Thursday, September 21, 2023

ज़लज़ला

    किसे खबर थी, ऐसा वक्त भी कभी आयेगा, जब चारों ओर सोशल मीडिया का ही शोर होगा। लोगों के पास पत्र-पत्रिकाओं, न्यूज चैनलों पर नज़रें दौड़ाने भर का ही समय बच पायेगा। ऐसा अद्भुत चमत्कार तो इलेक्ट्रानिक मीडिया भी नहीं दिखा पाया, जिसके आगमन पर प्रिंट मीडिया के खात्मे तक के दावे होने लगे थे। मुट्ठी में कैद मोबाइल से बातचीत करने के अलावा और इतना कुछ करने-कराने और पाने की कहां सोची थी आमजन ने। इंटरनेट ने तो दुनिया ही बदल दी। बड़ी से बड़ी दूरियां नजदीकियां बन गईं। जिन खबरों तथा जानकारियों को देश दुनिया तक पहुंचने-पहुंचाने में घंटों लगते थे, उन्हें सोशल मीडिया मिनटों में पहुंचाने लगा। भारत में समाचार पत्र अनेकों वर्षों तक करोड़ों लोगों की जरूरत और पसंद बने रहे। सुबह उठते ही अखबार में छपी खबरों के साथ चाय पीने का जो आनंद था, वह धीरे-धीरे कम होता चला गया। वजह रही अखबार चलाने वालों का सार्थक खबरों पर कम और विज्ञापननुमा खबरों पर अधिक ध्यान देना। उद्योगपति घरानों ने भी अखबारों को कब्जा कर जिस तरीके से चलाया वो भी सजग पाठकों को पसंद नहीं आया। सार्थक खबरों की बजाय नकारात्मक खबरों से अखबारों को भरे जाने के कारण पाठकों की प्रिंट मीडिया से दूरी बनाने की हकीकत जब संपादकों, मालिकों को समझ में आयी तब तक बहुत देर हो चुकी थी। 

    वर्तमान में समाचार पत्रों तथा विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं की जो दुर्गति दिखायी दे रही है उसकी वजह पाठकों की कमी नहीं, प्रकाशकों का धन-रोग है, जिसकी कोई सीमा नहीं। न्यूज चैनल भी शुरू-शुरू में पत्रकारिता का धर्म निभाते दिखे। उनके प्रति लोगों का रुझान देखकर ऐसे-ऐसे चेहरों ने इलेक्ट्रानिक मीडिया में घुसपैठ करनी प्रारंभ कर दी, जिनका सजग पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं था। प्रिंट मीडिया की तरह इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी भू-माफिया, कोल माफिया, शराब माफिया तथा अन्य विविध काले धंधों के सरगना अपनी-अपनी कलाकारियां दिखाने लगे। अडानी, अंबानी के साथ-साथ न जाने कितने उद्योगपतियों ने विभिन्न न्यूज चैनलों को अपने कब्जे में लेकर सिद्धांतवादी पत्रकारों, संपादकों, एंकरों को त्यागपत्र देने को विवश कर दिया। वर्तमान में भारत में नाममात्र के ऐसे न्यूज चैनल बचे हैं, जिन पर लोगों का भरोसा कायम है। कुछ अखबारों की तरह इन न्यूज चैनलों में निष्पक्ष तथा निर्भीक पत्रकारिता करने वाले अभी जिन्दा हैं। भले ही उनकी गिनती अपवादों में होती है, लेकिन उनका दमखम बुलंदी पर है। 

    देखते ही देखते लोगों के दिलो-दिमाग पर छा जाने वाले सोशल मीडिया के उफान को देखकर भी यह प्रतीत होने लगा था कि यह नया माध्यम कुछ खास साबित होगा, लेकिन इसमें भी खतरनाक तमाशेबाजी करने वालों की तादाद बढ़ने से इसे अलोकप्रिय होने में देरी नहीं लगी। शुरू-शुरू में सुलझे हुए विद्वानों की पोस्ट देख-पढ़कर ज्ञानवर्धन होता था, लेकिन अब सोशल मीडिया पर अभद्र, अश्लील पोस्ट की भरमार भयभीत भी करती है और क्रोध भी दिलाती हैं। इसमें दो मत नहीं कि सोशल मीडिया ने संचार को आसान और अत्यंत सुलभ बनाया है। फेसबुक, वाट्सएप आदि के जरिए अपनों और बेगानों के संपर्क में रहने की अभूतपूर्व सुविधा उपलब्ध करवायी है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, व्यापार आदि के क्षेत्रों की जानकारी का जीवंत माध्यम है सोशल मीडिया। कोरोना काल में सोशल मीडिया की उपयोगिता हम सबने देखी है और उससे लाभान्वित भी हुए हैं। कुछ विघ्न संतोषियों ने वैमनस्य का विष उगलने के लिए सोशल मीडिया को अपना हथियार बना लिया है। सांप्रदायिक तथा जातीय सद्भाव को बिगाड़ने के लिए असमाजिक और अराजक तत्व सतत सक्रिय हैं। जो सोशल मीडिया समाज की मुख्यधारा से अलग लोगों की आवाज़ बन सशक्त वरदान बन सकता उसे अभिशाप बनाने के लिए षडयंत्रों के जाल बुने जा रहे हैं। अभी हाल ही में महाराष्ट्र के सातारा जिले में सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक पोस्ट को लेकर दो समुदायों की बड़ी तीखी झड़प होने के कारण एक व्यक्ति की मौत हो गई तथा दस लोग घायल हो गए। सोशल मीडिया की विभिन्न उत्तेजक पोस्ट के कारण देश में पहले भी मरने-मारने की कई घटनाएं मीडिया की सुर्खियां बन चुकी हैं। दरअसल, सोशल मीडिया को उत्तेजक और भ्रामक तथ्यहीन खबरें तथा अफवाहें फैलाने का मंच बनाने वालों ने यह मान लिया है कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अखबारों तथा न्यूज चैनलों पर तो अंकुश लगाने का प्रावधान है, लेकिन सोशल मीडिया बेलगाम है। उत्तेजक तथा भ्रामक पोस्ट कर खुशियां मनाने वाले अपराधियों को उन्हें अच्छी तरह से पता है कि वे सूखी घास पर पेट्रोल छिड़कने का अपराध कर रहे हैं। इससे अंतत: आग दूर-दूर तक फैलने तथा पता नहीं कितनों को जलाने तथा राख कर देने वाली है। सोशल मीडिया के अत्याधिक उपयोग ने भी कई परेशानियां खड़ी करनी प्रारंभ कर दी हैं। युवाओं के साथ-साथ किशोरों के हाथ से मोबाइल छूट ही नहीं रहा है। उनका अधिकांश समय सोशल मीडिया पर ही बीत रहा है। पढ़ाई-लिखाई पीछे छूटती जा रही है। उनमें अवसाद, डिप्रेशन, चिढ़चिढ़ापन बढ़ने के साथ ही अनिद्रा, मोटापा, आलस्य बड़ी तेजी से अपना डेरा जमाने लगा है। आज सुबह-सुबह अखबार में छपी इस खबर पर दिमाग और नजरें अटकी की अटकी ही रह गईं: दिल्ली के एक शिक्षित धनवान परिवार की बच्ची जब छह महीने की थी तभी फोन के पीछे भागने लगी थी। जब तक फोन हाथ में नहीं आता था, तब तक वह रोना बंद नहीं करती थी। लिहाजा हार मानकर घर वाले उसके हाथ में कभी फोन पकड़ा देते, तो कभी गाना लगाकर चुप कराते। आज वह दो साल की हो चुकी है। फोन पर वीडियो देखे बिना वह खाना नहीं खाती। मां-बाप अपनी लाड़ली को भूखा तो नहीं रख सकते, इसलिए उसकी जिद को पूरा करने को मजबूर हैं। शिक्षित माता-पिता को अच्छी तरह से पता है कि यह आदत अत्यंत हानिकारक है। कच्ची उम्र में लगा यह रोग उम्र बढ़ने के साथ-साथ खतरनाक आदत में तब्दील होना ही है। डॉक्टरों के अनुसार एक से तीन साल की उम्र तक बच्चे के दिमाग का विकास बड़ी तेजी से होता है। इस दौरान वह उठना, बैठना, चलना तो सीखता ही है, उसके साथ ही उसकी सेंसरी मोटर और सोशल ऐक्टिविटीज भी विकसित होती हैं, लेकिन जब इस उम्र में बच्चे फोन में ही उलझ जाएं तो सोचिए, उनका भविष्य कैसा होगा? माना कि युवाओं और किशोरों को समझाना मां-बाप के बस की बात नहीं रही, लेकिन मासूम बचपन पर वक्त रहते यदि वे चाहें, तो पाबंदी लगा सकते हैं। बच्चा रोयेगा, गायेगा अंतत: चुप हो जाएगा। नहीं भी मानेगा तो भी कोई भूचाल तो नहीं आ जाएगा। असली भूचाल और ज़लज़ला तो तब आयेगा जब यही बचपन किशोर होने पर मोबाइल के लिए माथा पटकेगा। आत्महत्या करने की धमकियां देगा या फिर खुदकुशी कर अखबार की खबर बन जाएगा...।

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