Thursday, April 21, 2011
नक्सलियों के शुभचिंतक
डा. बिनायक सेन। यह उस शख्स का नाम है जो डंके की चोट पर नक्सलियों से सहानुभूति रखता है। इस शख्स ने यह पुख्ता धारणा बना रखी है कि छत्तीसगढ की सरकार नक्सलियों से इंसानियत के साथ पेश नहीं आती। शोषण के शिकार हुए नक्सलियों के साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया जाता है। मानवाधिकार कार्यकर्ता डा. सेन को हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत दी है। देशद्रोह के आरोप में वे जेल में बंद थे। सेन पर आरोप था कि वे नक्सलियों से मिलते थे और पत्रों का आदान-प्रदान कर उनकी विचारधारा का खुलकर प्रचार करते थे। बिनायक सेन के घर से नक्सली विचारधारा से जुडी कुछ किताबें और पर्चे भी बरामद किये गये थे। नक्सलियों के पक्ष में खुलकर बोलने और सरकार की नीतियों का विरोध और आलोचना करने वाले डा. सेन जेल में बंद नक्सली नेता पीयूष गुहा से ३३ बार मिलने गये थे। सरकारी तंत्र ने ऐसा शिकंजा कसा कि देशद्रोह के आरोप में सेन को जेल जाना पडा। सेन को काफी जद्दोजहद के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जमानत तो दे दी है पर अदालती चक्करों से अभी भी उन्हें मुक्ति नहीं मिली है। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें देशद्रोह के आरोप से मुक्त करते हुए कहा कि किसी से सहानुभूति रखना यह नहीं दर्शाता कि हम उसका साथ दे रहे हैं। बिनायक चार हफ्ते तक जेल में रहने के बाद बाहर आ गये हैं। वे खुशकिस्मत हैं कि उन्हें अपनी पैरवी करने के लिए देश के सबसे महंगे वकील मिले। राम जेठमलानी किसी ऐरे-गैरे का केस हाथ में नहीं लेते। उनकी लाखों की फीस का भुगतान करना किसी छोटे-मोटे आदमी के बस की बात भी नहीं है। यही वजह है कि न जाने कितने बिनायक अभी जेलों में स‹ड रहे हैं। सेन को उस राम जेठमलानी का साथ मिला जो भाजपा की रीढ की हड्डी कहलाते हैं और वर्तमान में भी भाजपा के कोटे से राज्यसभा के सांसद भी हैं। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि छत्तीसगढ में जब भाजपा की सरकार है तो फिर भाजपाई वकील ने बिनायक की पैरवी करने की हिम्मत कैसे और क्यों दिखायी? छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने उन्हें रोका क्यों नहीं? डॉ. रमन सिंह पर हमेशा यह निशाना साधा जाता रहा है कि उन्हीं के इशारे पर सेन को जेल-यात्रा करवायी गयी और देशद्रोही घोषित करवाया गया। ऐसे में वे इतने अक्षम और असहाय तो नहीं थे कि जेठमलानी को बिनायक सेन की पैरवी करने से न रोक पाते। निश्चय ही उन्होंने एक वकील को अपना काम करने दिया और नतीजा सबके सामने है कि सेन को जमानत मिल चुकी है। फिर भी डॉ. रमन को कोसने वाले बाज नहीं आ रहे हैं।बिनायक सेन को देशद्रोही तो कोई भी नहीं मानता पर उन्होंने द्रोह तो किया ही है। नक्सलियों के प्रति हमदर्दी जताकर उन्होंने उनका हौसला बढाया। इसी हौसले के चलते वे भारत माता के जवानों की जान लेते रहे और मानवाधिकार के तथाकथित संरक्षकों की जुबान से शहीदों के प्रति संवेदना के शब्द भी नहीं निकले! पुलिस के जवानों के लहू का अपमान करने वाले और भी कई चेहरे हैं जिनकी सोच देशवासियों को बहुत कुछ सोचने को विवश करती है। स्वामी अग्निवेश, अरूंधति राय और डा. बिनायक सेन जैसे बुद्धिजीवी यदि दिल से चाहें तो नक्सलियों को रास्ते पर ला सकते हैं। उनकी नक्सलियों तक जो पहुंच है वह सर्वविदित है। देश का हर सजग नागरिक जानता और समझता है कि शोषण, भुखमरी, गरीबी और बेरोजगारी ने नक्सलवाद और नक्सलियों को जन्म दिया है। शासकों की गलत नीतियों की भी उपज हैं नक्सली परंतु अपनी मांगें मनवाने के लिए जो रास्ता उन्होंने अपनाया है उसका समर्थन भला कैसे किया जा सकता है? हिंसक मनोवृत्ति, हथियार और खून-खराबा नक्सलियों की पहचान बन चुके हैं। पुलिस के जवानों और आदिवासियों की निर्ममता के साथ हत्या करने वाले नक्सलियों के साथ सहानुभूति रखने वालों को राष्ट्रप्रेमी तो कतई नहीं कहा जा सकता। नक्सलियों के साथ लगाव रखने वालों ने इस हकीकत को भुला दिया है कि उनकी यह सहानुभूति राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए बहुत बडा खतरा बन चुकी है। यह सच्चाई जग-जाहिर है कि देश की सरकारों ने आदिवासियों के साथ वैसा न्याय नहीं किया जैसा किया जाना चाहिए था। जिन जमीनों की बदौलत वे जीते-खाते थे वही उनसे छीन ली गयीं। जल, जंगल और जमीन इन गरीबों की ताकत थे। उनके पास रोजी-रोटी का और कोई साधन भी नहीं था। सरकार ने उनके संपूर्ण हित के लिए कोई खास कोशिश भी नहीं की। वह तो तथाकथित उच्च वर्ग को और खुशहाल बनाने के लिए अपनी सारी ऊर्जा खर्च करती रही और दबे कुचले लोगों का आक्रोश बढता चला गया। उन्होंने हथियार थाम लिये। ऐसे में सेन जैसे लोग भी उनके साथ हो लिये! जबकि उनका असली दायित्व तो यह था कि वे उनके आक्रोश को आग न देते हुए ठंडा करने के प्रयासों में जुट जाते। बातचीत से बडी से बडी समस्या का हल निकलता आया है। क्या सेन जैसे लोग इस तथ्य से वाकिफ नहीं हैं कि नक्सली बंदूक के दम पर सत्ता पाना चाहते हैं। इधर-उधर से जुटाये हथियारों से वे अभी तक हजारों-हजारों जवानों का खून बहा चुके हैं। खून बहाने वालों का समर्थन या उनके प्रति सहानुभूति के क्या मायने हो सकते हैं?... जवानों के खून को नजरअंदाज करने वाले बुद्धिजीवी पुलिस की कार्रवाई को हमेशा गलत बताते हैं और नक्सलियों के खून-खराबे पर कोई बात ही नहीं करना चाहते...। नक्सलियों के शुभचिंतकों का पहला मकसद तो यही होना चाहिए कि वे नक्सलियों को इस बात के लिए तैयार करें कि वे हिंसा का रास्ता छोडें और राष्ट्र की मुख्यधारा से जुडें।
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sundar, sucvicharit lekh, par dukh isi baat ka hai, ki jinko sochanaa chahiye, ve soch hi naheen rahe hain..
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