Thursday, November 17, 2022

 यादों की संदूक

    वो दिन ही अजीब था। सुबह से ही उदासी ने घेर रखा था। फिर भी मैं अपने ‘राष्ट्र पत्रिका’ के कार्यालय में खबरों पर नज़रें गढ़ाये था। जैसे-तैसे सम्पादकीय भी लिख ली थी। दोपहर ने शाम की तरफ सरकना प्रारंभ कर दिया था। यही कोई पांच बजे के आसपास मोबाइल की घंटी बजी। स्क्रीन पर गिरीश पंकज का नाम चमक रहा था। उन्होंने बड़े गमगीन स्वर में बताया कि श्री रमेश नय्यर नहीं रहे। अभी कुछ देर पहले ही मुझे उनके निधन का समाचार मिला है। इस अत्यंत दु:खद को सुनते ही दिल धक्क से रह गया। यह कैसे हो गया? अभी पांच दिन पहले ही उनका फोन आया था! मैंने तुरंत श्री रमेश नय्यर जी के सुपुत्र संजय नय्यर को फोन लगाया। मेरी आवाज भी भर्रायी हुई थी। उधर संजय का भी यही हाल था। उन्होंने बताया कि पापा पिछले कुछ हफ्तों से काफी बीमार थे। आज चार बजे के आसपास तबीयत कुछ ऐसी बिगड़ी कि यह अनहोनी हो गयी।
    हर वर्ष की तरह इस वर्ष की दीपावली के दिन भी शुभकामनाएं और बधाई देने के लिए मैंने श्री रमेश नय्यर को फोन लगाया था, लेकिन उन्होंने नहीं उठाया। ऐसा बहुत कम होता था। उसके बाद एक बार फिर और अगले दिन तीन-चार बार फोन लगाने पर जब उनसे बातचीत नहीं हो पायी तो मैं चिंतित हो गया। दिवाली के पांचवें दिन मेरे मोबाइल की घंटी बजी। स्क्रीन पर नय्यर भाई साहब का नाम देखकर बहुत खुशी हुई। मेरे अभी नमस्कार कहा ही था कि वे शिकायती अंदाज में कहने लगे कि इस बार दीपावली पर मेरी याद नहीं आयी! मेरे यह बताने पर कि मैंने तो पांच-छह बार मोबाइल लगाया, लेकिन आपने ही नहीं उठाया। कुछ पलों तक दीपावली की शुभकामनाएं...बधाई के बाद उन्होंने मेरी पत्नी और बहू से भी कुछ देर तक बातचीत की। मैंने उन्हें भाभी जी के साथ नागपुर आने का अनुरोध किया तो उन्होंने कहा कि मुझे नागपुर आना, तुमसे मिलना हमेशा अच्छा लगता है, लेकिन अभी तुम मिलने आ जाओ। उन्होंने यह नहीं बताया कि वे बीमार हैं। यही उनका स्वभाव था। अपनी तकलीफ को छुपाये रखते हुए दूसरों की उलझनों और मुसीबतों को दूर करने में अपनी जी-जान लगा देते थे।
    वो 1993 का साल था। बिलासपुर में स्थित धर्म अस्पताल में जिस रात मेरे पिताजी ने अंतिम सास ली उस दिन भी सुबह से ही मैं बहुत उदास और घबराया हुआ था। रमेश नय्यर मेरे लिए सगे भाई से भी बढ़कर थे। जब भी मिलते अभिभावक की तरह स्नेह और आशीर्वाद की अमृत धारा की बरसात कर देते। रात को बिस्तर पर नींद नहीं आयी। आखों के सामने नय्यर भाई साहब का चेहरा घूमता रहा। यादों की संदूक में संजोकर रखी किताब के पन्ने खुलते चले गए। वो सन 1978-79 के दिन थे, जब बिलासपुर से दैनिक ‘लोकस्वर’ का प्रकाशन प्रारंभ होने वाला था। तब मैं कटघोरा में रायपुर से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘देशबंधु’ का संवाददाता था। मेरी लिखी कहानियां देश-प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। परिवार के कपड़ा व्यवसाय में मेरा मन नहीं लगता था। साहित्य की दुनिया से लगाव होने के कारण बिलासपुर और रायपुर जाना और लेखकों-पत्रकारों से मिलना-मिलाना होता रहता था। बिलासपुर के व्यंग्यकार, पत्रकार स्वर्गीय विजय मोटवानी उम्र में तो मुझसे छोटा था, लेकिन समझ के मामले में बड़ों को भी मात देने की क्षमता रखता था। उसके बड़े भाई ओम मोटवानी ने ही मुझे विजय से मिलवाया था। ओम और मैं सीएमडी कॉलेज में सहपाठी रहे थे। एक दिन शाम को जब मैं सदर बाजार स्थित मोटवानी बंधुओं की रेडिमेड कपड़े की दुकान पर पहुंचा तो उसने मुझे एक दुबले-पतले पत्रकार युवक से मिलवाया। यह गिरीश पंकज थे, जिन्होंने बाद में खुद को पूरी तरह से साहित्य के प्रति समर्पित करते हुए अनूठा कीर्तिमान रचा। यह सिलसिला अभी सतत बना हुआ है। उसी शाम हम तीनों पुराने बस स्टैंड के पास स्थित दैनिक लोकस्वर कार्यालय गये। वहां नय्यर जी से मेरी प्रथम भेंट हुई। पहली मुलाकात में ही नय्यर जी ऐसे मिले जैसे वर्षों के परिचित हों। लगभग घंटा भर तक अखबारी जगत और इधर-उधर की बातें होती रहीं। चाय-कॉफी का दौर भी चला। कटघोरा, पौड़ी उपरोड़ा का संवाददाता तथा लोकस्वर में नियमित कॉलम लिखने का मौखिक अनुबंध भी हो गया। तब के मध्यप्रदेश और अब के छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से दैनिक लोकस्वर का प्रकाशन होते ही उसकी दूर-दूर तक चर्चाएं होने लगीं। निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता का डंका बजने लगा। जिस सच को दूसरे अखबार छिपाते थे, उसे बेखौफ उजागर करने की वजह से प्रचार-प्रसार के मामले में लोकस्वर ने अल्पकाल में जो इतिहास रचा उसकी चर्चा आज भी होती है। लोकस्वर की अल्पकाल में अभूतपूर्व प्रगति की एक खास वजह संपादक श्री रमेश नय्यर की संपादकीय भी रही, जिसे पढ़ने के लिए कई सजग पाठक खास तौर पर लोकस्वर खरीदते थे। कुछ दुकानदार तो उनकी कलम के इतने मुरीद हो गये कि उनकी लिखी संपादकीय की कटिंग को फ्रेम करवाकर दुकानों में लगाते थे। अत्यंत प्रभावी संपादक, लेखक होने के साथ-साथ नय्यर जी एक कुशल वक्ता भी थे। दुबले-पतले हाजिर जवाब नय्यर जी से किसी भी विषय पर बातचीत की जा सकती थी। लतीफों... चुटकलों तथा शेरो-शायरी से उन्हें मौसम बदलना भी खूब आता था। अपने उसूलों के पक्के श्री नय्यर जी बिलासपुर में मात्र डेढ़-दो साल रहे, लेकिन उनके मित्रों की तादाद देखकर यही लगता था कि वे तो यहीं के बाशिंदे हैं। व्यक्ति को पहचानने की भी उनमें अद्भुत क्षमता थी। बहुत ही शांत, सहज और सरल जीवन जीने वाले नय्यर जी को कभी भी ऊंची आवाज में बोलते नहीं देखा गया। उनका कोई सहयोगी यदि कभी कोई गलती भी कर देता तो उस पर इस अंदाज से गुस्सा होते कि उसे बुरा नहीं लगता था। नये पत्रकारों को मार्गदर्शन देने तथा प्रोत्साहित करने में सदैव अग्रणी रहे नय्यर जी जब भी कार्यालय की केबिन में होते तो उनसे मिलने वालों का तांता लगा रहता था। वे हर किसी से समभाव से मिलते। देशबंधु, युगधर्म, एमपी क्रानिकल, लोकस्वर, ट्रिब्यून, नवभास्कर, संडे ऑबजर्वर, समवेत शिखक में कार्यरत रहने के दौरान उन्होंने नये पत्रकारों तथा लेखकों का पूरे मन से मार्गदर्शन किया। उन सभी के दिलों में आज भी नय्यर जी के प्रति अपार श्रद्धा और सम्मान है। नय्यर जी जब बिलासपुर में थे तभी मेरा दैनिक श्रम बिंदु के संपादक शिव श्रीवास्तव से परिचय हुआ, जो कालांतर में पक्की और सच्ची मित्रता में तब्दील हो गया। शिव श्रीवास्तव भी नय्यर जी को अपना आदर्श तथा गुरू मानते थे। नय्यर जी के लोकस्वर छोड़कर रायपुर जाने के बाद जब भी मैं रायपुर जाता तो उनसे मिलकर ही चैन पाता। व्यापार में अभिरूचि नहीं होने के कारण मैं कटघोरा छोड़ने का मन बना चुका था। शिव श्रीवास्तव को जब मेरी तकलीफ के बारे में पता चला तो उन्होंने नय्यर जी से कोई हल निकालने का अनुरोध किया। नय्यर जी ने तुरंत हल भी पेश कर दिया। रायपुर के सत्ती बाजार में उनकी दुकान, जिसमें कभी ‘महानदी प्रकाशन’ चलता था, उसकी चाबी मुझे थमा दी। मैंने नाहटा बिल्डिंग में स्थित इस दुकान पर कपड़े का व्यवसाय प्रारंभ कर दिया तथा पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में पूरी तरह से सक्रिय हो गया। अखबार की नौकरी से परिवार चलाना संभव नहीं था। जब नय्यर जी नवभास्कर के संपादक थे, तब उन्होंने मुझे कुछ पंजाबी के कथाकारों की किताबें देते हुए कहा कि इनका हिंदी अनुवाद कर नवभास्कर में भेजते रहो। हर महीने तीन-चार पंजाबी कहानियों का हिंदी अनुवाद नवभास्कर में प्रकाशित होने से मुझे प्रतिमाह लगभग पांच-छह सौ मिलने लगे। यह सिलसिला उनके नवभास्कर छोड़ने तक बना रहा। रायपुर में सात-आठ साल तक व्यवसाय और पत्रकारिता की दो नावों की सवारी करते-करते निराशा ने मुझे घेर लिया। तनाव और हताशा ने मुझे इतना अस्वस्थ कर दिया कि महीनों अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। तब नय्यर जी ने मुझे समझाया कि खुलकर पत्रकारिता करना ही मेरे लिए हितकारी होगा। तब नागपुर में मेरा इलाज चल रहा था। जब मैं काफी हद तक स्वस्थ हो गया तो मैंने दो-ढाई वर्ष तक विभिन्न अखबारों में नौकरी करने के बाद पहले साप्ताहिक ‘विज्ञापन की दुनिया’ और उसके बाद ‘राष्ट्र पत्रिका’ का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। अवरोध और तकलीफे तो कई आयीं, लेकिन हिम्मत को जिन्दा रखे रहा। नागपुर से दोनों साप्ताहिकों के सफलतापूर्वक संचालन पर श्री नय्यर जी को वैसी ही खुशी और तसल्ली हुई, जो एक पिता को होती है। उनके आकस्मिक निधन के बाद मैंने यह भी जाना कि वे तो अनेकों पत्रकारों, लेखकों के लिए ऐसे घने वृक्ष थे, जिसकी छाया कड़ी से कड़ी धूप से बचाये रखती है। यह उनकी सर्वप्रियता का ही सुखद परिणाम है कि राजकुमार कॉलेज से प्रगति कॉलेज तिराहा (चौबे कॉलोनी) मार्ग का नामकरण उनके नाम पर करने की घोषणा कर दी गई है।

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