Thursday, April 13, 2023

पुरस्कार-तिरस्कार

    अन्न, पानी और हवा के बिना जीवन नहीं चलता। स्वास्थ्य, शिक्षा और धन का होना भी नितांत जरूरी है। इन सभी जरूरतों के पूरा होने के पश्चात भी इंसान का मन नहीं भरता। उसका बस चले तो वह क्या न कर दे। प्रशंसा, मान-सम्मान और नाम की भूख सदैव उसे बेचैन किए रहती है। उसे यह भी पता है कि प्रतिभावान अपने आप इज्जत पाते हैं। उन्हें कोई जोड़-जुगाड़ नहीं करना पड़ता, लेकिन पुरस्कार की भूख में पगलाये कुछ चेहरे खुद को महान मानते हुए दूसरों की आंख में धूल झोंकने में लगे रहते हैं। खूब हवा में उड़ते रहते हैं। जब कुछ हाथ नहीं लगता तो ईर्ष्या की भट्टी बन सुलगने लगते हैं। कहावत यह भी है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। सच पर डाला गया पर्दा एक न एक दिन हटता या फटता ही है। नकली नोट ज्यादा दिन तक बाजार में नहीं चल पाते। असली नोट ही तिजोरियों में जगह पाते हैं और मेहनतकशों की इज्जत को बढ़ाते हैं। यही सच इंसानों पर भी चरितार्थ होता है। वास्तविक, विद्धानों, चरित्रवानों, मेहनतकशों और परोपकारियों का हर जगह सम्मान होता है। सच्चे समाजसेवक, नेता, अभिनेता, साहित्यकार, चित्रकार, पत्रकार, संपादक, उद्योगपति आदि को मान-सम्मान तथा प्रशंसा के लिए भटकना नहीं पड़ता। उनके कद्रदान उनकी शिनाख्त कर उन तक पहुंच ही जाते हैं। 

    विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य करने वाली शख्सियतों की मानवंदना करने वाली देशभर में ढेरों संस्थाएं हैं। समाज, शहर, प्रदेश और देश के दूरदर्शी पारखियों के द्वारा पुरस्कृत, सम्मानित करने की परिपाटी की नींव रखने का यकीनन यही ध्येय रहा होगा कि अंधेरे से लड़कर रोशनी फैलाने वाली हस्तियों के बारे में दूसरों को भी पता चले। वे उनसे प्रेरित हों। हर पुरस्कार और सम्मान में प्राप्तकर्ता के प्रति श्रद्धा और आस्था के साथ यह संदेश भी होता है कि उसे और कर्मठ होना है। उन सभी आशाओं और उम्मीदों पर पूरी तरह से सतत खरा उतरते रहना है, जो उससे लगाई गई हैं। अब तो न्यूज चैनल तथा नामी-गिरामी धनवान अखबार मालिकों ने भी विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य करने वालों को पुरस्कृत करना प्रारंभ कर दिया है, लेकिन यह सच भी अपनी जगह विराजमान है कि इनके पुरस्कृत करने का अपना-अपना स्वार्थ और तरीका है। अधिकांश चैनलों तथा अखबार मालिकों के कर्ताधर्ता अपने मनपसंद चेहरों को ढोल-नगाड़े बजाते हुए मंचों पर बिठाने के साथ-साथ पुरस्कृत करने का शानदार अभिनय करते हैं। इनके प्रायोजित भव्य कार्यक्रमों में शामिल होते हैं बड़े-बड़े उद्योगपति, नेता, चलते-फिरते समाज सेवक, अभिनेता और मंत्री-संत्री। यहां तक की केंद्रीय मंत्रियों तथा मुख्यमंत्रियों को भी सम्मानित करने परंपरा चला दी गई है। बड़े-बड़े मीडियावाले संबंध बनाने और मोटे विज्ञापन पाने के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने पर उतर आये हैं। 

    भारत सरकार के द्वारा प्रतिवर्ष भारतीय नागरिकों को उनकी विशेष उपलब्धियों और उल्लेखनीय कार्यों के लिए प्रदत्त किये जाने वाले पद्म पुरस्कारों को लेकर भी कई तरह की बातें और शंकाएं व्यक्त की जाती रही हैं। अभी हाल ही में भारत वर्ष की माननीय राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने जिन हस्तियों को पद्म सम्मानों से विभुषित किया उन्हीं में कर्नाटक के बिदरी शिल्प के कलाकार शाह रशीद अहमद कादरी का भी समावेश है। पद्मश्री सम्मान समारोह के तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह सभी सम्मानितो से मिले और बधाई तथा शुभकामनाएं दीं। मंजे हुए खिलाड़ी, सिद्धहस्त कलाकार कादरी ने प्रधानमंत्री के समक्ष नतमस्तक होकर अपने दिल की बात कहने में देरी नहीं लगाई, ‘मैंने तो कभी सोचा ही नहीं था कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार मुझे इस गौरवशाली सम्मान के लायक समझेगी। मैंने इस पद्म अवार्ड के लिए निरंतर दस साल हाथ पैर मारे। हर साल अपनी प्रोफाइल बनाने में 12 हजार रुपये की आहूति दी, लेकिन अंतत: निराशा ही हाथ लगी। केंद्र में भाजपा सरकार आने के बाद तो यह सोचकर मैंने प्रोफाइल बनानी ही छोड़ दी कि, जब मुसलमानों की हितैषी कही जाने वाली कांग्रेस सरकार ने मेरी कद्र नहीं की तो उस भाजपा से क्यों उम्मीद रखना, जिसे मुसलमानों का कट्टर शत्रु माना जाता है, लेकिन घोर आश्चर्य... मेरी पूर्वाग्रह से ओतप्रोत सोच को मोदी सरकार ने पूरी तरह से गलत साबित कर दिया है। पद्मश्री कादरी इतने गदगद हुए कि उन्होंने तमाम न्यूज चैनलों पर यह कहने में जरा भी देरी नहीं लगायी अब तो कांग्रेस से मेरा हमेशा-हमेशा के लिए मोहभंग हो गया है। भाजपा ही मेरी माई-बाप है। मेरे साथ-साथ मेरे स्वजनों के वोट भाजपा के लिए पक्के हो गए हैं। अब मेरी दिली तमन्ना है कि पूरे देश और दुनिया में सिर्फ नरेंद्र मोदी की ही जय-जयकार हो।  

    सरकारें भी साहित्यकारों तथा पत्रकारों को भी समय-समय पर पुरस्कृत करती रहती हैं। बात जब साहित्य की होती है तो यह जान लेना भी अत्यंत आवश्यक है कि अच्छे अनुभवी, संस्कारित लेखकों के अभाव के चलते पाठकों ने भी पढ़ने-पढ़ाने से दूरी बनानी प्रारंभ कर दी है। फिर भी अपने यहां हर वर्ष असंख्य नई-नई पुस्तकों का प्रकाशन होता है। अधिकांश कविता संग्रह, गीत संग्रह, गजल संग्रह, निबंध संग्रह, कहानी संग्रह छपवाने के लिए रचनाकारों को अपनी जेब ढीली करनी पड़ती हैं। आत्ममुग्ध लेखक-लेखिकाएं अपनी कृतियों को मित्रों, रिश्तेदारों को भेंट स्वरूप देकर गदगद होते रहते हैं यह भी सच है कि- मुफ्त में मिली किताबों को कोई नहीं पढ़ता। अंतत: रद्दी की टोकरी के हवाले हो जाती हैं। कुछ सुलझे हुए कवि, कहानीकार, उपन्यासकार हैं, जिनको प्रकाशक खुशी-खुशी छापते हैं। कुछ न कुछ रायल्टी भी देते रहते हैं। प्रशंसा पाने को लालायित कुछेक रचनाकार पुरस्कार के लिए पगलाये रहते हैं। देशभर में जहां-तहां फैली कई संस्थाएं हैं, जो उन्हें पुरस्कार देकर खुश करती रहती हैं। इनमें से कुछ ईमानदारी से नवाजती हैं तो कुछ लेन-देन से बाज नहीं आतीं। अब तो देश के प्रकाशक गुलशन नंदा, वेदप्रकाश शर्मा, प्रेम वाजपेयी, परशुराम शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक, केशव पंडित आदि की पुरानी किताबों को धड़ाधड़ छापने और बेचने की तैयारी में हैं। यह वो कलमकार हैं, जिनपर लुगदी साहित्य रचने और प्रकाशित करवाने के आरोप लगा करते थे। फिर भी इनके पाठकों की संख्या लाखों में थी। ऐसे में अब उन लेखकों का क्या होगा, जिनसे धन लेकर मुश्किल से दो-तीन सौ पुस्तकें प्रकाशित की जाती हैं, जो पाठकों तक पहुंच ही नहीं पातीं हैं। ऐसा भी नहीं कि सभी लेखक बदकिस्मत हैं। अच्छी रचनाओं को पढ़ने वाले पाठक आज भी हैं। भले ही यह राग अलापा जाता रहे कि छपे शब्दों की कोई कीमत नहीं रही। सोशल मीडिया ने सब कबाड़ा कर दिया है। कुछ लेखक अपनी ऐसी-वैसी पुस्तकें धड़ाधड़ छपवाते ही इसलिए हैं कि उन्हें कोई न कोई सरकारी पुरस्कार मिल जाए। लेकिन, जब उनकी मंशा पूरी नहीं होती तो पुरस्कृत होने वाली हस्तियों के बारे में ऊल-जलूल बकवास करते हुए ईर्ष्या की आग की भट्टी में जलने लगते हैं। विद्वान चयनकर्ताओं पर भेदभाव और पक्षपात के आरोपों की झड़ी लगाने वालों को इस बात की भी चिंता नहीं रहती कि अपनी बेहूदा अमर्यादित भड़ास की वजह से वे हंसी का पात्र बनते हुए खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं।

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