Thursday, October 5, 2023

कालजयी रचना

    महाराष्ट्र में स्थित पालघर के सरकारी अस्पताल में भर्ती मरीजों को प्रतिदिन एक महिला का इंतजार रहता है। यह बुजुर्ग महिला उनके लिए रोजाना खिचड़ी बनाकर लाती हैं और खुशी-खुशी खिलाती हैं। पिछले तीन वर्ष से हर दिन 100 से अधिक मरीजों तथा उनके साथ ठहरे परिजनों को गरमा-गरम खिचड़ी खिलाने वाली इस परोपकारी नारी का नाम है, किरण कामदार। हैरानी भरी हकीकत तो यह भी है कि किरण खुद पार्किसंस रोग की शिकार हैं। यह रोग दिमाग के उस हिस्से की बीमारी के कारण होता है, जो शारीरिक गतिविधि को समन्वित करने में सहायक होता है। इस रोग के चलते मांसपेशियां कड़ी हो जाती हैं और शरीर शिथिल हो जाता है। पांच साल पूर्व किरण को जब पता चला कि उन्हें पार्किसंस है तो वे चिंता में पड़ गईं। उन्होंने लस्त-पस्त और लाचार बना देने वाले इस रोग के बारे में सुन रखा था। इसी दौरान किरण अपनी बेटी की बीमार दोस्त को अस्पताल में मिलने गईं। अस्पताल मरीजों से भरा था। कई गरीब मरीज भूख से जूझ रहे थे। उनके साथ आये परिजनों को भी भोजन के लिए इधर-उधर भटकना पड़ रहा था। रात को किरण जब बिस्तर पर लेटीं तो नींद गायब थी। वह सतत लाचार मरीजों के बारे में सोचती रहीं। तभी उनके मन में विचार आया कि बिस्तर पर पड़े रहकर दिन काटने की बजाय क्यों न जरूरतमंदों की सहायता की जाए। सुबह होते ही किरण खिचड़ी बनाने में जुट गईं। परिवार वालों ने भी किरण की सोच का स्वागत करते हुए खिचड़ी तैयार करने में पूरा-पूरा सहयोग दिया। वो दिन था और आज का दिन है। मरीजों को खिचड़ी वितरित करने का नियम कभी भी नहीं टूटा। गंभीर बीमारी के बावजूद किरण सुबह पांच बजे बिस्तर छोड़ खिचड़ी बनाना प्रारंभ कर देती हैं। फिर तयशुदा समय पर दोपहर होते-होते अस्पताल पहुंच जाती हैं। घंटों अस्पताल में एक कमरे से दूसरे कमरे में जाकर मरीजों तथा उनके साथ आये परिवारजनों को तृप्त करने वाली किरण को पता ही नहीं चलता कि वक्त कैसे बीत जाता है। डॉक्टरों का भी यही कहना है कि ऐसी गंभीर बीमारी में सक्रियता सबसे बेहतर दवा है। 

    तेलंगाना में सरकारी प्राथमिक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका अर्चना नूगुरी को 15 सितंबर 2023 को नई दिल्ली के विज्ञान भवन में भारत की माननीय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हस्ते राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार शिक्षा मंत्रालय की ओर से देश के उन बेहतरीन शिक्षक-शिक्षिकाओं को दिया जाता है, जो अपने छात्रों को शिक्षित करने और उनके भविष्य को संवारने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं। मात्र 19 साल की उम्र में सरकारी स्कूल टीचर बनी अर्चना आज 42 वर्ष की हो चुकी हैं। शिक्षण के क्षेत्र में उनका सफरनामा उनके अथाह परिश्रम और समर्पण का जीवंत दस्तावेज है, जिससे यदि दूसरे शिक्षक और शिक्षिकाएं सच्चे मन से प्रेरणा लें तो देश की तस्वीर और तकदीर बदल सकती है। अर्चना के दादा भी शिक्षक थे, जिन्होंने कई आदिवासी छात्र-छात्राओं को शिक्षित कर उनके जीवन को बदल दिया। अर्चना ने बचपन में ही उन्हीं की तरह टीचर बन अंधकार में विचरते गरीबों के बच्चों के लिए दीपक बनने का निश्चय कर लिया था। वह छात्रों को स्कूल में तेलुगू, अंग्रेजी, गणित पढ़ाती हैं। इस शिक्षिका को हिंदी से भी खासा लगाव है। महान कवियों की कविताएं उन्हें प्रेरित कर ताकतवर बनाती हैं। राष्ट्रकवि मैथिली शरण की कालजयी कविता की यह पंक्तियां अर्चना के मन-मस्तिष्क में बसी हैं-

‘‘कुछ काम करो, कुछ काम करो

जग में रहकर कुछ नाम करो

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो

समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो

कुछ तो उपयुक्त करो तन को

नर हो, न निराश करे मन को’’

    प्रबल त्याग की भावना से ओतप्रोत, धैर्यवान और अटूट परिश्रमी अर्चना सन 2000 में जब स्कूल से जुड़ीं तब इसमें मात्र 34 छात्र थे। अर्चना स्थानीय लोगों की गरीबी और बेबसी से कतई अनभिज्ञ नहीं थीं। गांव की आदिवासी बस्तियों में रहने वाले अनपढ़ माता-पिता को अर्चना ने शिक्षा की अहमियत के बारे में बताना और समझाना शुरू किया। लगभग एक महीने तक उनके घरों तक जाती रहीं और उन्हें बार-बार बताती रहीं कि यदि बच्चों को स्कूल नहीं भेजोगे तो उन्हें भी गरीबी और बदहाली से मुक्ति नहीं मिल सकेगी। उनकी उम्र भी अभावों तथा दूसरों की चाकरी करते-करते बड़ी मुश्किल से कटेगी। यदि तुम लोग अपने बच्चों का भला चाहते हो तो उन्हें आज और अभी से ही स्कूल भेजो। कल कभी नहीं आता। स्कूल तक पहुंचने के लिए सड़के नहीं थीं। लोगों का आना-जाना बड़ी मुश्किल में हो पाता था। ऐसे में अर्चना ने अपने खर्च पर बच्चों को ऑटो की सुविधा उपलब्ध करवायी। अर्चना का बस एक ही लक्ष्य था कि बच्चे स्कूल पढ़ने के लिए आएं। अर्चना के उत्साह को देखकर विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं तथा राजनेताओं ने भी सहयोग देना प्रारंभ कर दिया। कालांतर में स्कूल में एक बोरवेल, प्यूरिफाइड वाटर प्लांट, फर्नीचर तथा विभिन्न सुविधाओं के साथ-साथ हजारों पुस्तकों वाला एक बेहतरीन पुस्तकालय भी अर्चना की लगन की बदौलत बन गया। यह अर्चना की दूरगामी सकारात्मक सोच और मेहनत का ही प्रतिफल है कि वर्तमान में स्कूल में लगभग तीन सौ छात्र उमंग-तरंग के साथ नियमित अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। इनमें 103 लड़कियां हैं, जो अपनी अर्चना दीदी की तरह ऊंची सोच रखती हैं। अब तो छात्र-छात्राओं को नवीन युग से रूबरू कराने के लिए डिजिटल तकनीक और केंद्र सरकार की सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) की पहल के जरिये पांच कंप्यूटर, दो एलईडी प्रोजेक्ट खरीदने के साथ दो अतिरिक्त क्लासरूम भी बना दिये गए हैं। बच्चों के माता-पिता के अनुरोध पर शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी मीडियम की भी शुरुआत हो गई है। इसे जिले का पहला अंग्रेजी माध्यम सरकारी प्राथमिक विद्यालय होने का गौरव हासिल है। 

    अभी हाल ही में उद्यमी, फ्रीलांसर, कॉपी राइटर और कवयित्री अनामिका जोशी की संघर्ष गाथा के कुछ पन्ने मेरे पढ़ने में आये। तकलीफों और संघर्षों की चोट से टूटने-बिखरने की बजाय उनका डट कर मुकाबला करने वालों की अंतत: कैसी खुशनुमा जीत होती है वो भी एक बार फिर से मैंने जाना। जानी-मानी स्पोकन वर्ड आर्टिस्ट अनामिका ने लिखा है कि 2019 में उनके कुछ मित्रों ने मदर्स-डे के अवसर पर कवि सम्मेलन का कार्यक्रम रखा, जिसमें उन्हें भी अपनी कविता प्रस्तुत करने का अनुरोध किया गया। मित्रों को यकीन था कि वह कुशल कवयित्री हैं, लेकिन ऐसा था नहीं। शहर के जाने-माने कवियों की उपस्थिति में कविता पाठ करने की कल्पना ने ही भयभीत कर दिया। कार्यक्रम से एक दिन पूर्व अनामिका की मां अचानक घर मिलने आ पहुंचीं। बातचीत के दौरान अनामिका अपनी मां के अतीत के बारे में सोचने लगीं। मां ने तो उससे भी ज्यादा संघर्ष किया था। असंख्य अभावों के दंश झेलते हुए उसे खिलाया, सिखाया और पढ़ाया था। अनामिका ने पेन पकड़ा और मां के भोगे हुए यथार्थ पर कविता लिख डाली। उनकी इस कविता को सभी ने भरपूर सराहा। उसके बाद तो उन्हें बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों में निमंत्रित किया जाने लगा। आज विभिन्न कवि सम्मेलनों के मंचों पर जो तालियां उन्हें मिलती हैं वह उम्रदराज नामी-गिरामी कवियों को भी हैरान-परेशान कर देती हैं। अनामिका कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाने से बचती हैं और ऐसी रचनाएं रचती हैं, जो पाठकों को टूटने, झुकने नहीं, उठने और दौड़ने का संदेश देती हैं। हर महान साहित्यकार ने इसी राह पर चलते हुए कालजयी साहित्य रचा है। वैसे यह भी सच है कि विधाता से बड़ा और कोई रचनाकार नहीं, जो किरण, अर्चना तथा अनामिका जैसी जीती-जागती कालजयी रचनाओं को बड़े जतन से रच कर इस विशालतम धरा पर भेजता है।

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