Thursday, July 1, 2010
यही सच है...
जमाना कितना भी बदल गया हो पर एक सच्चाई अपनी जगह पर डटी हुई है। शरीफ लोग पुलिस वालों की छाया से भी दूर रहना चाहते हैं। यदि बदकिस्मती से किसी शरीफ का खाकी वर्दी वाले से पाला पड जाए तो वह अपनी जेब हल्की कर उसके चंगुल से बचकर खिसक जाने में ही अपनी भलाई समझता है। इसलिए तो यह भी कहा जाता है कि खाकी से भगवान बचाये रखे। दरअसल हिन्दुस्तान की पुलिस की छवि ही कुछ ऐसी है कि आम जन उससे खौफ खाते हैं। बिगडे नवाबों, गुंडे बदमाशों, नेताओं, बलात्कारियों लूटेरों, हत्यारों को सहलाने वाली पुलिस में कर्तव्यनिष्ठ चेहरों का नितांत अभाव है। जिन लोगों का कभी भूले से पुलिस वालों से वास्ता पडता है वे इसकी असलियत बताने से भी नहीं चूकते। पर ऐसा कम ही देखने में आया है कि किसी पुलिस वाले ने ही पुलिस के काले सच का चेहरा उजागर करने का साहस दिखाया हो। न जाने कितने खाकी वर्दी वाले ऐसे भी होंगे जिनका पुलिस महकमें में रहकर दम घुटता होगा। तय है कि उन्हें अंधरेगर्दी, अराजकता, गुंडागर्दी और भ्रष्टाचार का वो वातावरण रास नहीं आता होगा जो वर्षों से भारतीय पुलिस का अंग बन चुका है। अपना घर-परिवार चलाने की मजबूरी के चलते पुलिस विभाग के खूंटे से जबरन बंधे रहने वालों की भीड में से बाहर निकलने का साहस दिखाना यकीनन कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। यहां हम योगेश प्रताप िसंह का जिक्र कर रहे हैं जिन्होंने लगभग छह वर्ष पूर्व भारतीय पुलिस सेवा की नौकरी को लात मार कर किनारा कर लिया था। सन १९८५ बैच के इस आईपीएस अधिकारी को पुलिस विभाग में व्याप्त भर्राशाही, अंधेरगर्दी, भ्रष्टाचार और राजनेताओं की दखलअंदाजी ने इस कदर बेचैन और आहत कर डाला कि उनका दम घुटने लगा था। उन्होंने देश की सेवा के लिए संविधान की रक्षा की शपथ ली थी। पर यहां तो शपथ का ही उपहास उ‹डाया जा रहा था। कानून के रखवाले कानून की धज्जियां उडा रहे थे। योगेश प्रताप िसंह जिन सपनों को पूरा करने के लिए पुलिस में भर्ती हुए थे उन्हें टूटने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। वे किसी भी हालत में स्वयं को उन वर्दीवालों में शामिल नहीं कर पाये जिन्होंने हालातों से समझौता कर अपनी खुद्दारी का गला तक घोटकर रख दिया था। उसी दौर में उन्होंने एक उपन्यास लिखा जिसमें महाराष्ट्र के नेताओं, मंत्रियों, पुलिस अधिकारियों और माफियाओं के शर्मनाक गठजोड का ऐसा स्पष्ट खुलासा किया कि सत्ता और नौकरशाहों के गलियारों में खलबली मच गयी। कई कफनचोर पुलिसिये बौखला उठे। ऐसा होना जायज भी था क्योंकि सच बेहद कडवा होता है। उसकी कडवाहट और चुभन तब और भी विषैली हो जाती है जब अपने ही बीच का कोई साथी खडा हो जाता है और सच कहने का अभूतपूर्व साहस कर गुजरता है।हां यह योगेश प्रताप सिंह का साहस ही था कि उन्होंने बेखौफ होकर लोगों को बताया कि ऊपर से कडक और दबंग दिखने वाले अधिकांश पुलिस अधिकारी सफेदपोश नेताओं के हाथों के खिलौने भर हैं। मंत्री इन्हें जैसा नचाते हैं यह वैसा ही नाचते हैं। कानून-वानून से इन्हें कोई लेना-देना नहीं है। पुलिस की नौकरी पाने से लेकर मनचाहा थाना हथियाने तक के लिए बोलियां लगती हैं। जो जितनी मोटी थैली मंत्रीजी के चरणों में चढाता है वो उतना ही बडा पद आसानी से पा जाता है। ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की पुलिस विभाग में कोई कद्र नहीं है। बडे अफसरों और राजनेताओं के इशारों पर नाचने वाले पुलिस वालों को तरक्की पर तरक्की मिलती चली जाती है। योगेश प्रताप सिंह ने खाकी वर्दी पहनने के साथ ही कसम खायी थी कि चाहे कुछ भी हो जाए वे रिश्वत नहीं लेंगे। भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी को कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे। उनकी यही जिद उनकी तरक्की में बाधा बनती रही। वे जब धन लेते ही नहीं थे तो देते कहां से? ऐसे में उन्हें नालायक मान लिया गया और उनकी अवहेलना की जाने लगी। मंत्रीजी की कृपा से उनके साथ के आईपीएस अधिकारी आईजी बना दिये गये और उन्हें प्रमोशन से कोसों दूर रखा गया। इसी पुलिस विभाग में जैसे-तैसे लगभग बीस वर्ष तक काम करते-करते उन्हें कुछ इस तरह के झटके भी झेलने पडे कि जिस अफसर के खिलाफ उन्होंने जांच की और दोषी पाया उसी को ऊपर वालों की मेहरबानी से उनका बॉस बना दिया गया। जिन अराजक तत्वों, अपराधियों और माफियाओं को उन्होंने सरे बाजार पीटा और हथकडियां पहनायीं वही कालांतर में नेता का चोला पहनकर विधायक, सांसद और मंत्री बने। ऐसे काले-कलूटे अतीतधारियों को सलाम ठोकना और जी हजूरी करना इस जिंदादिल शख्स के उसूल के खिलाफ था। ऐसे में एक स्वाभिमानी इंसान को जो रास्ता चुनना चाहिए वही योगेश प्रताप सिंह ने भी चुना। उन्होंने जब इस्तीफा दिया था तब मैंने यह लिखा था कि 'योगेश प्रताप सिंह का पुलिस की नौकरी को लात मारना एक तरह से पलायन भी है। यह पलायन उन धनपशुओं का मनोबल बढायेगा जिन्होंने पुलिस महकमे को रंडी के कोठे से भी बदतर बनाने का गुनाह किया है। सिंह जैसे लोग ही इस सडी-गली व्यवस्था को बदल सकते हैं। महाराष्ट्र के वर्तमान मुख्यमंत्री और गृहमंत्री यदि प्रदेश के पुलिस विभाग में ऊपर से नीचे तक बदलाव लाना चाहते हैं तो उन्हें इस अफसर के दर्द को समझने, में जरा भी देरी नहीं करनी चाहिए।' पर यहां पर सुधार लाने और किसी की पीडा को जानने की किसे पडी है। शासकों से तो ऐसी उम्मीद करना ही बेकार है। नौकरी छोडने के बाद योगेश प्रताप ने निष्क्रियता का चोला नहीं ओडा। आम आदमी की लडाई लडाने के लिए वे वकालत के मैदान में कूद पडे। उन्होंने मुम्बई हाई कोर्ट में प्रेक्टिस करते हुए आम नागरिकों के हित के लिए लगातार याचिकाएं दाखिल करते हुए वो नाम और सम्मान कमाया है जो पुलिस में रहकर तो कतई संभव नहीं था। उनकी याचिकाओं पर हुए फैसलों के चलते कई बार महाराष्ट्र सरकार को अपने फैसले बदलने पर विवश होना पडा है। हां उनसे मुम्बई के बिल्डर, भूमाफिया और अराजकतत्व खासे खफा रहते हैं। पर उन्हें कल की तरह आज भी किसी की परवाह नहीं है। वे इन दिनों एक फिल्म भी बना रहे हैं। जिसमें वही दिखाने जा रहे हैं जो उन्होंने पुलिस की नौकरी के दौरान देखा, भोगा और जाना। फिल्म में एक दृश्य में एक नये आईपीएस अफसर को एक हवलदार की ईमानदारी से प्रभावित होकर कभी भी रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार न करने की प्रतिज्ञा लेते हुए दिखाया गया है। वहीं दूसरी और एक भ्रष्ट और चाटूकार कमिश्नर को अपना कार्यकाल बढवाने के लिए गृहमंत्री के चरणों में गिडगिडाते हुए दिखाने के साथ-साथ एक मंत्री के माफियाओं के साथ करीबी रिश्तों का भी फिल्म में खुलकर खुलासा किया गया है। यह मंत्री महोदय वर्तमान में भी महाराष्ट्र सरकार में शामिल हैं। तय है कि इस फिल्म के प्रदर्शन को रोकने के लिए बडी ताकतें जोर लगायेंगी। पर योगेश प्रताप सिंह ऐसी-वैसी मिट्टी के नहीं बने हैं कि हार मान लें और चुपचाप बैठ जाएं...। हां योगेश प्रताप सिंह जो फिल्म बना रहे हैं उसका नाम है 'यही सच है...।'
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dekhate hai, filmkitani jeevant banti hai.
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