Thursday, July 8, 2010

अर्थहीन हो गये घिसे-पिटे आंदोलन

जब से भारत देश आजाद हुआ है तब से लेकर आज तक हजारों 'बंद' और 'हडतालें' हो चुकी हैं पर आम जन का जीना हराम करती समस्याएं घटने के बजाय बढी ही हैं। फिर भी नेताओं को चैन नहीं मिलता। बेचारे परेशान हो उठते हैं। पर अब लोग भी सतर्क और समझदार हो गये हैं और सवाल दागने लगे हैं कि अगर भारत बंद या प्रदेश बंद करने से समस्याएं सुलझ जातीं तो आज भारत देश पूरी तरह से समस्या मुक्त होता। पर यहां तो समस्याओं का अंबार लगा है! जैसे-जैसे नेताओं की नकारा फौज बढती चली जा रही है वैसे-वैसे समस्याएं भी बढती चली जा रही हैं। नेताओं को तो एक तरह से रोजगार मिलता चला आ रहा है पर मरण तो उस आम जन का हो रहा है जिसके लिये यह सारे तमाशे किये जाते हैं। यह अपना भारत देश ही है जहां पर नेता भी भारत बंद करवाते हैं और नक्सली भी! गजब का लोकतंत्र है।हम यह तो नहीं कहते कि हडतालें और बंद का आयोजन करना गलत है। लोकतंत्र में जनता को सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने का संवैधानिक अधिकार मिला हुआ है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी अपनी बात मनवाने के लिए अि‍हंसक आंदोलन को जायज बताया था, परंतु ि‍हंदुस्तान में गांधी के बताये मार्ग पर नेता कितना चलते हैं यह सबको खबर है। यही वजह है कि जब नेता जनता के हित की दुहाई देकर सडक पर उतरते हैं तो लोगों के दिल में तसल्ली के बजाय शंकाएं ही होती हैं। बीते सप्ताह महंगाई के खिलाफ भारत बंद का आयोजन किया गया। इस बंद में देश की लगभग सभी विपक्षी पार्टियां शामिल हुई। यह भी कह सकते हैं कि विपक्षी दलों ने एकता का जमकर प्रदर्शन किया। पहले ऐसे एकता के प्रदर्शन लोगों में यह आशा जगाते थे कि इनसे देश का भला होगा। पर अब ऐसा नहीं होता। जनता ने देख-समझ लिया है कि यह एकता सत्ता पाने के लिए किया गया ढोंग है, छलावा है, और कुछ नहीं। इतिहास गवाह है कि हडतालें और बंद के आयोजन राजनैतिक दलों के लिए तो सत्ता तक पहुंचने के मार्ग खोल देते हैं पर आम आदमी को कुछ भी हासिल नहीं होता। नेता जानते हैं कि विरोध की राजनीति करेंगे तो मजबूत होंगे। उन्हें अगर आम जन की बेहतरी से कोई लेना-देना होता तो देश के इस कदर बदतर हालात न होते। देश का अस्सी प्रतिशत धन आज राजनेताओं, नौकरशाहों और उनके पाले-पोसे उद्योगपतियों की तिजोरियों में कराह रहा है और लोग महंगाई की मार से त्रस्त हैं। देश की बदहाल जनता को गेहूं, चावल, दाल से लेकर रसोई गैस, कैरोसिन आइल, डीजल पेट्रोल, की कीमतों में अनाप-शनाप बढोत्तरी का बेतहाशा बोझ जबरन सहना पड रहा है। आसमान छूती महंगाई से नेताओं और धनपतियों को कोई फर्क नहीं पडता। वे तो जश्न मनाते हैं जब महंगाई का पारा ऊपर चढता है। ये मुखौटेबाज लोगों के समक्ष रोती सूरत बना लेते हैं कि उन्हें जनता की तकलीफों ने बेहद आहत कर रखा है पर अंदर ही अंदर लड्डू फूटते रहते हैं। दरअसल आहत तो वे लोग होते हैं जो 'बंद' के तमाशों की मार झेलते हैं। ट्रेनों और बसों के रद्द होने, उनकी तोड-फोड करने, आग के हवाले करने से तकलीफें नेताओं की नहीं आम लोगों की ही बढती हैं। बुरी तरह से मरण उन गरीबों का होता है जो रोज मजदूरी कर अपना और घर परिवार का पेट भरते हैं। और भी न जाने कितनी अडचनों और तकलीफों का सामना करना पडता है उस आम आदमी को जिसके तथाकथित कल्याण के लिए भारत बंद जैसे अर्थहीन आंदोलन होते हैं।जब इस तरह के स्वार्थ भरे बंद और आंदोलनों के खिलाफ यह कलम चलती है तो कई राजनीति के धुरंधर हमसे खफा हो जाते हैं। वे सवाल करते हैं कि गांधी के देश में आंदोलन के अलावा और कौन-सा रास्ता हो सकता है जिस पर चलकर बहरी सरकार के कान तक जनता की आवाज पहुंचायी जाए? इसका जवाब पहले भी दिया जा चुका है कि गांधी ने ि‍हंसा का मार्ग अपनाने की सीख तो दी ही नहीं थी फिर आगजनी ि‍हंसा, लूटमार के साथ-साथ लाखों लोगों को बेबस कर उनका रोजगार छीन लेने वाले घिसे-पिटे आंदोलन क्यों? यदि बंद से समस्याएं हल हो सकतीं तो आज देश में कोई समस्या ही नहीं होती। मन में अक्सर एक विचार यह भी आता है कि आम जनता को बंद में झोंक देने वाले विभिन्न पार्टियों के नेता बहरी-गूंगी और सोयी हुई सरकार को जगाने के लिए गांधी के सुझाये मार्ग का अनुसरण कर खुद सच्ची भूख हडताल का सहारा क्यों नहीं लेते? भूख हडताल के कारण यदि पांच-दस नेताओं को अपने प्राण भी गंवाने पडे तो भी उनका मान-सम्मान बढेगा। उनकी भावी पीढी का भाग्य चमक जायेगा। पार्टी की छवि भी चमकेगी। जनता धडाधड वोट देगी और सत्ता तक पहुंचना एकदम आसान हो जायेगा।

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