Thursday, September 29, 2011

नेहरू के आंसू

अपने हिं‍दुस्तान में नयी-नयी परिभाषाएं सामने आती रहती हैं। हाल ही में योजना आयोग ने कहा है कि देश के शहरी इलाकों में हर महीने ९६५ रुपये खर्च करने वाले व्यक्ति को और ग्रामीण इलाके में हर महीने ७८१ रुपये खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब नहीं माना जा सकता। यानी इस तरह के खर्चीले नागरिक धनवानों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए इन्हें कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उपलब्ध नहीं कराया जाना चाहिए। इस देश में एक से एक अक्लमंद भरे पडे हैं जो समय-समय पर अमीरी और गरीबी की नयी परिभाषाएं गढते रहते हैं और असहाय देशवासियों के मुंह पर तमाचे जडते रहते हैं। कोई इनसे पूछे कि श्रीमानजी ३०-३२ रुपये की आज के जमाने में कीमत ही क्या बची है जो इसे खर्च कर सकने में समर्थ इंसान को अमीर बताने पर तुले हो? इतने रुपयों में तो एक वक्त का पौष्टिक नाश्ता तक नहीं मिल पाता। आप हैं कि लोगों के जख्मों पर नमक छिडकने पर तुले हैं। यह मनमोहन सरकार देश को कहां ले जाना चाहती है कुछ भी समझ में नहीं आ रहा। ९६५ रुपये प्रति माह खर्च करने वाले शहरी को धनवान मानने वाली इस सरकार की नीतियों का तो कोई माई-बाप ही नजर नहीं आता। ऐसा लगता है कि लोगों को भूखों मारने और पैदल करने की पूरी तैयारियां की जा चुकी हैं। पेट्रोल की कीमत ७५ रुपये प्रति लीटर तक पहुंच गयी है फिर भी सरकार को चैन नहीं है। उसके इरादे इसे सौ से ऊपर पहुंचाने के हैं। हमारा देश दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश कहलाता है पर यहां पर आम लोगों की चिं‍ता छोड खास लोगों की चाकरी की जाती है। वे देश जो भारत की तुलना में काफी कमजोर और छोटे हैं वहां पर भी पेट्रोल के भाव इस कदर आग लगाने वाले नहीं हैं। पडोसी देश पाकिस्तान में पेट्रोल की कीमत मात्र २६ रुपये और बांग्लादेश में २२ रुपये प्रति लीटर है। मनमोहन सरकार महंगाई बढाने के साथ-साथ लोगों का मजाक भी उडा रही है। इस देश के मंत्री-संत्री अपनी मौज मस्ती पर लाखों रुपये उडाने में परहेज नहीं करते और आम आदमी के चंद रुपयों पर भी निगरानी रखी जाती है। दलितों के तथाकथित मसीहा रामविलास पासवान जैसे नेता एक वक्त के खाने पर हजारों रुपये फूंकने का दम रखते हैं और योजना आयोग सुप्रीम कोर्ट को यह बताते हुए कतई नहीं हिचकिचाता कि शहर में ३२ रुपये और गांव में २६ रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति बीपीएल परिवारों को मिलने वाली सुविधा को पाने का हकदार नहीं है। लगता है योजना आयोग के कर्णधारों ने आंखों पर पट्टी बांध रखी है। उन्हें देशवासियों को निरंतर लहुलूहान करती महंगाई दिखायी ही नहीं देती। आज जब सौ के नोट की कोई औकात नहीं रही तब बत्तीस और छबीस रुपये किसी खेत की मूली हैं? सब्जियों के भाव कहां से कहां पहुंच गये हैं। अदना सा प्याज बीस से पच्चीस रुपये किलो तक जा पहुंचा है और अंधी और बहरी सरकार पच्चीस-तीस रुपये में घर चलाने की बात करती है! सरकार को जो काम करना चाहिए उसे तो वह करती नहीं। उसकी सारी ताकत इधर-उधर की बातों में लगी हुई है। इस देश में खाद्यानों के अपार भंडार भरे पडे हैं जिन्हें गरिबों को सस्ते से सस्ते दामों में उपलब्ध करा कर भुखमरी का खात्मा किया जा सकता है। देश का गरीब तबका भरपेट भोजन चाहता है पर अपना खून-पसीना बहाने के बाद भी उसकी यह हसरत धरी की धरी रह जाती है। देश का ऐसा कोई प्रदेश नहीं बचा है जहां किसानों को आत्महत्या करने को विवश न होना पडता हो। केंद्र और राज्य सरकारें हजारों करोड रुपये के पैकेज घोषित करती रहती हैं पर हालात जस के तस बने रहते हैं। जरूरतमंदो तक सहायता राशि पहुंच ही नहीं पाती। मंत्री और नौकरशाह राजीव गांधी के कथन को सार्थकता प्रदान करते रहते हैं कि ऊपर से भेजे जाने वाले सौ रुपयों में से मात्र पंद्रह रुपये ही जनता तक पहुंच पाते हैं। अभावग्रस्त किसानों की आत्महत्याओं का आंकडा बढता चला जाता है और शासक और प्रशासक खोखली चिं‍ता दर्शाते रह जाते हैं। दरअसल इस देश के किसान को तो अनाथ बना कर रख दिया गया है। अन्नदाता ही दाने-दाने को मोहताज है। आजादी के फौरन बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर नेहरू को जब किसी ने किसानों की दुर्दशा का हवाला देते हुए बताया था कि किसान के बच्चे गोबर से अनाज निकालकर खाने को विवश हैं तो वे संसद में रो पडे थे। उनके आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। तब और अब के किसान के बच्चे के दयनीय हालात में कोई फर्क नहीं आया है। उलटे दशा और दिशा और भी बिगड गयी है और सियासत के खिलाडी अक्सर घडि‍याली आंसू बहाते रहते हैं। यह भी सौ फीसदी सच है कि पंडित नेहरू की विरासत को संभाल रहे राजनेताओं को तो आपस में लडने-झगडने और एक-दूसरे के कपडे फाडने से ही फुर्सत नहीं मिल पाती। वे इस कदर निर्मोही हो गये हैं कि किसानों के फांसी के फंदे पर झूलने के समाचार उन्हें कतई विचलित नहीं करते। वे तो सिर्फ अपने यार-दोस्तों और घर-परिवार में ही मगन रहते हैं। किसानों के नाम पर नेतागिरी करने वाले भी किसानों के भले की नहीं सोचते। फसल उगाने वाला किसान घाटा उठाता है और घाघ व्यापारी मुनाफा कमाता है। राजनेताओं को चुनाव के समय धन्नासेठ और मिल मालिक मोटे चंदे देते हैं इसलिए वे उन्हीं के हित की बात सोचते हैं। इसका जीता-जागता सबूत है महाराष्ट्र जहां पर राज्य सरकार गन्ना किसानों के नाम पर चीनी मिलों को अरबो-खरबों की खैरात बांटती रहती है। मिल मालिक गन्ना उत्पादक किसान को जी भरकर शोषण करते हैं। शोषक मिल मालिक बैंको को भी करोडों रुपये का चूना लगाने से बाज नहीं आते। यानी उनके ठाठ बने रहते हैं और अपने खून-पसीने से खेतों को सींचने वाले किसान निरंतर भुखमरी के कगार पर पहुंचने के बाद जहर खाकर या फांसी के फंदे पर झूल देश की लुंज-पुंज व्यवस्था को आखिरी सलाम कर संसार से ही कूच कर जाते हैं। ऐसे में आंसू बहाना तो दूर... किसी के चेहरे पर कहीं कोई शिकन भी नज़र नहीं आती।

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