Thursday, December 23, 2010

कब तक मूकदर्शक बने रहेंगे नरेंद्र मोदी?

आज से तीस वर्ष पहले तक कांग्रेस ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर अपना एकाधिकार समझती थी। पर इधर के कुछ वर्षों से देश की दीगर राजनीतिक पार्टियां भी इस राष्ट्रीय संत के प्रति अपना अधिकार और जुडाव दर्शाने लगी हैं। दरअसल उनका भी इस हकीकत से साक्षात्कार हो गया है कि अगर देशभर के मतदाताओं के दिल में जगह बनानी है तो महात्मा गांधी के नाम का सहारा लेना ही होगा। कांग्रेस ने गांधी के नाम को भुना कर वर्षों तक देश और प्रदेशों में भरपूर सत्ता-सुख भोगा है। जब भाजपा जैसी पार्टियां गांधी के नाम की माला जपती हैं तो कांग्रेस अंदर ही अंदर कसमसा कर रह जाती है, पर कुछ कह और कर नहीं पाती। यह कांग्रेस ही है जिसने राष्ट्रपिता के नाम को अमर रखने के लिए क्या-क्या नहीं किया। देश भर में उनके नाम पर असंख्य अस्पताल, स्कूल-कॉलेज खुलवाये। बाग-बगीचों और चौक-चौराहों का नामकरण भी किया। दरअसल कांग्रेस ने यह सब कुछ अपना वोट बैंक बढाने के लिए किया। देश की अन्य राजनीतिक पार्टियां अंधी नहीं हैं। कांग्रेस का गणित समझने में उन्हें ज्यादा देरी नहीं लगी। वे भी महात्मा गांधी के नाम की माला जपने लगीं। यह सिलसिला अब हर कहीं उफान पर है। पर गांधी के नाम का जितना फायदा कांग्रेस को मिला उतना और किसी अन्य पार्टी के नसीब में नहीं आया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तमाम नशों के खिलाफ थे। उनका मानना था कि शराब इंसान की बरबादी की असली जड है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई सच्चे गांधीवादी थे इसलिए उन्होंने गुजरात में नशाबंदी को अमलीजामा पहनाया। इसके पीछे उनका यह उद्देश्य भी था कि बापू की जन्म स्थली गुजरात नशों और नशेडि‍यों से मुक्त रहे। यह एक तरह से उनकी तरफ से गांधी बाबा को एक श्रद्धांजलि थी और देश की जनता को संदेश भी था कि सच्चे कांग्रेसी अहसान फरामोश नहीं होते। गुजरात में नशाबंदी लागू हुए वर्षों बीत गये। मोरारजी देसाई जैसे गांधीवादी भी नहीं रहे। नकलियों और नकलचियों की अच्छी खासी जमात ने कांग्रेस पर कब्जा जमा लिया। पर सवाल यह भी उठता है कि क्या वास्तव में गुजरात में दारू बंदी के अभियान को पूरी तरह से सफलता मिल पायी? क्या बापू की जन्म स्थली में शराब नहीं मिलती और बिकती? इन पंक्तियों के लेखक ने बीते सप्ताह अहमदाबाद और सूरत में कुछ दिन के प्रवास के दौरान जो नजारा देखा उससे स्पष्ट हो गया है कि गुजरात में दारू बंदी महज ढकोसला है। नेताओं और नौकरशाहों की जेबों को लबालब करने वाला सहज उपलब्ध माध्यम है।यह भी कडवा सच है कि औद्योगिक और व्यापारिक नगरी सूरत में जिस तरह से खुलेआम शराब बिकती है उससे शासन और प्रशासन का चेहरा बेनकाब हो जाता है। इस शहर के गोलवाड इलाके में चौबीस घंटे शराब बिकती है। मुख्य सडक से जुडी गलियों में सैकडों घर 'बार' में तब्दील हो चुके हैं। शराब के शौकीन जैसे ही यहां प्रवेश करते हैं शराब बेचने वाले चेहरे उन्हें निमंत्रण देने लगते हैं। दरअसल इन लोगों ने अपने-अपने घरों में विभिन्न किस्म की शराब तथा बीयर के साथ सोडा और नमकीन आदि की भरपूर व्यवस्था की हुई होती है। महिलाएं भी साकी का रोल निभाती देखी जाती हैं। इन गलियों में उन ठेलों की भरमार रहती है जहां पर अंडे, आमलेट और अन्य मांसाहारी खान-पान का प्रबंध रहता है। भीड इतनी अधिक रहती है कि सडक पर चलना भी मुश्किल हो जाता है। बडे ही सुनियोजित तरीके से वर्षों से चले आ रहे ड्राई प्रदेश में अवैध शराब के इस धंधे पर किसी भी सरकार ने अंकुश लगाने की पहल नहीं की! बताते हैं कि कई पुराने और नये नेता इसी धंधे की बदौलत आबाद हैं। उनकी राजनीति की दुकान की बरकत बनी हुई है। पुलिस वाले भी यहां आते हैं। अपना काम कर निकल जाते हैं। वैसे बताने वाले यह भी बताते हैं कि अधिकांश पुलिस वाले यहां दस्तक देने में घबराते हैं। पुरानों ने यहां पर अपनी धाक जमा रखी है। यही हाल पत्रकारों का भी है। अवैध शराब बेचने वालों में प्रतिस्पर्धा भी चलती रहती है। मार-काट भी होती रहती है। हाल ही में एक शख्स को मौत के घाट उतार दिया गया।जिस तरह से सूरत के गोलवाड में चौबीस घंटे खुलेआम शराब मिल जाती है, वैसे ही हाल लगभग पूरे गुजरात के हैं। बाहर से आने वाले व्यापारी यहां की चखने के बाद बडी शान से अपने शहरों में जाकर बताते हैं कि कहने को तो गांधी के गुजरात में शराब पर पाबंदी हैं, पर ब्लैक में जितनी चाहो उतनी ले लो...। शासन और प्रशासन की नाक काटती यह शराब मंडी इतनी अधिक प्रचारित हो चुकी है कि दूसरे प्रदेशों से आने वाले व्यापारियों को इधर-उधर दिमाग खपाने की जरूरत नहीं पडती। सूरत और अहमदाबाद में प्रति दिन लाखों कपडे और हीरे के व्यापारी आते हैं। स्थानीय व्यापारियों की भी बहुत बडी संख्या है जिनकी रात शराब के बिना नहीं कटती। जानकारों का कहना है कि सूरत, अहमदाबाद जैसे महानगरों में ही इतनी अवैध शराब बिकती है, जिसका साल भर का आंकडा अरबों-खरबों में है। दमन भी करीब है, जहां से बेहिसाब शराब ट्रकों, जीपों और अन्य वाहनों में भरकर लायी जाती है और गुजरात के कोने-कोने में पहुंचायी जाती है। कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी ने इस अरबों-खरबों के अवैध धंधे को रोकने के प्रयास किये थे, पर उन्हें भी अपने हाथ वापिस खींच लेने पडे। उन्हीं की पार्टी के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और मंत्रियों के तार इस गोरखधंधे के खिलाडि‍यों से अंदर तक वर्षों से जुडे हैं। कई नये-पुराने कांग्रेस के खिलाडी भी बहती गंगा में हाथ धोते चले आ रहे हैं। चुनाव लडने और दीगर शौक-पानी पूरे करने के लिए नेताओं और गुंडे-बदमाशों के लिए तो यह सदाबहार बैंक है, जहां से वे जब चाहें माल वसूल सकते हैं। ऐसे में अब, जब मोदी तीसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री बन गये हैं, तब उनसे यह आशा तो की जा रही है वे गुजरात के माथे पर लगे इस कलंक को धोने की हिम्मत दिखाएं। शराब बंदी के ढोंग के ढोल की चीरफाड कर कोई ऐसा कदम उठायें कि अभी तक जो अथाह धन राशि नेताओं, नौकरशाहों और माफियाओं की तिजोरी में जाती रही है, वह शासन के खाते में जमा हो। वैसे भी अब गुजरात में शराब बंदी के क्या मायने हैं? जब बंदी होने के बाद भी धडल्ले से शराब बिकती चली आ रही है, तो 'शराब बंदी' के इस ढोंग को बरकरार रखने का कोई तुक नहीं दिखता। यह भी तय है कि मोदी जब गुजरात से शराब बंदी हटाने का ऐलान करेंगे, तो तूफान उठेगा कि यह तो बापू का सरासर निरादर है। महात्मा गांधी का निरादर करने वाले ही ज्यादा शोर मचायेंगे। सौदागर किस्म के राजनीतिज्ञों का असली धर्म-कर्म ही यही है। वैसे भी यह पूरा देश महात्मा गांधी की कर्मस्थली रहा है। जब पूरे देश में शराब बिकती है और हर प्रदेश की तिजोरी में अरबों-खरबों रुपये का राजस्व जमा होता है तो फिर गुजरात क्यों वंचित रहे? गुजरात के मुख्यमंत्री के लिए यह अग्नि परीक्षा है। उनके पास दो ही रास्ते हैं या तो गुजरात में शराब पर पूरी तरह से पाबंदी लगवायें या फिर दूसरे प्रदेशों की तरह वैध शराब बिकने के रास्ते खोल दें। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि नरेंद्र मोदी को इस सारे गोरखधंधे की जानकारी न हो। गुजरात में धडल्ले से अवैध शराब का मिलना और बिकना एक तरह से उस नरेंद्र मोदी के माथे पर कलंक है जो ईमानदारी से प्रदेश के विकास में लगे हुए हैं। क्या नरेंद्र मोदी इस कलंक को नहीं धोना चाहेंगे?

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