Thursday, April 11, 2024

कुछ भी तो छिपा नहीं...

    रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या से टकराते अनेकों भारतवासी और भी कई कष्टों का सामना करने को विवश हैं। अपने ही देश में अपनी बेइज्जती और अवहेलना ने उन्हें निराश और बेआस कर दिया है। देश और दुनिया के जागरूक लोगों को कम ही यकीन होगा कि आजादी के इतने वर्षों के बाद भी करोड़ों भारतीय छुआ-छूत और भेदभाव की पीड़ा को भोग रहे हैं। अभी हाल ही में कुछ पत्रकारों ने मध्यप्रदेश, बिहार तथा उत्तरप्रदेश जैसे प्रदेशों के ग्रामीण इलाकों का दौरा कर जो जाना-समझा वो अत्यंत चिंतनीय होने के साथ-साथ शर्मनाक भी है। सक्षम लोगों की दुत्कार सहती दबे-कुचलों की भीड़ अपने हाथों में सवालों की तख्तियां लिये खड़ी है। उनकी अथाह पीड़ा शासकों के नीचे से लेकर ऊपर तक के विकास और बदलाव के दावों की पोल खोल देती है। देश के प्रदेशों में आज  कई गांव ऐसे हैं, जहां के दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता। मंदिर के पुजारी उनके यहां पूूजा-पाठ करने से मना कर देते हैं। कदम-कदम पर भेदभाव कर उन्हें नीचा दिखाया जाता है। जब उनके यहां शादी-ब्याह होता है तो रस्म अदायगी के लिए मंदिर में नारियल लेकर जाना होता है, लेकिन उनके लिए तो मंदिर में जाना ही मना है, इसलिए वे किसी दूसरे व्यक्ति को नारियल देते हैं जो अंदर जाकर नारियल चढ़ाता है। हल्दी और चावल को वे बाहर ही छिड़क हाथ जोड़कर वापस आ जाते हैं। 22 जनवरी को अयोध्या में श्रीराम मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह के बाद गांवों के मंदिरों में भंडारे लगाये गए। तथाकथित बड़े लोगों को एक साथ आदर-सम्मान के साथ बिठाया गया। दलित समाज के  लोगों को पूछा तक नहीं गया, जो थोड़े बहुत वहां पहुंचे, उन्हें अलग-थलग बिठा कर खिलाया गया। श्री राम तो सबके हैं। फिर भी दलितों को जो अहसास कराया गया, अपमान का कड़वा घूंट पिलाया गया उसे क्या वे आसानी से भुला पायेंगे? गांव के सरपंच, पंच और अन्य उपदेशक किस्म के चेहरे हमेशा की तरह अंधे और बहरे बने रहे। यह किसी एक गांव का काला सच नहीं। अनेक गांवों का चेहरा इसी कालिख से बदरंग है। इस इक्कीसवीं सदी में भी दलित महिलाओं को सार्वजनिक नलों से पानी लेने की मनाही बताती है कि जनप्रतिनिधियों तथा समाज सेवकों ने  महात्मा गांधी के विचारों का कितना अनुसरण किया है। बापू कहते थे भारत गांवों में बसता है। गांव ही देश की आत्मा है। अफसोस गांवों की यह दुर्दशा है! जब भी चुनाव आते हैं तब तो सभी दलों के नेता और कार्यकर्ता उनका हाल-चाल जानने के लिए दौड़े चले आते हैं। उन्हें गले लगाते हैं। उनके झोपड़ों में भोजन करते हैं। उनकी पीठ थपथपाते हुए कहते जाते हैं कि आधी रात को भी याद करोगे तो हमें अपने निकट पाओगे। हम सब एक हैं। भाई-भाई हैं, लेकिन जब चुनाव खत्म हो जाते हैं तो उन्हें अपना कहा याद नहीं रहता। चुनावों के वक्त लुभावने वादों के साथ जो सपने दिखाये जाते हैं वो भी धरे के धरे रह जाते हैं। खुद को दबे-कुचलों का रहनुमा दर्शाने वाले नेता सच को स्वीकार करने से कतराते हैं। उन्हें हकीकत से रू-ब-रू कराने वाले पत्रकारों पर भरोसा ही नहीं होता। वे बाबू जगजीवन राम, बहन मायावती, रामविलास पासवान जैसे आदि-आदि दलित नेताओं की तरक्की की गाथाएं सुनाते हुए कहने लगते हैं कि शीघ्र ही एक दिन ऐसा आयेगा जब हर दलित खुशहाल होगा तथा शासन-प्रशासन में उन्हीं का डंका बजेगा। उन्हें हर जगह विशेष प्रतिनिधित्व मिलेगा। सभी को उनकी सुननी होगी। आगे-पीछे की सारी कसर पूरी हो जाएगी। वे द्रौपदी मुर्मू का उदाहरण देने लगते हैं जो वर्तमान में भारतवर्ष की राष्ट्रपति हैं। उनसे जब कोई पूछता है कि देश में करोड़ों दलित और आदिवासी बदहाली के शिकार क्यों हैं? उन तक विकास क्यों नहीं पहुंचा? सभी सुख-सुविधाएं चंद लोगों तक क्यों सिमट कर रह गई हैं? अधिकांश लोग हताश और निराशा क्यों हैं? सही-सही जवाब देने के बजाय वे सवाल करने वाले को ही शंका की निगाह से देखते हुए निराशावादी घोषित करने लगते हैं। 

    देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू का विराजमान होना यकीनन गौरव की बात है, लेकिन यह भी सच है कि भारतीय राजनीति में अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की हिस्सेदारी नाम मात्र की है। वर्ष 2022 में द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति बनीं। इसके पीछे की राजनीति और रणनीति जानकारों से छिपी नहीं है। अपने देश में वोटों को हथियाने की राजनीति बड़े-बड़े चमत्कार करवाती रहती है। कौन नहीं जानता कि हिंदुस्तान में महिलाओं के लिए राजनीति की राहें कितनी-कितनी कांटों भरी हैं। एक महिला सामाजिक कार्यकर्ता, जिन्होंने कई जन-आंदोलनों का नेतृत्व किया। अन्याय से जूझते दबे-कुचले लोगों के अधिकारी के लिए वर्षोर्ें लड़ीं। जेल भी गईं। अपने शुभचिंतकों के अनुरोध पर विधानसभा का निर्दलीय चुनाव लड़ी, लेकिन बुरी तरह से पराजित हुईं। उन्होंने अंतत: यही निष्कर्ष निकाला कि चुनावों के समय जो पैसा फेंकता है, दारू पिलाता है, साड़ी, कम्बल बांटता है और झूठे वादे करता है, वही आसानी से जीत जाता है। लोग आज भी प्रलोभनों का शिकार हो जाते हैं। उनमें जागरुकता का अभाव है। वोट की अहमियत उन्हें नहीं मालूम। संसद तथा विधानसभाओं में नारियों को प्रतिनिधित्व दिलवाने के मामले में अधिकांश राजनीतिक दल  उत्साहित नजर नहीं आते। साधारण पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं की अनदेखी होती है। अधिकांश पुरुष महिलाओं को राजनीति में आने के लिए प्रेरित करना तो दूर उन्हें हतोत्साहित करते देखे जाते हैं। कई आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर भाग लेने वाली महिलाओं को चुनावी टिकट देने की बजाय राजनीतिक घरानों की महिलाओं को प्राथमिकता दी जाती है। योग्यता न होने पर भी देशवासियों ने लालू की राबड़ी देवी को विशाल प्रदेश बिहार की मुख्यमंत्री बनते देखा है। शातिर किस्म के राजनीतिक दलों के मुखियाओं को पढ़ी-लिखी महिलाओं की तुलना में अनपढ़ महिलाएं राजनीति और टिकट लिए उपयुक्त लगती हैं। पढ़ी-लिखी औरतें बहुत सवाल-जवाब करती हैं। अधिकारों की बात करती हैं, वक्त आने पर संघर्ष की राह चुनने से भी नहीं घबरातीं जबकि कम पढ़ी-लिखी औरतों का हां में हां मिलाने का गुण बड़ी आसानी से लोकसभा तथा विधानसभा का चुनावी टिकट दिलवाता है। अपवाद अपनी जगह, लेकिन खूबसूरती का जादू भी इस आदान-प्रदान के खेल में खूब गुल खिलाता है। 

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