अपनी असहमति और नाराज़गी प्रकट करने के लिए संवाद से बढकर और कोई बेहतर रास्ता नहीं हो सकता। पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो यह तय कर लेते हैं कि हम सही हैं और दूसरे गलत हैं और वे संवाद के बजाय अप्रिय और अराजक वारदातों को अंजाम देने लगते हैं। मर्यादाहीन हो जाते हैं। अब इन नक्सलियों की बात करें तो इस देश में ऐसे कम ही लोग होंगे जो इनकी हिंसक वारदातों को सही ठहराते हों। पर नक्सलियों को लगता है कि वे लूटपाट और मार-काट के जिस रास्ते पर चल रहे हैं वो सही है। उन्हें यह दर्द भी सताता है कि सरकारें उनकी पीडा को नहीं समझतीं। प्रशासन भी उनके साथ अन्याय करता है। उन्हें कहीं से भी न्याय नहीं मिलता इसलिए वे अपने तरीके से अपनी लडाई लड रहे हैं। नक्सलियों को विभिन्न सरकारी नुमाइंदों, व्यापारियों, राजनेताओं, पूंजीपतियों और समाज सेवकों में सिर्फ 'शोषक' का चेहरा ही नजर आता है! नक्सली देश के तमाम मीडिया से भी नाखुश हैं। हाल ही में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के द्वारा विभिन्न दैनिक समाचार पत्रों के कार्यालय में एक पर्चा भेजा गया है। इस पर्चे में 'पूंजीवादी मीडिया की साम्राज्यवादी लुटेरों से साठगांठ' शीर्षक के अंतर्गत जो भडास निकाली गयी है और बौखलाहट दर्शायी गयी है उसे आप भी पढ और जान लें:''महाराष्ट्र, उडीसा, छत्तीसगढ और झारखंड में सरकारें बडे पूंजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफे के लिए स्थानीय आदिवासियों का दमन और शोषण कर रही हैं। टाटा, जिंदल, मित्तल और पोस्को जैसे बडे पूंजीपतियों और विदेशी कंपनियों के मुनाफे के लिए आदिवासियों को उजाडने या मार डालने की साजिश में अखबार भी इन साम्राज्यवादियों का साथ दे रहे हैं। इन अखबारों के मालिक घोर पूंजीपति हैं और इनके यहां काम करने वाले सम्पादक और पत्रकार कुत्ते हैं।''
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महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में कुछ बस्तियां ऐसी हैं जहां गंदगी का साम्राज्य रहता है। बरसात में तो साफ-सफाई लगभग नदारद हो जाती है। ऐसे में जनसेवकों और नेताओं का जागना और रोष व्यक्त करना जायज है। लेकिन बीते सप्ताह शिवसेना के कुछ कार्यकर्ताओं ने शहर में फैली गंदगी और उससे पनपती बीमारियों को लेकर अपना रोष जताने का तरीका ही बदल डाला। महानगर पालिका की लापरवाही के प्रति शहरवासियों में भी खासा रोष था। पर शिवसेना वाले अपना रोष व्यक्त करने के लिए जब मनपा के अधिकारी रिजवान सिद्घिकी के केबिन में पहुंचे तो उनके हाथ में सुअर का एक छोटा-सा बच्चा था। उन्होंने सुअर के बच्चे को सिद्धिकी की टेबल पर रखकर जिस तरह से नारेबाजी की उससे वहां का वातावरण तनावपूर्ण हो गया। यह तनाव महानगर पालिका तक ही सीमित नहीं रहा। इससे निश्चय ही मुस्लिम समाज की भावनाएं भी आहत हुए बिना नहीं रहीं। यह तो अच्छा हुआ कि साम्रदायिक सौहाद्र्र में रचे-बसे शहर के वातावरण को सजग और जागरूक नागरिकों ने बिगडने नहीं दिया लेकिन खतरा तो पैदा कर ही दिया गया था...।
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३१ अगस्त २०१०, दोपहर का वक्त। गोंदिया पंचायत समिति भवन के सभागृह में मीटिंग का दौर चल रहा था। इस मीटिंग में एक महिला कर्मचारी भी शामिल थीं। मधुकर डी.खोब्रागडे नामक अधिकारी पर इस महिला को देखते ही सेक्स का भूत सवार हो गया और उसने महिला को धर दबोचा। बेचारी महिला हक्की-बक्की रह गयी पर अधिकारी ने मर्यादा की सभी सीमाओं को लांघते हुए उसके होंठों को अपने मुंह में दबोच लिया ओर मुंह में रखे गुटखे को उसके मुंह में डालने की निर्लज्ज और घिनौनी हरकत कर डाली। अधिकारी की उम्र साठ वर्ष और महिला कर्मचारी की उम्र चालीस वर्ष के आसपास है। महिला की आबरू लूटने वाला अधिकारी दलित जाति का है और महिला सुवर्ण जाति की। अगर यह मामला उलटा होता तो न जाने कितना हंगामा बरपा हो जाता...। हुडदंगी आसमान सिर पर उठा लेते। वैसे भी इस घटना ने इस तथ्य को फिर से पुख्ता कर दिया है कि हमारे यहां सरकारी नौकरी बजाने वाली महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं और पुरुष कितने बेलगाम। उन्हें किसी मर्यादा और कानून-कायदे का डर नहीं है...।
Thursday, September 2, 2010
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