Thursday, December 16, 2010

हुक्मरानों की मक्कारी

अक्ल के अंधों को भले ही हकीकत समझ में न आ रही हो पर भारत वर्ष का हर सजग नागरिक देख और समझ रहा है कि लोकतंत्र की जडों को खोखला करने और उसमें तेजाब डालने वाले हाथों की गिनती बढती ही चली जा रही है। देश का हित चाहने वाले आम आदमी के हाथ से बहुत कुछ छूटता चला जा रहा है। सत्ता के कंधों पर सवार दौलतमंद देश को नीलामी की मंडी में तब्दील करने में सफल होते दिखायी दे रहे हैं। जिन्हें देश को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है वे भी लगभग समझौतापरस्त हो चुके हैं। इस परिपाटी के खिलाफ यदा-कदा कोई आवाज उठाता भी है तो उसे भी कटघरे में खडा करने के षड्यंत्र शुरू हो जाते हैं। यह सच्चाई पूरी तरह से उजागर हो चुकी है कि देश की संसद और विधान सभाओं में थैलीशाहों की सल्तनत चलती है। गरीब आदमी सांसद या विधायक बनने की सोच भी नहीं सकता। राज्यसभा के चुनाव तो सिर्फ और सिर्फ धनवीरों की ताकत का अखाडा बनकर रह गये हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिं‍ह चौहान ने बडे ही पते की बात कही है कि राज्यसभा की सीटें बिकती हैं। जिनके पास विधायकों को खरीदने का दम होता है वही राज्यसभा का सदस्य बन जाता है। यकीनन यह देश का दुर्भाग्य ही है कि शराब किं‍ग विजय माल्या जैसे लोग राज्यसभा में पहुंचने लगे हैं। देश और दुनिया को शराब के नशे में धकेलने वाला शख्स अपने फायदे की ही सोच सकता है। विजय माल्या की तरह और भी कई उद्योगपति, भूमाफिया, खनिज माफिया और गुंडे बदमाश किस्म के लोग विधायकों की खरीद फरोख्त कर राज्यसभा के सांसद बन लोकतंत्र का मजाक उडाते दिखायी देते हैं। राज्यसभा का चुनाव आम आदमी लड ही नहीं सकता। राज्यसभा की सीट के बदले बडे-बडे सौदों को अंजाम दिया जाता है। अधिकांश राजनीतिक पार्टियां उन्हीं रईसों को टिकट देती हैं जो उनकी झोली भरने में सक्षम होते हैं।संविधान निर्माताओं का राज्यसभा की स्थापना के पीछे बहुत बडा उद्देश्य छिपा हुआ था। बहुतेरे ईमानदार, देशप्रेमी नागरिक ऐसे भी होते हैं, जिनकी चाहत होती है कि देश के लिए कुछ खास किया जाए परंतु वे चुनावी दांव-पेंचों की उलझन से बचना चाहते हैं। उनके संस्कार भी उन्हें इस उलझन में फंसने की इजाजत नहीं देते। लोकसभा चुनाव में करोडों रुपये फूंकने पडते हैं। ईमानदार आदमी के लिए इतनी दौलत जुटाना आसमान से तारे तोडने जैसा है। यही वजह है कि बडे-बडे उद्योगपति, धन्नासेठ, भूमाफिया जिनके गोदामों में काले धन का जखीरा भरा पडा है वे हंसते-हंसते लोकसभा का चुनाव लडते हैं। जीत हासिल करने के लिए अच्छे बुरे कार्यकर्ताओं के साथ-साथ गुंडे मवालियों की फौज को भी साम, दाम, दंड, भेद की नीति के साथ चुनाव प्रचार में झोंक देते हैं। चुनाव जीतें या हारें उन्हें खास फर्क नहीं पडता। पर जो लोग लोकसभा का चुनाव लडने में असमर्थ होते हैं उनके लिए देश सेवा का एकमात्र माध्यम है राज्यसभा परंतु राज्यसभा को तो थैलीशाहों और चाटूकारों की ऐशगाह बनाकर रख दिया गया है। बिकाऊ किस्म के पत्रकार, संपादक और अखबार मालिक राज्यसभा की दहलीज में पहुंचने लगे हैं। अधिकांश राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों के कर्ताधर्ताओं को भी आरती गाने वाले इतने भाते हैं कि वे उनके काले इतिहास को नजरअंदाज कर राज्यसभा की टिकट थमा कर चुनाव में विजयी बनाने के सारे इंतजाम कर देते हैं।इस तथ्य को पूरी तरह से किनारे रख दिया गया है कि वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, पत्रकारों और स्वच्छ छवि वाले देश के प्रति समर्पित उद्योगपतियों और सामाजिक क्षेत्र में ईमानदारी के साथ सक्रिय लोगों के बेहतरीन सुझावों और सेवाओं को लेने के ध्येय से ही राज्यसभा की सदस्यता का प्रावधान किया गया था। आजादी के १५-२० साल बाद तक जो चेहरे राज्यसभा में पहुंचे, उन्होंने वाकई देश की शान बढायी। हरिवंशराय बच्चन, पृथ्वीराज कपूर, नर्गिस दत्त, कुलदीप नैयर जैसे ईमानदार समर्पित चेहरों ने राज्यसभा का मान और सम्मान बढाया। किसी ने भी इनके नामों पर उंगली नहीं उठायी। पर इधर के वर्षों में राज्यसभा का काफी हद तक मजाक बना कर रख दिया गया है। कहने वाले तो यह भी कहने से नहीं चूकते हैं कि पार्टी फंड के लिए जिसमें जितनी मोटी थैलियां देने का दम होता है, उसके लिए उतनी ही राज्यसभा की सदस्यता आसान हो जाती है।आज राज्यसभा में ऐसे भी कई चेहरे हैं, जिन्होंने करोडों रुपये फूंक कर लोकसभा चुनाव लडा और बुरी तरह से हार गये। मतदाताओं ने उन्हें पूरी तरह से नकार दिया। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और राज्यसभा की टिकट का जुगाड कर पिछले दरवाजे से देश की संसद में पहुंच गये हैं। इसे आप क्या कहेंगे? क्या यह लोकतंत्र और मतदाताओं का अपमान नहीं है? चुनाव में लगातार पिटने वाले कई चेहरे राज्यसभा में मटरगश्ती करते दिखायी देते हैं। यह सब 'माया' और संबंधों का कमाल ही है। यह थैलियां ही हैं, जो अपराधियों, दागियों और बदमाशों को भी राज्यसभा में पहुंचाती हैं। खेद की बात तो यह भी है कि ऐसे लोग केंद्रीय मंत्री भी बन जाते हैं और देश का 'लोक' और लोकतंत्र बेबस देखता ही रह जाता है। धन-बल और बाहुबल ने राज्यसभा की गरिमा को निश्चित ही बेहद नुकसान पहुंचाया है। पर इस मुद्दे पर कोई भी राजनीतिक पार्टी मुंह खोलने को तैयार नहीं है। लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर में अमर-माल्या और महाजनी दलालों और सौदागरों का बोलबाला है। ऐसे में अगर देश में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी का आंकडा हजारों-हजारों करोड को पार करता दिखायी दे रहा है तो इसमें हैरान होने वाली कौनसी बात है? जो चेहरे करोडों-अरबों फूंक कर संसद भवन पहुंचे हैं वे कोई साधु महात्मा नहीं हैं। उन्होंने अपार धन लुटाया है तो उसकी भरपाई तो करेंगे ही। किस में है दम जो उन्हें रोक सके? रही राज्यसभा में विद्वानों और कलाकारों को भेजने की बात तो यहां पर भी हर दर्जे की मक्कारी चलती है। हेमा मालिनी, जया प्रदा, जया बच्चन, एम.एफ.हुसैन जैसों के गले माला पहनायी जाती है और इन जैसों को जबरन राज्यसभा का सदस्य मनोनीत कर दिया जाता है। यह ऐसे चेहरे हैं जो न तो देश की जन समस्याओं से वाकिफ होते हैं और न ही किसी किस्म के जानकार। इनका कभी मुंह भी नहीं खुलता। राज्यसभा में भेजे जाने लायक विद्वानों का तो जैसे जबरदस्त टोटा ही पड गया है। विद्वानों के नाम पर अक्सर ऐसे मस्खरों को राज्यसभा की शोभा बढाने के लिए भेज दिया जाता है जो चुटकलेबाजी में माहिर होते हैं।ऐसे में यदि यह कहा जा रहा है कि संसद का उच्च सदन राज्यसभा औचित्यहीन है। यानी इसकी आवश्यकता ही नहीं है, तो फिर इसमें गलत ही क्या है? अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि देश की जनता के खून-पसीने के अरबों-खरबों रुपये ढकोसले पर लूटते देखकर भी अंधे-बहरे बने हुक्मरानों के होश आखिर कौन ठिकाने लगायेगा?

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