Thursday, April 25, 2024

गलत और सही

    गले में फूलों की माला, हाथों में मेहंदी, शानदार लिबास और खुशी से दमकता चेहरा। मतदान केंद्र पर एक नवविवाहिता को देखकर मतदाता हैरत में थे। कुछ ही घण्टों के पश्चात इस सजी-धजी दुल्हन को बारातियों के साथ नोएडा रवाना होना था। उसे जैसे ही पता चला कि आज वोटिंग है तो वह मतदान केंद्र पर दौड़ी-दौड़ी चली आई। बड़े इत्मीनान से अपने मनपसंद प्रत्याशी को वोट देने के बाद वह अपने पिया संग ससुराल चल दी। घर में जवान पति की मृतक देह पड़ी थी। अंतिम संस्कार की तैयारियां चल रही थीं। रिश्तेदार तथा अड़ोसी-पड़ोसी गम में डूबे थे। कल तक जो चल-फिर रहा था, हंस बोल रहा था आज लाश बना पड़ा था। ऐसे अत्यंत दुखद समय में मृतक की पत्नी और मां अपने मतदान के दायित्व को निभाने के लिए जब मतदान केंद्र पर पहुंची तो सभी उनके समक्ष नतमस्तक हो गये।

    आंबेडकरवादी समाज सेविका 17 अप्रैल को अचानक चल बसीं। सात समंदर पार विदेश में रहने वाला बेटा दूसरे दिन रात तक घर आ पाया। 19 अप्रैल को मृतका का सुबह मोक्षधाम में अंतिम संस्कार किया गया। उसके तुरंत बाद पति ने मतदान केंद्र की राह पकड़ी और अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इस आदर्श भारतीय पति ने कहा कि उसने लोकतंत्र के महायज्ञ में अपने मत की आहूति देकर अपनी राष्ट्रप्रेमी पत्नी को सच्ची श्रद्धांजलि दी है...।

    लोकसभा चुनाव 2024 के पहले चरण में अनेकों युवाओं, महिलाओं तथा बुजुर्गों ने गर्मी की तपिश की बिना कोई चिंता और परवाह किए मतदान किया। दिव्यांगों तथा उम्रदराजों ने भी लोकतंत्र के महापर्व में अपनी सार्थक हिस्सेदारी निभायी, लेकिन कई मतदाता मतदान से दूर रहे। नागपुर जैसे पढ़े-लिखों के शहर में मात्र 56 प्रतिशत मतदान का होना कई सवाल खड़ा कर गया। गड़चिरोली लोकसभा क्षेत्र जो नक्सलियों का गढ़ कहलाता है,  वहां शहरी इलाकों से ज्यादा मतदान होना भी बहुत कुछ कह और बता गया। मतदान से कन्नी काटने वालों के अपने-अपने तर्क और बहाने हैं। यह वही लोग हैं, जो सत्ताधीशों, नेताओं, प्रशासन और सरकारी नीतियों पर उछल-उछलकर उंगलियां उठाते हैं। महंगाई, बेरोजगारी और अव्यवस्था पर भी रह-रहकर तीर चलाते हैं। किसने देश को तबाह किया और कौन सा नेता भारत का कायाकल्प कर सकता है इस पर जहां-तहां लंबी-चौड़ी भाषणबाजी करने वालों को वोट देने से ज्यादा छुट्टी मनाने में ज्यादा आनंद आता है। 

    इसमें दो मत नहीं कि इस बार के चुनावी माहौल में पहले सा रोमांच, उत्साह नज़र नहीं आ रहा हैं। 2014 में जो युवा मतदान के लिए उमड़ पड़े थे, मोदी... मोदी चिल्ला रहे थे, इस बार वे भी खास उत्साहित नहीं नज़र आ रहे। खाता-पीता मध्यवर्ग तथा उच्च वर्ग शुरू से ही मतदान के लिए बाहर निकलने से कतराता आया है। वह किस्मत और संबंधों का धनी है। जोड़-तोड़ की सभी सुख-सुविधाएं उसकी मुट्ठी में हैं। इसलिए वह अपने आप में मस्त है। झटके से रईस बने रईसों ने लोकतंत्र का सम्मान करना ही नहीं सीखा। शासन और प्रशासन मतदाताओं को जागृत करने के लिए सतत अभियान चलाता रहता है, लेकिन उस पर कम ही लोग ध्यान देते हैं। यह भी कम हैरानी की बात नहीं कि इस बार प्रशासन की लापरवाही की वजह से भी हजारों-हजारों मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में से गायब हो गये। नागपुर शहर के रविंद्र व मीनाक्षी बड़े जोशो-खरोश के साथ मतदान केंद्र पहुंचे तो उनका नाम ही नदारद था। दोनों के नाम ही बदल गये थे। पति रविंद्र का नाम अयूब खान तो पत्नी मीनाक्षी का नाम रजिया बेगम मिर्जा कर दिया गया था। दोनों ने पहचान पत्र व इपिक नंबर के आधार पर वोट डालने की बार-बार विनती की, लेकिन उन्हें निराश लौटना पड़ा। ऐसी पता नहीं कितनी भूलें और धांधलियां हुई होंगी। सभी घापे-घपले उजागर कहां हो पाते हैं। कम वोटिंग होने से उन प्रत्याशियों के चेहरों के रंग उड़ गये हैं, जिन्होंने चुनाव प्रचार में दिन-रात पसीना बहाया है। नोटों की थैलियां कुर्बान की हैं। पता नहीं कहां-कहां माथा टेका और नाक रगड़ी है। सत्ताधीशों के प्रति घोर अविश्वास तथा निराशा भी कम मतदान की वजह बनी। महिलाएं भी 2014 और 2019 की तरह मतदान करने नहीं पहुंचीं। उम्मीद से कम मतदान होने की और भी कई वजह बतायी-गिनायी जा रही हैं। अनेकों भारतीयों ने मान लिया है कि अपने देश के हालात जस-के-तस रहने वाले हैं। ज्यादा बदलाव की उम्मीद व्यर्थ है। बेरोजगारी के मारे करोड़ों युवा भी उम्मीद छोड़ चुके हैं। उन्हें बेहतरीन पुल, पुलिया, सड़कों, मेट्रो तथा वंदेभारत ट्रेनों की सौगात लुभा नहीं पायी। सच भी है... पहले रोजी-रोटी, घर-बार, स्वास्थ्य, शिक्षा और उसके बाद बुलेट ट्रेन और हवाई जहाज। बेरोजगारी और महंगाई ने करोड़ों देशवासियों की कमर तोड़ दी है, लेकिन कृपया यह भी याद रखें कि मतदान नहीं करने से आप वहीं के वहीं रह जाने वाले हैं। जिनसे आपको बदलाव की उम्मीद है उन्हें वोट जरूर करें। घूमने-फिरने, आराम करने के मौके तो रोज आएंगे, परंतु वोट देने और अपनी मनपसंद सरकार बनाने का अवसर तो पांच साल में सिर्फ एक ही बार मिलता-मिलाता है। गलती तो उन कुछ नेताओं की भी है, जो विषैले, बदजुबान और जबरदस्त अहंकारी हो गये हैं। जनता ने आंखें खोल रखी हैं। वह बहरी भी नहीं। सबकी सुनती है। सभी को तौलती है। बार-बार जांचती-परखती है। इसलिए राजनेताओं तथा शासकों को हिंदू-मुसलमान का राग गाने-बजाने से अब तो बाज आना ही चाहिए। उनकी सार्थक उपलब्धियां ही उन्हें वोट उपलब्ध करा सकती हैं। मतदाताओं को भटकाने और बरगलाने से तो वे खुद तमाशा बनकर रह जाने वाले हैं। यदि कोई मंत्री पुत्र किसी विशेष धर्म के चुनिंदा चेहरों के लिए आयोजित चुनावी सभा में यह कहने को मजबूर होता है कि आपसी सद्भाव के दुश्मनों को नहीं मेरे पिता के जनहित के विकास कार्यों के इतिहास को देखकर वोट दें, तो इसमें गलत क्या है?

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