो गये, लेकिन वह बचना नहीं था। उनके शरीर के अंग-अंग के चिथड़े उड़ चुके थे। आखों की रोशनी भी चली गई थी। जब उन्हें अस्पताल में लाया गया तब डॉक्टरों ने उनकी हालत देखकर उन्हें मृत मान लिया था, लेकिन उनकी सांसें चल रहीं थीं। इन्हीं चलती सांसों ने ही डॉक्टरों को कुछ हौसला दिया। शर्मा तो बेहोश थे। मेडिकल साइंस ने इस बेहोशी को ‘कोमा’ का नाम दे रखा है, जिसकी गिरफ्त में आने के बाद कम ही किस्मत वाले होते हैं, जो फिर से आंखें खोल पाते हैं। पूरे साढ़े नौ साल तक लगभग मृत रहे डॉ. शर्मा को डॉक्टरों ने अथाह मेहनत कर एक नया चेहरा दिया, जो पहले वाले चेहरे से एकदम जुदा था। उनका अंग-अंग नकली है। यहां तक कि हाथ-पैर भी। किस्मत से आंखों की रोशनी भी वापस मिल गई।
घर लौटने पर उन्होंने जब आइना देखा, तो खुद को पहचान ही नहीं पाये। डॉ. जयदीप शर्मा को फिर से जिंदा करने के लिए छप्पन लोगों ने अपना खून दिया। खून देने वालों को पता ही नहीं था कि वे किसे खून दे रहे हैं। वे सभी भारतीय थे। उनका किसी धर्म और मजहब से कोई वास्ता नहीं था। इंसानियत ही उनका धर्म था। हिन्द के शरीर की नस-नस में इन्हीं भारतीयों का खून दौड़ रहा है। अपने हिंदुस्तान में कुछ विघ्न संतोषी, अंधे और बहरे लोग हैं, जिनकी निगाह इस तस्वीर पर कभी नहीं जाती। उन्हें तो बस यही लगता है कि देश जातीयता, धर्मांधता, नफरत और भेदभाव के गर्त में समाता चला जा रहा है, जबकि सच तो यही है कि चंद लोग ही अलगाव और हिंसा प्रेमी हैं, जो नाथूराम गोडसे के नाम की पताका फहराने की दुष्टता करते रहते हैं। लेकिन फिर भी महात्मा गांधी की प्रतिष्ठा और कद दिन-ब-दिन ऊंचा और ऊंचा होता चला जा रहा है। निष्पाप, निस्वार्थ, अमनप्रेमी और आत्मीयता से लबालब असंख्य भारतीयों की बदौलत ही लाख षडयंत्रों के बाद भी हिंद में इंसानियत जिन्दा है और भविष्य में भी उसका कभी बाल भी बांका नहीं हो सकता।

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