Thursday, January 19, 2023

पर्दे की चीर-फाड़

     भूख तो हर किसी को लगती है। छत के बिना भी जिन्दगी नहीं कटती। सभी को सुख-चैन से रहना अच्छा लगता है। हर कोई चाहता है कि उसकी रोजी-रोटी पर कभी कोई खतरा न आए। अपनी हाड़तोड़ मेहनत से बनाये घर, ऑफिस, दूकान, होटल और दरो-दीवार पर कोई दरार और आंच भी ना आए। इस धरा के हर इंसान की हमेशा यही तमन्ना रहती है, कि हम और हमारा परिवार हर हाल में सुरक्षित रहे। यह भी सच है कि इंसान के चाहने और सोचने के बावजूद कभी-कभी स्थितियां और परिस्थितियां अनुकूल नहीं रहतीं। इंसानी दुष्टता के साथ-साथ कुदरत का कहर भी ऐसा बरपा हो जाता है कि अच्छा भला आदमी माथा पकड़ कर रह जाता है। 

    पहले बात करते हैं पड़ोसी देश पाकिस्तान की, जहां पर इन दिनों लोगों को अपने सामने मौत नाचती दिखायी दे रही है। जनता हुक्मरान को दिन-रात कोस रही है, जिनकी गलत नीतियों की वजह से उसे दिन-रात भूख से लड़ते हुए दाने-दाने को मोहताज होना पड़ रहा है। पाकिस्तान में आटे के दाम आसमान के भी पार जा पहुंचे हैं। 160 रुपये किलो में आटा और 60 रुपये किलो में नमक खरीद पाना आम आदमी के लिए आसमान के तारे तोड़ने जैसा है, फिर भी हर मां-बाप अपने बच्चों के लिए यह भी करने को तैयार हैं। प्रतिदिन दुकानों के सामने लम्बी-लम्बी कतारें लगती हैं और कुछ के हिस्से में खाने-पीने का नाममात्र सामान आता है तो अधिकांश को निराश खाली हाथ घर लौट जाना पड़ता है। इस जद्दोजहद में न जाने कितने लोग कुचले जा चुके हैं। कुछ की तो भीड़ में धक्का-मुक्की और दम घुटने की वजह से मौत भी हो चुकी है। साल भर पहले जो प्याज तीस-बत्तीस रुपये किलो बिकती थी अब उसकी कीमत दो सौ रुपये किलो के पार जा पहुंची है। गैस सिलेंडर 10 हजार में तो चिकन छह सौ रुपये तथा दालों तथा सब्जियों के दाम भी गरीबों के मुंह पर तमाचे जड़ रहे हैं। पांच-सात हजार रुपये महीने की कमायी करने वाले परिवारों को एक वक्त की रोटी भी नसीब हो जाए तो बहुत बड़ी बात है। बीमार होने पर लोगों के लिए दवाएं खरीद पाना भी आसमान से तारे तोड़ने जैसा ही है। डॉक्टरों ने भी अपनी फीस बढ़ा दी है। जमाखोरों के लालच तथा जमाखोरी की कोई सीमा नहीं रही। मौत के सौदागरों के यहां धड़ाधड़ नोट बरस रहे हैं। भ्रष्ट व्यापारी नेता, अधिकारी, कर्मचारी बस हाथ आये मौके का फायदा उठाने में लगे हैं। अपने घरों और गोदामों में खाने-पीने तथा सभी सुख-सुविधाओं के सामान का अंबार लगाकर धनवान बड़ी बेरहमी के साथ तमाशा देख रहे हैं। 

    पाकिस्तान और हिंदुस्तान एक ही उम्र के देश हैं। दोनों एक ही साथ आजाद हुए थे, लेकिन कौन कहां पहुंचा यह बताने की जरूरत नहीं। हिंदुस्तान में लोकतंत्र की जड़ें भी अत्यंत मजबूत हैं। कोई भी ताकत उन्हें हिला-डुला नहीं सकती। दूसरी तरफ पड़ोसी देश में तो जनतंत्र का बार-बार जनाजा उठता रहता है। पाकिस्तान के शासक आवाम की खुशहाली के लिए मेहनत करने की बजाय अपने पड़ोसी भारत देश की तरक्की से ही जलते आए हैं। उन्होंने वसुधैव कुटंबकम की संस्कृति और मनोभावना के साथ आगे बढ़ने वाले भारत को तबाह करके रख देने की धमकियां भी दीं, लेकिन अंतत: खुद ही बरबादी और कंगाली के कगार पर जा पहुंचे। अब जब उनका पूरा मुल्क दाल रोटी मांग रहा है, तब वहां के प्रधानमंत्री के होश ठिकाने आये हैं। अपने जन्मजात अहंकार और ऐंठन को अपनी भूल और नासमझी मानते हुए उसने अंतरराष्ट्रीय मीडिया के समक्ष कहा है, ‘भारत के साथ हमने तीन युद्ध लड़े और इससे हमारे लोगों को दु:ख, गरीबी और बेरोजगारी के सिवाय कुछ हाथ नहीं लगा। अब हम शांति से रहना चाहते हैं।’ 

    जहां पाकिस्तान में आटा-दाल-चावल को लेकर हाहाकार मचा है, वहीं भारत में पहाड़ों पर भूस्खलन, पानी के रिसाव तथा दरारों ने हजारों लोगों को बेघर होने को विवश कर दिया है। आप कल्पना करें। जरा सोच कर भी देखें। जिस घर... झोपड़ी, महल, दुकान, होटल, कार्यालय आदि को आपने खूब मेहनत कर बनाया... खड़ा किया हो, उसे एकाएक छोड़कर कहीं और रहने और कमाने खाने को जाना पड़े तो आप पर क्या बीतेगी? उत्तराखंड में स्थित शहर जोशीमठ तथा उसके आसपास के गांवों-कस्बों में स्थित घरों की दीवारों तथा सड़कों में दिल दहलाते भूधंसाव तथा दरारों के आने से यहां रहने वाले हजारों लोग बेघर और बेरोजगार होने के संकट से जूझ रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि किसी ने उनकी गर्दन पर नंगी तलवार रख दी है। प्रशासन के द्वारा लगभग आठ सौ घरों पर खतरे का लाल निशान लगा दिये गए हैं। कुछ लोग अपनी जमीन से जुदा होने को हर्गिज तैयार नहीं। अपनी जान की परवाह न करने वाले इन लोगों की यह मांग भी है कि जब तक उन्हें पर्याप्त मुआवजा नहीं मिलेगा तब तक वे कहीं और नहीं जाएंगे। अंतत: वे यहीं मर खप जाएंगे। बिना रुपयों के नया बसेरा कैसे बनेगा और रोजगार के प्रबंध भी कैसे होंगे? उन्हें क्या पता था कि उन पर ऐसा आफत का पहाड़ टूट पड़ेगा? 

    ऐसा भी नहीं है कि पहाड़ों पर पड़ने वाली दरारों एवं भूस्खलन का शासन और प्रशासन को पहले से कोई अंदेशा नहीं था। 1976 में ही मिश्रा समिति ने जोशीमठ के आसपास भारी निर्माण पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश कर दी थी। रिपोर्ट में कहा गया था कि जोशीमठ रेत और पत्थर के जमाव पर स्थित है, यह मुख्य चट्टान पर नहीं है। यह एक प्राचीन भूस्खलन पर स्थित है। अलकनंदा और धौलीगंगा की नदी धाराओं द्वारा कटाव भी भूस्खलन लाने में अपनी भूमिका निभा रहा है। शासन और प्रशासन को सचेत करते हुए यह भी सुझाया गया था कि पेड़ और घास लगाने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाया जाए। ढलानों पर कृषि से बचा जाए, पक्की नाली प्रणाली का निर्माण किया जाए, ताकि गड्ढों को बंद किया जा सके और सीवरलाइन के माध्यम से सीवेज का पानी बह सके। इसके अलावा रिसाव से बचने के लिए पानी को जमा नहीं होने देना चाहिए और इसे सुरक्षित क्षेत्र में ले जाने के लिए नालियों का निर्माण किया जाना चाहिए और सभी दरारों को चूने, स्थानीय मिट्टी और रेती से भरा जाना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। दरअसल, शासन और प्रशासन की नींद तो तभी खुल जानी चाहिए थी, जब 2013 में केदारनाथ में प्रलय जैसे हालात बने थे और अनेकों मौतें हो गई थीं। 

    सच कहें तो अपने देश हिंदुस्तान में अतीत से सबक लेने की परिपाटी नहीं है। बहुत कुछ भगवान भरोसे चलता रहता है। जब दुर्घटना घटती है, तब शासन-प्रशासन की नींद खुलती है। भगवान न करे भारत के कभी भी पाकिस्तान जैसे भयावह हालात बनें, लेकिन यहां की अमीरी के नीचे दबती और कराहती गरीबी को छिपाने और नजरअंदाज करने का षडयंत्र-सा चल रहा है। देश के पास संसाधनों की कहीं कोई कमी नहीं, लेकिन अधिकांश साधन-संसाधन धनवानों के हाथों में सिमट कर रह गये हैं। एक प्रतिशत अमीरों की जेब में देश का चालीस प्रतिशत धन कैद होकर रहा गया है। वर्तमान में देश के 81 करोड़ लोगों को गरीब होने के कारण पांच किलो अनाज लगभग मुफ्त में देना पड़ रहा है। सरकार की इस मेहरबानी से देश की गरीबी और बदहाली का कटु सच तो नहीं बदलने वाला। अब प्रश्न तो यह भी है कि हकीकत को कब तक छिपाया जाता रहेगा? एक न एक दिन तो पर्दा फटेगा या फिर उसे किन्हीं हाथों के द्वारा चीर-फाड़ दिया जाएगा...।

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