Thursday, March 21, 2024

आतंकवादी

    बीते दिन एक फिल्म देखी! ‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’! छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सली वर्षों से खून-खराबा करते चले आ रहे हैं। उनकी खूनी आतंकी रफ्तार से सरकारें भी हिलती रही हैं। फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो जिस गांव में जन्मे वह बस्तर से मात्र 40 किलोमीटर दूर है। विवादास्पद फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ को बनाने का श्रेय भी सुदीप्तो को ही जाता है। भयावह सच को दिखाना उनका फिल्म बनाने का मकसद है। ‘द नक्सल स्टोरी’ फिल्म के रिलीज से पहले गीत, वंदे वीरम के लांच के दौरान मुंबई में उन्होंने बस्तर इलाके के 14 शहीद जवानों के परिजनों को निमंत्रित कर पत्रकारों से मिलवाया था। शहीदों के परिजनों ने मंच पर बस्तर में वर्षों से हो रहे नरसंहार की पीड़ादायी हकीकत बयान कर अपनी आपबीती सुनाई। बस्तर का नाम सुनते ही मन भयभीत हो जाता है। फिल्म का ट्रेलर और गीत देख-सुनकर सभी की आंखें नम होती रहीं। यहां रोज औसतन 4-5 लोगों की निर्मम हत्या कर दी जाती है। बस्तर में नक्सलियों ने गरीब आदिवासियों को अपना गुलाम बना रखा है। उन्हें नक्सलियों के नियम-कानूनों का मजबूरन पालन करना पड़ता है। बस्तर के घने जंगलों में करीब साढ़े तीन हजार बस्तियां हैं। यहां हर मां को अपना एक बच्चा नक्सलियों को देना पड़ता है। मना करने पर पूरे परिवार का खात्मा कर दिया जाता है। बस्तर में 57 सालों में 55 हजार जवान शहीद हो चुके हैं। 

    लेकिन, गुस्सा दिलाने वाला एक सच यह भी है कि अपने ही देश में कुछ देशद्रोही चेहरे ऐसे हैं जिनको जवानों की शहादत पर ज़रा भी गम नहीं होता। नक्सलियों को मार गिराये जाने पर उनकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगती है। मानवाधिकार का झंडा उठाकर सड़कों तथा अदालतों के चक्कर लगाने लगते हैं। नक्सलियों के शुभचिंतकों को भी राष्ट्र स्वाभिमान और राष्ट्र विकास से चिढ़ है। शहरी नक्सली खुद को मानवता के रक्षक दर्शाते हैं, लेकिन आतंकवादियों के पक्ष में ही खड़े नजर आते हैं। नक्सलियों को हथियार तथा धन उपलब्ध कराने की उनकी शर्मनाक भूमिका राष्ट्रभक्तों का खून खौलाती है। शासन, प्रशासन की सक्रियता से कभी-कभार यह तथाकथित बुद्धिजीवी पकड़ में भी आते हैं। इनके पक्ष में इन्हीं के रंग में रंगे चेहरों का हो-हल्ला गूंजने लगता है। देश की राजधानी दिल्ली, मायानगरी मुंबई, कोलकाता, चंडीगढ़, रांची, हैदराबाद, विशाखापट्टनम, पुणे, नागपुर जैसे नगरों, महानगरों में जो शहरी नक्सली चोरी-छिपे सक्रिय हैं, उनका मुख्य एजेंडा शहरों में नक्सलवाद का गुणगान करना और लोगों को नक्सली विचारधारा से जोड़ना है। 

    ऐसा भी होता रहता है कि असली शैतानों के साथ-साथ कुछ बेकसूर भी पुलिस के शिकंजे का शिकार हो जाते हैं। पुलिसिया भूल और जल्दबाजी की वजह से उन्हें सालों जेल में सड़ना पड़ता है। उनकी जिन्दगी के कई वर्ष बर्बाद कर दिये जाते हैं। उनके मान-सम्मान पर भी जो दाग लगते हैं वे भी बड़ी मुश्किल से धुल पाते हैं। कुछ भारतीयों ने इस नाइंसाफी को वर्षों तक झेला है। उन्हीं में से एक हैं दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जी.एन. साईबाबा। माआवादियों से कथित संबंध रखने के आरोप में दस साल जेल में रहने के पश्चात बम्बई हाईकोर्ट द्वारा हाल ही में बरी किए गए साईबाबा के दर्द को कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है। नागपुर केंद्रीय जेल से सात वर्षों के बाद बाहर निकलने के बाद उनके शब्द थे ‘‘मुझे अभी भी ऐसा लग रहा है जैसे मैं जेल में ही हूं।’’ नक्सलियों से करीबी रखने और उन्हें खून-खराबा करने के लिए उत्साहित करने के संगीन आरोप में साईबाबा को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जा चुकी थी। उन्हें खतरनाक आतंकवादी भी कहा गया था। जेल में मर-मर कर गुजारे पलों को याद करते हुए साईबाबा इस कदर भावुक हो जाते हैं कि उनकी आंखें भीगी-भीगी हो जाती हैं। पिछले सात वर्षों में उनके परिवार ने कैसी-कैसी तकलीफें झेलीं, बिना कोई गुनाह किये लोगों की नजरों में अपराधी बन उनके तानों, नुकीले व्यंग्य बाणों की मार से सतत लहुलूहान होना पड़ा। जेल में बंद रहने के दौरान साईबाबा को खुद से ज्यादा अपने परिजनों की चिंता सताती थी। साईबाबा दिव्यांग हैं। विकलांगता निरंतर बढ़ती चली जा रही है। चलने-फिरने से एकदम लाचार हैं। व्हीलचेयर ही उनका एकमात्र सहारा है। उन्हें यह सच भी शूल की तरह चुभता है कि अपने देश में इंसाफ का चक्का बहुत धीमे चलता है। बेकसूरों को वर्षों तक न्याय पाने की राह देखनी पड़ती है। कुछ तो इंतजार करते-करते मौत के आगोश में समा जाते हैं। उन्हें आज भी 22 अगस्त, 2013 का वो दिन याद है जब उन्हें गड़चिरोली के अहेरी बस अड्डे से गिरफ्तार किया गया। दूसरे दिन के अखबारों में पहले पन्ने पर मोटे-मोटे अक्षरों में छपा था, ‘खतरनाक आतंकवादी’ खूंखार हत्यारे, नक्सलियों का साथी, प्रोफेसर जी.एन.साईबाबा बड़ी मुश्किल से पुलिस की पकड़ में आया। यह पढ़ा-लिखा शहरी नक्सली जंगल में रहने वाले देश के दुश्मन नक्सलियों से भी ज्यादा खतरनाक है। न्यूज चैनल वालों ने इस शहरी नक्सली को उम्र भर जेल में सड़ाने की पुरजोर मांग करते हुए देशवासियों से अपील की थी कि ऐसे हर देशद्रोही से सतर्क और सावधान रहें। तभी साईबाबा ने देखा और जाना था कि लोगों की निगाहों ने तुरंत उन्हें अपराधी मान लिया है। कल तक जो लोग इज्जत से पेश आते थे अब नफरत करने लगे थे। 

    कुछ दिन पहले मैंने पुरानी दिल्ली के रहने वाले मोहम्मद आमिर खान की आपबीती किसी अखबार में पढ़ी। इस युवक को आतंकवादी होने के झूठे आरोप में 14 वर्ष तक जेल में रहना पड़ा। उन्हीं की लिखी ‘आतंकवादी का फर्जी ठप्पा’ नामक किताब में व्यवस्था के अंधेपन को उजागर करने का साहस दिखाया गया है। आमिर तब लगभग अठारह वर्ष के थे जब बम विस्फोट और हत्या के लिए दोषी मानते हुए जेल में डाल दिया गया। पुलिस रिमांड में उन्हें अमाननीय यातनाएं दी गयीं। जो अपराध उन्होंने किया ही नहीं था उसे कबूलने के लिए जिस्म की हड्डी-हड्डी तोड़ी गई। किसी से मिलने नहीं दिया गया। पिता के गुजरने पर उन्हें सुपुर्द -ए-खाक भी नहीं कर पाए। यह वही पिता थे, जिन्होंने बेटे के इंसाफ के लिए अपना घर-बार तक बेच डाला था। जेल की काली कोठरी में अपनी जवानी को गला कर आमिर जब 14 साल बाद बाहर निकले तो पूरी दुनिया ही बदल चुकी थी। कई डरी -डरी निगाहें उन्हें ऐसे ताक रही थीं जैसे कोई जंगली जानवर शहर में जबरन घुस आया हो...।

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