Thursday, November 3, 2022

उनका कसूर? ...हैं बेकसूर!!

    अरुण और गोपाल की हैरतअंगेज आपबीती जानकर मैं घंटों सोचता रहा कि यदि मैं उनकी जगह होता तो क्या करता। यही चिंता... यही सवाल आपके मन में भी हिलौरें मार सकता है। ज़रा इनके साथ हुए घोर अन्याय के बारे में गंभीरता से सोचें और जानें तो! हां यह भी जान लें कि अरुण और गोपाल जैसे न जाने कितने बेकसूरों को ऐसी ही अन्याय की सुलगती भट्टी में जलना पड़ता है। इन्होंने तो अपनी कह दी, लेकिन न जाने कितने बेकसूर अपने जख्मों को अपने अंदर समेटे घुट-घुट कर अनाम मौत का कफन ओढ़ अपराधी होने के कलंक के साथ इस दुनिया से ही चल देते हैं। किसी को कोई खबर नहीं होती। नागपुर के रेलवे स्टेशन पर उस दिन भी रेलगाड़ियों के आने और जाने, यात्रियों के चढ़ने और उतरने की गहमागहमी थी। हमेशा की तरह उस दिन भी कई लोग अपने रिश्तेदारों, मित्रों और अन्य करीबियों को छोड़ने और लेने आए थे। इसी भीड़ में खड़े थे एक्टिविस्ट अरुण फरेरा, जो किसी अपने पुराने प्रिय मित्र के आने की राह देख रहे थे। जिस ट्रेन से मित्र का आगमन होने वाला था उसके शीघ्र प्लेटफार्म पर आने की घोषणा हो चुकी थी। तभी अचानक अरुण ने खुद को 15 लोगों से घिरा पाया। वे कुछ जान-समझ पाते इससे पहले ही उन्हें धक्के मारकर स्टेशन से बाहर ले जाया गया और एक कार में धकेल दिया गया। चलती कार में उन पर धड़ाधड़ मुक्के, थप्पड़ और डंडे बरसते रहे। उनके शरीर से लहू बहता रहा। इसी दौरान उन्हें बताया गया कि वह नागपुर की एंटी नक्सल सेल की गिरफ्तारी में हैं। हतप्रभ अरुण उन्हें बताने की कोशिश में लगे रहे कि वे किसी गलतफहमी के शिकार हैं। उन्हें किसी ने झूठी जानकारी दी है, लेकिन उनकी जरा भी नहीं सुनी गई। दूसरे दिन शहर और देश के अधिकांश अखबारों और न्यूज चैनलों की यही खास खबर थी, ‘एक खूंखार नक्सली को एंटी नक्सल सेल ने धर दबोचा है। कई वर्षों से नक्सली गतिविधियों में शामिल इस देशद्रोही के संगीन अपराधों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है...।’
    पुलिस कस्टडी में मुंह खुलवाने के लिए अरुण को राक्षसी तरीके से दिन-रात मारा-पीटा गया। गंदी-गंदी गालियों के साथ-साथ वो सारे हथकंडे भी अपनाये गये, जिनके लिए पुलिस खासी बदनाम है। अरुण यही कहते रहे कि हिंसा, मारकाट और नक्सलियों से उनका कभी कोई रिश्ता नहीं रहा। वह तो बस गरीबों, दलितों, शोषितों और हर वर्ग के वंचितों के हितैषी और मददगार हैं। जो इनके साथ अन्याय करते हैं, इनपर जुल्म ढाते हैं, उन्हीं के खिलाफ उनका वर्षों से युद्ध जारी है। जो पुलिसिये पूर्वाग्रह से ग्रस्त थे, अरुण के बारे में पहले से ही अपनी पुख्ता राय और सोच बनाये हुए थे, वे कहां कुछ सुनने वाले थे। कुछ दिनों के पश्चात अरुण को जेल की उस अंडा सेल में डाल दिया गया, जिसका नाम सुनते ही अपराधी कांपने लगते हैं। पांच-छह फीट की इस सेल का आकार अंडे जैसा होता है, इसलिए इसे अंडा सेल कहा जाता है। पूरी तरह से बॉम्बप्रूफ इस सेल में हमेशा घुप्प अंधेरा रहता है। सांस लेने के लिए हवा की कमी 24 घंटे कैदी को अपने गुनाहों की याद दिलाने के साथ-साथ जानलेवा घुटन से भी रूबरू कराती रहती है।
प्रतिबंधित कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओइस्ट) का सदस्य होने समेत कुल 10 आरोपों के चक्रव्यूह में फंसाये गये अरुण चार साल आठ महीने बाद जमानत पर जेल से बाहर तो आ गए, लेकिन देशद्रोही होने के कलंक ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। अपनों ने भी दूरियां बना लीं। जमानत के दो वर्ष बाद जब उनपर कोई आरोप सिद्ध नहीं हो पाया तो उन्हें बरी कर दिया गया, लेकिन लोगों की उनके प्रति नक्सली वाली धारणा नहीं बदली। बेकसूर होने के बावजूद जेल की कड़ी सज़ा भुगतने वाले अरुण ने अपने कटु अनुभवों पर एक किताब भी लिखी। वंचितों की सहायता करने का उनका हौसला अभी भी जस का तस बना हुआ है। मुंबई में रहते हुए उन कैदियों को कानूनी सहायता दिलवाकर बाहर निकालने के अभियान में लगे हैं, जिन्हें आतंकवादी और नक्सली होने के झूठे आरोप में जेल में डाल दिया जाता है। अरुण को आज भी इस गम से छुटकारा नहीं मिला, जो वर्षों की अंधी कैद ने उन्हें दिया। कहीं न कहीं उनका कानून से भी भरोसा तो उठा ही है। एकदम निर्दोष होने पर भी दोषी मानते हुए प्रताड़ित किये गए अरुण फरेरा का क्षोभ कभी भी नहीं मिटने वाला। कानून के रक्षकों की बेइंसाफी भी शूल की तरह चुभती रहेगी।
    गोपाल शेंडे के साथ भी ऐसी ही बेइंसाफी हुई। उन्होंने जो अपराध किया ही नहीं था उसकी सात साल की सज़ा काटी। नागपुर में रहने वाले गोपाल मायानगरी मुंबई में स्थित एक होटल में व्यवस्थापक के पद पर कार्यरत थे। 19 जुलाई, 2009 को घाटकोपर रेलवे स्टेशन पर एक मतिमंद महिला किसी बलात्कारी की अंधी हवस का शिकार हो गई। देश की अत्यंत सतर्क, होशियार और उम्दा माने जाने वाली महाराष्ट्र पुलिस ने गोपी नाम के आरोपी के स्थान पर गोपाल को बलात्कार के आरोप में हथकड़ियां पहना दीं। उनकी सुनने की बजाय अपनी मनमानी कर डाली। जेल में जाने के बाद उनका पूरा परिवार ही बिखर गया। पत्नी ने किसी और का दामन थाम लिया। दोनों बेटियों को अनाथालय में पनाह लेनी पड़ी। मां की पागलों जैसी हालत हो गई। पिता को बेटे के बलात्कार के आरोप में जेल जाने के सदमे ने इस कदर आहत किया कि उनकी मौत हो गई। सत्र न्यायालय ने बलात्कार के संगीन आरोप में गोपाल को सात साल की सजा भी सुना दी! उन्होंने इसके विरोध में उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, तो 10 जून, 2015 को उन्हें निर्दोष रिहा कर दिया गया। सात साल बाद जब गोपाल जेल से बाहर आये तो पूरी तरह से तन्हा, बेबस और खाली हाथ थे। अदालत ने तो बेकसूर मानते हुए बरी कर दिया था, लेकिन लोगों की निगाह में गोपाल अभी भी बलात्कारी थे। कोई उन्हें नौकरी देने को तैयार नहीं था। कई दिन भूखे-प्यासे भटकते रहे। सब्र भी जवाब देता चला गया। किसी ने भी उनके साथ खड़े होने की हिम्मत नहीं दिखायी। आज भी उन्हें यही लगता है कि वे किसी ऐसी रेलगाड़ी पर सवार हैं, जो दिल को कंपकंपाते हुए धड़...धड़...धड़...धड़ करती किसी अंधेरी सुरंग से गुजर रही है और सुरंग है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही! पुलिस प्रशासन की महाभूल और नालायकी की वजह से अपने जीवन के अनमोल सात साल लुटा चुके गोपाल को सरकार से भी कोई मदद नहीं मिली है। समाज का वो तथाकथित सजग तबका भी अपनी आंखों पर पट्टी बांधे है, जो अन्याय के खिलाफ आंदोलन करने के लिए जाना जाता है। खुद को एकदम लाचार, हारा और लुटा हुआ महसूस करते गोपाल शेंडे की दोनों बेटियां अभी भी अनाथाश्रम में रह रही हैं!

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