Thursday, June 30, 2011
सत्ता के सपनों में खोयी भाजपा
राजनीति के रंगमंच पर रंगारंग बयानबाजी करने वाले कुछ कांग्रेसी जब भी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाये जाने की मांग करते हैं तो भारतीय जनता पार्टी के नेता भी बयानबाजी पर उतर आते हैं। पिछले दिनों बडबोले कांग्रेसी दिग्विजय सिंह ने राहुल गांधी को पीएम बनाने की फुलझडी छोडी तो भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवानी बारुद की तरह फट पडे। हिंदुस्तान का प्रधानमंत्री बनने में नाकामयाब रहे आडवानी ने दिग्विजय सिंह को खरी-खोटी सुनाते हुए चेताया कि वे इस तरह के चापलूसी भरे बयान देना बंद कर दें। अपने सपनों के पूरा न हो पाने से आहत हो चुके आडवानी ने कहा कि प्रधानमंत्री का पद किसी एक परिवार की जागीर नहीं है।वैसे देखा जाए तो यह कोई नयी बात नहीं है। बेचारे कांग्रेसी करें भी तो क्या करें? गांधी और नेहरू परिवार की बदौलत ही उनकी राजनीति चलती आ रही है। उनके पास और दूसरा कोई नेता भी नहीं है जिन्हें देखकर देश की जनता अपने वोट कुर्बान कर दे। याद करें वो दौर जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली थी और उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की कोशिशें की गयी थीं। भाजपा ने सोनिया गांधी के विदेशी होने का मुद्दा उठाकर कांग्रेस को ही कटघरे में खडा करने का अभियान चलाया गया था। इस तथ्य की भी अनदेखी कर दी गयी सोनिया गांधी को देश की जनता ने ही लोकसभा के चुनाव में विजयश्री दिलवायी। मरणासन्न कांग्रेस में भी सोनिया गांधी की बदौलत नयी जान आयी और देश की जनता ने भी बता दिया कि जब तक गांधी परिवार के हाथ में कांग्रेस की बागडोर है तब तक कांग्रेस जैसी भी है हमें मंजूर है। राहुल गांधी भी देश के सांसद हैं। जनता ने उन्हें चुना है ऐसे में जब राहुल को प्रधानमंत्री बनाये जाने की बात उठती है तो विरोध का कोई तुक नजर नहीं आता। जिस परिवार की बदौलत कांग्रेसियों का वजूद है उसी के प्रति आस्था प्रकट करना उनकी मजबूरी है। इसे चापलूसी कहें या भक्तिभावना। वैसे भी यह कांग्रेस का निजी मामला है वह जिसे चाहे उसे प्रधानमंत्री बना सकती है। यही बात भाजपा पर भी लागू होता है। वह जिसे चाहे उसे अपना भावी पीएम घोषित कर सकती है। इस देश की नब्बे प्रतिशत जनता का इस बात से कोई लेना-देना ही नहीं है कि कौन देश का प्रधानमंत्री हो। उसे तो दो वक्त की रोटी चाहिए। पर इस देश के हुक्मरानों ने तो उसे इस लायक भी नहीं समझा। भ्रष्टाचार और अनाचार के कीर्तिमान स्थापित करने वालों ने आम आदमी को खून के आंसू रुलाने में कभी कोई कसर नहीं छोडी। जिस कांग्रेस ने वोट हथियाने के लिए १०० दिन में महंगाई खत्म करने का वायदा किया था वह खुद इतनी बेबस नजर आ रही है कि देश चौराहे पर खडा नजर आ रहा है। देशवासी आखिर किस पर यकीन करें? उन्हें कहीं से भी कोई जवाब नहीं मिल पा रहा है। देश की दो राजनीतिक पार्टियां आमने-सामने खडी हैं। कांग्रेस पर महंगाई को बढाने के साथ-साथ भ्रष्टाचार और काले धन को प्रश्रय देने के संगीन आरोप हैं। भारतीय जनता पार्टी सहित अन्ना हजारे और रामदेव जैसों की फौज कांग्रेस को जिस तरह से अपने घेरे में ले चुकी है उससे यह भी आभास हो रहा है कि कोई न कोई परिणाम सामने आकर रहेगा। पर क्या यह संभव है? डा. मनमोहन सिंह भले ही मंजे हुए राजनीतिज्ञ न हों पर क्या वे इतनी आसानी से कुर्सी छोड देंगे? सोनिया गांधी एंड कंपनी क्या इतनी जल्दी हार मान लेगी? भाजपा तो बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने के इंतजार में है। देश की जनता कांग्रेस और भाजपा दोनों के असली चरित्र से वाकिफ हो चुकी है। जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है। उसे तो इन दो पाटों के बीच पिसते रहना है। कांग्रेस यानी डा. मनमोहन सिंह ने तो मंत्रियों-संत्रियों और अपने करीबी राजनीति के खिलाडियों को भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते सींखचों के पीछे खडा करने की हिम्मत दिखा दी पर भाजपा क्या कभी ऐसा साहस दिखा पायी? भाजपा के हाथों में जब केंद्र की सत्ता थी तब उसने ऐसा कोई खास काम नहीं किया जो कांग्रेस को पछाडने वाला हो। यही वजह है कि कांग्रेस और भाजपा में बेहतर कौन हैं? का जवाब तलाशना बहुत मुश्किल नजर आता है। इसमें दो मत नहीं हैं कि देश के जिन प्रदेशों में भाजपा का शासन है वहां पर एकाध को छोडकर बाकी सभी प्रदेशों में कई जनहितकारी काम हो रहे हैं। छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने-अपने प्रदेशों के विकास में जी-जान से जुटे हैं।अब जब भाजपा फिर से केंद्र में शासन करने के सपने देख रही है तो यह तथ्य भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अगर कांग्रेस में भ्रष्टाचारी भरे पडे हैं तो भाजपा भी कोई सुधरी हुई पार्टी नहीं है। दोनों पार्टियों के अधिकांश नेताओं का आचरण लगभग एक जैसा ही है। देश में छह साल तक अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार रही। इस सरकार से देशवासियों को कई उम्मीदें थीं पर सबकी सब धरी की धरी रह गयीं। अगर यह कहें कि अटलबिहारी वाजपेयी के कारण ही भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता नसीब हुई थी तो गलत न होगा। इन छह सालों में देश का चेहरा बदला जा सकता था। हर किसी को यकीन था कि अटलबिहारी वाजपेयी ऐसा कुछ कर दिखायेंगे जिसे सदियों तक याद रखा जायेगा। डा. मनमोहन सिंह और अटलबिहारी वाजपेयी में ज्यादा फर्क दिखायी नहीं देता। दोनों के शासनकाल में भ्रष्टाचारियों की खूब चली। दोनों घोर ईमानदार होने के बावजूद भ्रष्टाचार पर लगाम कसने में नाकामयाब रहे। इतिहास के पन्नों में अटल और मनमोहन का नाम पाक-साफ प्रधानमंत्रियों के रूप में तो जरूर दर्ज होगा पर साथ ही यह भी जरूर लिखा जायेगा कि इनकी ईमानदारी ने कई बेईमानों को फायदा पहुंचाया। सबकुछ देखने-समझने और सुनने के बाद भी यह दोनों असहाय बने रहे।अटलबिहारी वाजपेयी राजनीति से संन्यास ले चुके हैं। भाजपा में उनकी जैसी लोकप्रिय छवि वाला कोई और नेता दूर-दूर तक नजर नहीं आता। जनता के वोट खींचने के लिए कांग्रेस के पास सोनिया गांधी भी हैं और राहुल, प्रियंका भी पर भाजपा इस मामले में लगभग खाली हाथ है। खाली हाथ होने के बावजूद भी एक दूसरे की टांग खिचायी चलती रहती है। इस पार्टी में एक भी सर्वमान्य नेता नहीं है और यही कमी उसे कांग्रेस के समक्ष बौना बनाती है...।
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