Thursday, December 15, 2022

वो रक्त से सना मंज़र

     महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में विधानभवन के निकट 23 नवंबर 1994 की शाम जिस तरह से निर्दोषों का खून बहा और उन्हें मौत की नींद मिली, उसकी मिसाल इतिहास में कम ही देखने-पढ़ने को मिलती है। सत्ताधीशों के गैरजिम्मेदाराना व्यवहार और प्रशासकीय अव्यवस्था के कारण देश का लोकतंत्र पहले भी कई बार आहत हुआ है। तब शीत सत्र के दौरान गोवारी समाज का विशाल मोर्चा अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरा था। उनकी प्रमुख मांग थी कि उन्हें अनुसूचित जनजाति में शामिल किया जाए। सुबह से भीड़ जुटने लगी थी, शाम होते-होते तक भीड़ बहुत बढ़ चुकी थी। तभी अचानक विधानभवन से कुछ ही दूर मॉरिस कॉलेज टी प्वॉइंट पर ऐसी भगदड़ मची कि लोग इधर-उधर भागने लगे। बेतहाशा शोर-शराबा होने लगा। शांत मोर्चा अशांति की गिरफ्त में आ गया। तब शाम के लगभग छह बजे थे। बेकाबू भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पहले तो पुलिस ने लाठीचार्ज किया फिर गोलीबारी की, जिसमें 114 बेकसूर लोगों की मौत हो गयी और लगभग पांच सौ लोग बुरी तरह से जख्मी हो गए। मृतकों और जख्मी होने वालों में स्त्री-पुरूष, बच्चों, युवक, युवतियों तथा वृद्ध-वृद्धाओं का समावेश था। गोवारी नेता सुधाकर गजबे के नेतृत्व में अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाले आरक्षण एवं अन्य सुविधाओं की मांग को लेकर यह विशाल मोर्चा आयोजित किया गया था। 23 नवंबर की सुबह से ही ट्रकों, बसों एवं पैदल पूरे विदर्भ से बच्चे, बूढ़े, जवान नागपुर आने शुरू हो गये थे। सभी आशान्वित थे कि वे अपनी एकजुटता दर्शाकर सरकार को यह विश्वास दिलाने में सफल होंगे कि अब गोवारी समाज को अनदेखा करना संभव नहीं है। लोकतंत्र में अपनी बात कहने का सभी को हक है और फिर यह तो शासन से एक छोटी-सी गलती सुधारने की मांग के लिए एक शांतिपूर्ण मोर्चा था। ज्ञातव्य है कि महाराष्ट्र शासन के 24 अप्रैल 1985 के जी.आर. में गोंड गोवारी के बीच में मात्र एक कामा नहीं लगने से गोवारी समाज को अनुसूचित समाज में नहीं गिना गया। शासन से कई बार इस छोटी-सी गलती को सुधारने की मांग की गयी। पर शासन ने ध्यान देना कतई जरूरी नहीं समझा। शाम पांच बजे तक गोवारी समाज के लगभग पचास हजार स्त्री-पुरुष एवं बच्चों का यह मोर्चा पूरी तरह से नियंत्रित एवं शांत था। उत्साही भोलीभाली जनता की इस विशाल भीड़ को गोवारी नेता संबोधित कर रहे थे। गोवारी नेताओं के साथ-साथ मोर्चे में शामिल भूखी प्यासी भीड़ को पूरा यकीन था कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उनकी फरियाद सुनने के लिए उन तक अवश्य पहुंचेंगे। वक्त बीतता चला जा रहा था...। मोर्चे के नेताओं ने बार-बार पुलिस अधिकारियों से निवेदन किया कि वे अपनी बात मंत्रियों तक पहुंचाना चाहते हैं, चूंकि प्रदेश के लगभग सभी मंत्रीगण विधानसभा के शीतकालीन सत्र में भाग लेने के लिए नागपुर आये हुए हैं, यदि अब भी वे हमारे बीच न आ सकें तो फिर उनके यहां होने का क्या फायदा! मंत्रियों की राह देखते-देखते थक और निराश हो चुके मोर्चे में तनाव के लक्षण दिखायी देने लगे और फिर गोवारी नेताओं का आक्रोशभरा भाषण भी प्रारंभ हो गया। तनावपूर्ण वातावरण की गंभीरता को देखकर पुलिस अधिकारियों ने अपने अंतिम प्रयास के रूप में विधानसभा भवन में चर्चाओं में व्यस्त मंत्रियों के पास खबर भेजी कि स्थिति बिगड़ रही है इसलिए एक बार आंदोलनकारियों से आकर मिल लें। पर किसी भी मंत्री के कान पर जूं तक नहीं रेंगी, जबकि आदिवासी विकास मंत्री मधुकरराव पिचड़ का दायित्व था कि वे आदिवासी भाइयों की फरियाद सुनने के लिए दौड़े चले आते। पर वे तो अपनी ही मस्ती में डूबे थे। उनके चाटुकारों ने उन्हें घेर रखा था। चुटकलेबाजी चल रही थी। मंत्री जी के कमरे में ठहाके गूंज रहे थे। लगभग साढ़े पांच बजे के आसपास नेताओं ने महिलाओं एवं बच्चों को मोर्चे के आगे लाकर खड़ा कर दिया। देखते ही देखते चार हजार से अधिक महिलाएं, छोटी लड़कियां, लड़के तथा निरीह और मासूम बच्चे मोर्चे के आगे एकत्रित हो गये। इसी बीच अचानक भीड़ में से किसी सिरफिरे ने बैरिकेट उठाकर पुलिस कर्मचारियों पर फेंक दिया। इस घटना के तुरंत बाद पुलिस और एस.आर.पी. के जवानों ने बिना कुछ विचारे लाठीचार्ज करना प्रारंभ कर दिया। लाठीचार्ज शुरू होते ही ऐसी भगदड़ मची, जैसे कोई भूचाल आ गया हो। अनियंत्रित और घबरायी भीड़ को जहां रास्ता दिखा वहां भागने लगी। इस भागदौड़ में मोर्चे के आगे एकत्रित हुए छोटे-छोटे बच्चों एवं महिलाओं का बहुत बुरा हाल हुआ। हजारों की भीड़ उन्हें कुचलते-मसलते और रौंदते हुए भागने लगी और सामने चप्पे-चप्पे पर खड़ी पुलिस की गोलियों, लाठियों की मार और भय भी मौत का भयंकर कारण बना। 

    सात बजते-बजते तक कई लाशें बिछ चुकी थीं। लगभग डेढ़ घंटे तक कई घायल कराहते रहे और अंतत: वे मौत के मुंह में समा गये। अब तो खाकी वर्दीधारी भी बेबस नज़र आ रहे थे। कुछ देर के बाद उन्होंने लाशों को जानवरों की तरह एस.टी. की बसों में भरना शुरू कर दिया। एक के ऊपर दूसरी और तीसरी लाश बेरहमी से फेंकी जाने लगी, जिनमें थोड़ी-बहुत जान बची थी, उन्होंने भी मेडिकल कॉलेज पहुंचते-पहुंचते तक दम तोड़ दिया।  23 नवंबर बुधवार की उस रात मेडिकल कॉलेज के परिसर में बिखरी लाशों को देखकर पत्थर से पत्थर दिल इंसान के भी आंसू बहने लगे थे। कई लोगों की रुलाई थमने का नाम नहीं ले रही थी। मौत भी अपनी इस दुर्गति पर छाती पीट रही थी। हजारों रोते बिलखते स्त्री, पुरुषों और बच्चों के कारण पूरा अस्पताल श्मशानघाट लग रहा था। लोग अपने सगे संबंधियों की लाशें तलाश रहे थे और इस पीड़ादायक और रोंगटे खड़े कर देनेवाले मंजर ने साक्षात नरक को नागपुर में लाकर बैठा दिया था। इसी तरह से लाशों और घायलों को नागपुर के मेयो अस्पताल भी पहुंचाया गया। मरने वालों में अधिकांश संख्या महिलाओं एवं बच्चों की थी। पुलिस प्रशासन का कहना था कि नेताओं के उकसावे में आकर मोर्चा देखते ही देखते उग्र तथा अनियंत्रित हो गया था। इसीलिए लाठीचार्ज करने को विवश होना पड़ा। अगर पुलिस लाठियां नहीं चलाती तो स्थिति और भी खतरनाक रूप धारण कर सकती थी। मोर्चे में शामिल कुछ लोगों ने पुलिस पर पथराव किया, इससे भी स्थिति बिगड़ी। किसी तरह से मौत का निवाला बनने से बच गये भुक्तभोगियों का कहना था कि अगर मोर्चे में शामिल हुए लोगों को हुल्लड़बाजी या पथराव ही करना था तो वह शाम होने का इंतजार क्यों करते! दिन भर सब कुछ शांत रहा और शाम को पुलिस लाठीचार्ज के बाद ही ये दिल दहलाने वाला खूनी मं़जर सामने आया। नागपुर में हर साल दिसंबर के महीने में सरकारी सर्कस यानी शीतकालीन सत्र का आयोजन होता है। इस सत्र को कायदे से चलना तो तीन सप्ताह तक चाहिए पर आठ-दस दिन में ही इसके तंबू उखड़ने शुरू हो जाते हैं। हर वर्ष महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में सरकार का राजधानी मुंबई से आगमन होता है। सच तो यह है कि शीत सत्र के नाम पर विधायकों, मंत्रियों, अधिकारियों और छोटे-बड़े नेताओं का ‘मेला’ लगता है। करोड़ों रुपये फूंक दिये जाते हैं और अंतत: उस विदर्भ को ठेंगा मिलता है, जिसके भले के लिए इतना बड़ा तामझाम किया जाता है। नागपुर में हर वर्ष शीतकालीन सत्र आयोजित किये जाने के पीछे भी दिलचस्प किस्सा जुड़ा हुआ है। बात उन दिनों की है, जब विदर्भ का महाराष्ट्र में विलय नहीं हुआ था। तब विदर्भ के नेताओं के परामर्श से एक समझौता हुआ था कि नागपुर को उपराजधानी बनाया जाए। नागपुर को यह सम्मान देने के पीछे कई उद्देश्य थे। विदर्भ की विभिन्न समस्याओं पर चर्चा करने और उन्हें सुलझाने के लिए हर साल छह सप्ताह का सत्र आयोजित करने का निर्णय लिया गया था, जो घटते-घटते तीन सप्ताह तक जा पहुंचा। हर साल मुख्यमंत्री, मंत्रियों, विधायकों, अफसरों और कर्मचारियों का बंबई (मुंबई) से नागपुर आगमन होता है। विधानभवन के निकट ही सभी विधायकों के लिए दो कमरों के आवास बनाये गये हैं। हर वर्ष इन आवासों की साफ-सफाई और पुतायी की जाती है। नयी चादरें, गद्दे, तकिये, कंबल खरीदे जाते हैं। कम कीमत पर शाकाहारी तथा मांसाहारी लजीज से लजीज भोजन उपलब्ध कराया जाता है। विधानभवन के बाहर संतरे, मौसम्बी के जूस के स्टॉल भी लगाये जाते हैं। सैकड़ों अस्थायी कर्मचारियों को मंत्रियों, विधायकों की सेवा में झोंक दिया जाता है।

    114 गोवारियों की शहादत और अथाह संघर्ष के बाद मुंबई उच्च न्यायालय की नागपुर खंडपीठ ने गोवारी ‘आदिवासी ही होने’ का फैसला सुनाया था, लेकिन लोकशाही आघाड़ी सरकार ने उच्च न्यायालय के इस फैसले के विरोध में उच्चतम न्यायालय में चुनौती दे दी। इस पर उच्चतम न्यायालय ने मुंबई उच्च न्यायालय के आदेश रद्द करने से गोवारियों के मुंह का निवाला छीनते हुए उन्हें फिर निराशा और चिंता में डाल दिया। शहादत और संघर्ष के 28 वर्ष बीत जाने के बाद भी वे न्याय पाने की राह ताक रहे हैं। गोवारियों की शहादत के बाद कई नये और पुराने जन्मजात मतलबी नेताओं को अपनी राजनीति की दुकानें चमकाने का सुअवसर मिल गया था। मृतकों को श्रद्धांजलि देने और उनके परिजनों को और अधिक मुआवजा राशि देने की मांग वाली प्रेस विज्ञप्तियां लेकर नये-नये चेहरे भी समाचार पत्रों के कार्यालयों में पहुंचने लगे थे। यह महारथी दो-चार किलो सेब, संतरे लेकर अपने फोटोग्राफर के साथ अस्पतालों में जाते और घायलों को मुस्कराते हुए फल प्रदान करते हुए फोटो खिंचवा अखबारों के दफ्तरों में पहुंच जाते थे। अपनी फोटो के साथ विज्ञप्ति छपवाने की उनमें होड़ लग गई थी। उनके लिए लोगों की निगाह में आने और छाने का यह सुनहरा मौका था। एक बार छपे तो फिर नाम और फोटो छपवाने का उन्हें रोग लग गया। कालांतर में यह छपास रोगी खुद को नेता समझने लगे। बड़े नेताओं के आगे-पीछे घूमने लगे। जो ज्यादा चतुर-चालाक थे वे पार्षद और विधायक भी बने। जिनमें लगन थी, जनहित का सच्चा जज़्बा था वे टिके रहे। बाकी अपनी जेबें भरने के बाद गायब हो गये। संतरा नगरी में कर्मठ नेताओं की कभी कमी नहीं रही। कुछ नाम तो ऐसे हैं, जिनका वर्षों से प्रदेश और देश की राजनीति में डंका बज रहा है। हां, कुछ गोवारी नेताओं ने भी कुर्सी का सुख भोगते हुए खूब चांदी काटी। आम गोवारी आज भी ठगे से वहीं के वहीं हैं। नागपुर के जीरो मॉइल परिसर में शहीदों की याद में बनाए गए शहीद स्मारक पर प्रति वर्ष 23 नवंबर को लाखों गोवारी श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए आते हैं। एक बार फिर से न्याय पाने की उम्मीद, आकांक्षा और अटूट संकल्प की भावना के साथ अपने-अपने गांव लौट जाते हैं... श्रद्धांजलि देने के लिए नेताओं का भी अच्छा-खासा जमावड़ा लगता है।

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