Thursday, November 10, 2022

राजनीति का खूनी चक्का

    नेताओं के प्रलोभनों और बड़े-बड़े सपनों के मायाजाल में फंसकर न जाने कितने लोग पाते तो कुछ भी नहीं, उल्टे अपना सब कुछ गंवा और लुटा बैठते हैं। कपटी नेताओं और समाजसेवकों को दूसरों की जिन्दगी से खेलने और अपनों की जिंदगी को संवारने का भरपूर हुनर आता है। नकाब पर नकाब और मुखौटे लगाने में भी कोई उनका सानी नहीं। कभी-कभी उनकी चालाकी उन्हीं पर भारी भी पड़ जाती है। उन्हीं के विश्वासपात्र उन्हें ऐसी गहरी चोट दे देते हैं कि वे उनके खिलाफ कुछ भी नहीं कर पाते।
    कश्मीर को अशांत बनाये रखने में वहां के धूर्त नेताओं तथा अलगाववादियों की खासी भूमिका रही है। अपने मतलब को साधने के लिए इन्होंने कितने खून खराबे करवाये, बचपन लूटे और जवानियों को नेस्तनाबूत किया उसका किसी के पास कोई हिसाब नहीं। इन्हीं के बहकावे में आकर अपनी जिंदगी के कई साल मटियामेट करने वाले फारूख की जब आंखें खुलीं तो उसके पैरोंतले की जमीन ही खिसक गयी। तब फारूख मात्र सोलह वर्ष का था, जब अलगाववादियों ने उस पर अपना मायाजाल फेंका और वह भी उसमें ऐसा फंसा कि पढ़ाई-लिखायी छूट गई। कई अन्य कश्मीरी किशोरों और युवकों की तरह फारूख का ब्रेनवाश कर पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवाद की ट्रेनिंग के लिए ले जाया गया। ट्रेनिंग देने वालों में पाकिस्तानी सेना के अफसर भी थे और आतंकी भी। ग्रेनेड फेंकने तथा हर तरह के हथियारों को चलाने के साथ-साथ मार्शल आर्ट्स और पहाड़ों पर चढ़ने की ट्रेनिंग देते हुए दिन-रात उसके दिमाग में भरा गया कि जहां तुम जन्मे हो... रहते हो वो कश्मीर गुलामी की जंजीरों में जकड़ा है और गुलामी से बड़ा और कोई अभिशाप नहीं होता। किसी का गुलाम होने से अच्छा है मर जाना। कश्मीर की आजादी के लिए अपनी कुर्बानी देने से बड़ा पुण्य और कोई हो ही नहीं सकता। इस फर्ज को निभाते हुए मरने वालों को हमेशा याद रखा जायेगा।
    कश्मीर में तैनात भारतीय सेना पर हमला करने वाले आतंकियों के जत्थे में शामिल रहे फारूख को शुरू-शुरू में तो हत्याएं और खून खराबा करते हुए यही लगता रहा कि वह यह सब अपने कश्मीर की बेहतरी के लिए कर रहा है। कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति मुशिर उल हक की हत्या के बाद उसे हकीकत का आभास हुआ। फारूख की तब तो आंखें खुली की खुली रह गईं जब उसने देखा कि कश्मीर की आजादी के लिए उकसाने वाले अलगाववादी नेताओं के यहां तो धन की बरसात हो रही है। उन्होंने आलीशान होटल बनवा लिए हैं। वे महंगी कारों में चलते हैं। आलीशान कोठियों में भोग-विलास भरा जीवन जी रहे हैं। उनके बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं और दूसरों के बच्चों के हाथों में बंदूकें पकड़वाकर आम कश्मीरियों की हत्याएं करवा रहे हैं। फारूख ने 1991 में आत्मसमर्पण कर दिया। आठ साल की जेल काटी। जेल से बाहर आने के बाद फारूख ने भटके कश्मीरी युवाओं को नेताओं का असली चेहरा दिखाते हुए समझाना प्रारंभ कर दिया कि अलगाववादी नेता और पाकिस्तान ने पढ़ाये-लिखाये आतंकी सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए तुम्हें गुमराह कर रहे हैं। इनका मकसद कश्मीर की भलाई करना नहीं, कश्मीर को किसी भी तरह से भारत से अलग करना है। इसलिए इनके बहकावे में आने का मतलब है, अपनी बर्बादी और मौत। कश्मीर में बीते वर्षों में मतलबी नेताओं ने जिस तरह से बच्चों, किशोरों और युवकों के हाथों में पत्थर और हथियार थमा कर अपनी दुष्टता दिखाने का चक्र चलाये रखा और खुद तमाशा देखते हुए सुरक्षित मौजमस्तीवाला जीवन जीते रहे उसका पर्दाफाश हो चुका है।
    आजादी के बाद यही कपटी काम पूरे भारत में किस्म-किस्म के नेताओं की स्वार्थी कौम ने अपने-अपने अंदाज से करने में कोई कमी नहीं की है। राजनीतिक दलों के मुखियाओं से लेकर उनके छोटे-बड़े नेताओं ने जिन कार्यकर्ताओं की बदौलत सत्ता का स्वाद चखा वे तो वहीं के वहीं रह गए, उनकी जवानी बुढ़ापे में बदल गई, लेकिन नेताओं तथा उनके परिजनों के हिस्से में इतना अधिक धन और सुख-सुविधाएं आयीं कि देखने वालों की आंखें तक चुंधिया गईं। सत्तालोलुप नेताओं ने नैतिकता और ईमानदारी को भी ताक पर रख दिया। बहुत कम नेताओं ने आमजन के हित की सोची। महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी और अपराधी अंकुशहीन हो गए। पुल और पटरियां उखड़ती रहीं। अफसर, ठेकेदार मालामाल होते रहे। बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के मोरबी में नवनिर्मित पुल के ध्वस्त होने से लगभग डेढ़ सौ जिन्दा इंसान मुर्दों में तब्दील हो गये। इनमें पुरुष भी थे। महिलाएं भी थीं। बच्चे, युवा और बूढ़े सभी थे। पुल को बनाने का ठेका अपने ही खास आदमी को दिया गया था, जिसकी पुल के निर्माण से ज्यादा सरकारी धन पर नज़र थी। उसकी तिजोरी में तो करोड़ों रुपये जमा हो गए, लेकिन किस कीमत पर?
    अभी कुछ दिन पहले यह कलमकार देश के प्रदेश छत्तीसगढ़ में कुछ सजग पत्रकार मित्रों के बीच बैठा था। वे डंके की चोट पर बता रहे थे कि प्रदेश के मुख्यमंत्री को चौबीस घंटे अपनी कुर्सी बचाये रखने की चिंता खाये रहती है। आम जनता की चिंता करने से ज्यादा दिल्ली में बैठे अपने आकाओं को हर तरह से प्रसन्न रखने की कवायद में लगे रहते हैं। उनकी कुर्सी को छीनने की तिकड़में लगाने वालों ने उनकी रातों की नींद ही उड़ा रखी है। बातों ही बातों में स्वर्गीय अजीत जोगी की काली दास्तानों का भी जिक्र चल पड़ा। जिन्होंने कलेक्टर, सांसद और मुख्यमंत्री रहते इतनी काली माया बटोरी, जिसे संभाल पाना मुश्किल हो गया। करोड़ों-अरबों रुपयो को सुरक्षित ठिकाने पर लगाने के लिए कई तिकड़में करनी पड़ीं। कुछ विश्वासपात्रों को उन्होंने करोड़ों रुपये यह सोचकर अमानत के तौर पर सौंपे कि वक्त आने पर इशारा करते ही वापस मिल जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। विश्वासपात्रों को विश्वासघाती बनने में देरी नहीं लगी। हराम की कमायी ऐसे ही लुटती है। कुदरत ने भी जोगी को अपंग कर ऐसी सज़ा दी कि चलने-फिरने के लायक ही नहीं रहे। अभी हाल ही में फेसबुक पर मैंने रायपुर के साहित्यकार मित्र स्वराज करुण के भेजे किसी फिल्म के अल्पांश को देखा। उसे देखते ही माथे की नसें फटती-सी लगीं। सरकारी पुल के टूट जाने पर कई लोग मारे गये। उन्हीं में शामिल है एक पिता का मासूम बेटा। पिता अथाह गुस्से, गैस सिलेंडर और पिस्टल के जोर पर कुछ सफेदपोशों को अपने कब्जे में किये हुए है। नेता, मंत्री, इंजीनियर, सरकारी ठेकेदार इनमें शामिल हैं। वह उनसे जानना चाहता है कि करोड़ों रुपयों से बना यह पुल एकाएक कैसे ढह गया? पहले तो कोई भी कुछ भी उगलने को तैयार नहीं होता, लेकिन जब आंखों से अंगारे उगलती आंखें और जुबान उन्हें मौत के मुंह में सुलाने का भय दिखाती है तो ठकेदार बताता है कि खिलाने-पिलाने के कारण मजबूत पुल का निर्माण नहीं हो पाया। पिता पूछता है कि किसे खिलाना पड़ा? तो उसकी उंगली मंत्री की ओर इशारा करती है। भय से कांपता मंत्री अपनी सफाई देता है कि सारा धन अकेले मैंने नहीं खाया। जिस राजनीतिक पार्टी की बदौलत हम सत्ता का स्वाद चखते चले आ रहे हैं उसे चलाने के लिए करोड़ों-अरबों रुपयों के फंड की जरूरत पड़ती है। फिर हम भी तो चुनाव के वक्त मतदाताओं को रिझाने के लिए क्या कुछ नहीं करते। कई बार अपनी सारी जमा पूंजी दांव पर लगा देते हैं। इस सारी सर्कस और धंधे को चलाने के लिए जो अपार धन लगता है वह सब इसी मौत के खेल के भ्रष्टाचार से ही तो आता है। इसमें अकेले हम कसूरवार नहीं। देश की जनता भी तो है, जो सबकुछ देखती-समझती है, लेकिन फिर भी हम जैसों को जीत का सेहरा पहनाकर विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक की कुर्सी पर बैठाती है...।

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