Thursday, September 30, 2010
बाहुबलियों को सबक सिखाने का सही व़क्त
यह अच्छा ही हुआ है कि देश की राजनीति के सुपर दलाल अमर सिंह और मसखरे लालू प्रसाद यादव की डुगडुगी बजनी काफी कम हो गयी है। ऐसे लोगों का हाशिये में चले जाना ही देशहित में है। हाशिये में होने के बावजूद भी अमर सिंह और लालू प्रसाद बेचैन हैं। अपनी करनी पर चिंतन करने के बजाय दूसरों को दोष देने में लगे हैं। अमर तो दार्शनिक की मुद्रा में आ गये हैं। उन्हें अब जाकर पता चला है कि यह दुनिया स्वार्थियों से भरी पडी है। उन्होंने जिनका मुश्किलों में साथ दिया वो आज उनसे कन्नी काट रहे हैं। अपने जर्जर शरीर के साथ जीवन की आखिरी राजनीतिक जंग लड रहे अमर का बडबोलापन भी अब गायब हो चुका है। पर लालू हार कर भी हारने को तैयार नहीं हैं। कभी अपनी पत्नी राबडी देवी को जबरन बिहार की मुख्यमंत्री बनवा कर अपनी दुकानदारी चला चुके लालू महाराज अब अपने लाडले को राजनीति में स्थापित करने के फेर में हैं। उनका मानना है कि उनका छोकरा बडे-बडों की छुट्टी कर देने का दम रखता है। राहुल, वरुण आदि उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। लालू को लग रहा था कि वे जैसे ही अपने घर के चिराग के राजनीतिक प्रवेश की घोषणा करेंगे वैसे ही पूरे बिहार का वातावरण लालूमय हो जायेगा। पर इस बार तो वो हो गया जिसकी कल्पना लालू ने शायद ही कभी की हो। बाप ने जैसे ही बेटे की राजनीति में प्रवेश की औपचारिक घोषणा की, युवा समर्थकों का खून खौल उठा। उन्होंने बिना कोई लिहाज किये पार्टी के कार्यालय के सामने ही लालू का पुतला जला डाला। अपना पुतला जलाये जाने का मतलब लालू न समझे हों ऐसा तो हो ही नहीं सकता। लालू को तो यकीन था कि जिस तरह से उन्होंने अपनी अनपढ गंवार राबडी को जबरन राजनीति में लाकर बिहार की मुख्यमंत्री बनाया था और उनके समर्थक बिना किसी विरोध के तालियों के साथ स्वागत करते नजर आये थे इस बार भी वैसा ही होगा। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री यह तथ्य भुला बैठे कि आज के युवा उनकी चाल बाजियों का शिकार होने को कतई राजी नहीं हो सकते। अपने दो सालों को विधायक व सांसद बनाने में सफल रहे इस जोकर नेता का दिमाग जरूर ठिकाने लग गया होगा। उन्हें अपनी राजनीतिक औकात का भी पता चल गया होगा। बिहार में लालू का पुतला फूंका जाना यह बताता है कि वहां के युवा लकीर के फकीर बनने को तैयार नहीं हैं। बिहार में शीघ्र ही विधानसभा चुनाव होने हैं। देखने-सुनने और पढने में आ रहा है कि इस बार भी कई बाहुबली अपनी किस्मत आजमाने के लिए कमर कस चुके हैं। पप्पू यादव, साधु यादव, ददन पहलवान, मो. शहाबुद्दीन और तस्लीमुद्दीन जैसे कालिख पुते चेहरों की जमात के गुंडे बदमाशनुमा नेता विभिन्न पार्टियों की टिकट पाने के लिए कतार में लग चुके हैं। बाहुबलिया को प्रश्रय देने में लालू प्रसाद का तो कोई सानी नहीं है परंतु सुशासन का दावा करने वाले मुख्यमंत्री नीतीशकुमार का भी बाहुबलियों से पिंड छुडा पाना आसान नहीं है। जो लोग बिहार की राजनीति से गहरे तक वाकिफ हैं उनका कहना है कि बिहार की समूची राजनीति ही बाहुबलियों और अराजक तत्वों के इर्द-गिर्द घूमती है। देखा जाए तो यह बिहार के माथे का ऐसा कलंक है जिसे मिटाये बिना गौतम बुद्ध, महावीर और महात्मा गांधी के विचारों को अपना आदर्श मानने वाले प्रदेश का कल्याण नहीं हो सकता। यह काम भी बिहार के युवाओं को ही करना है और इसके लिए विधानसभा चुनावों से उपयुक्त भला और कौन-सा वक्त हो सकता है...।
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