Thursday, December 15, 2011
मरीज़ों का तो भगवान ही मालिक है...
१३ जून १९९७ को देश की राजधानी दिल्ली के उपहार सिनेमा में आग लग गयी थी। सौ से ज्यादा लोग घायल हुए थे और ५५ मौत के मुंह में समा गये थे। बेचारों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वे जहां मनोरंजन करने जा रहे हैं वहां साक्षात मौत उनका इंतजार कर रही है। ९ दिसंबर २०११ की तडके कोलकाता का 'आमरी' अस्पताल भीषण आग की चपेट में आ गया और ९३ मरीज जान से हाथ धो बैठे और कई गंभीर रूप से जख्मी हो गये। अस्पताल में तो मरीज रोगों से मुक्ति पाने के लिए आते हैं पर इस अस्पताल ने तो जीवन से ही सदा-सदा के लिए मुक्ति दिला दी। यह मुक्ति ऐसी थी जिसकी कोई कल्पना ही नहीं कर सकता। अस्पताल तो जीवनदाता होते हैं। मौत से उनका दूर-दूर तक नाता नहीं होता। पर कोलकाता के 'आमरी' अस्पताल ने तो मरघट को भी मात दे डाली और जिंदा इंसानों को ही फूंक डाला। हमारे यहां इस तरह की जानलेवा दुर्घटनाएं अक्सर होती रहती हैं। दुर्घटनाओं के कारणों की भी हमेशा यह सोच अनदेखी कर दी जाती है कि जिनके साथ घटनी थी, घट गयी, हम तो हमेशा सुरक्षित रहेंगे। कोई आग-वाग हमें कभी छू भी नहीं पायेगी। यही भ्रम ही सतत भारी पडता आया है...।दिल्ली का उपहार सिनेमा हो या फिर कोलकाता का नामी अस्पताल आमरी। दोनों ही मानवीय लालच, चालाकियों, भूलों तथा बेवकूफियों की वजह से आग की भेंट चढे और देखते ही देखते जिंदा इंसान लाशों में तब्दील हो गये। देश में आमरी जैसे अस्पतालों की भरमार है। इस अस्पताल के भूतल में दवाइयां, आक्सीजन सिलेंडर तथा रसायन आदि भरे पडे थे जिनकी वजह से आग लगी। यही आग मरीजों को सदा-सदा के लिए मौत के मुंह में सुला गयी। अस्पताल में जो मरीज भर्ती होते हैं उनमें से अधिकांश का शरीर इस काबिल नही होता कि वे भाग-दौड कर सकें। आमरी में भी ऐसा ही हुआ। अस्थिरोग विभाग और आईसीयू में भर्ती कई मरीज मौत को सामने पाकर भी इतने बेबस थे कि खुद को जलने और राख होने से बचा नहीं सके। अस्पताल के कर्मचारियों को भी ऐसी भयावह आपदा से निपटने के लिए कोई ट्रेनिंग नहीं दी गयी थी। अस्पताल की इमारत में अग्निरोधक उपाय नदारद थे। आग भडकने के बाद अस्पताल के अधिकांश कर्मचारी भाग खडे हुए। डॉक्टरों और नर्सों को भी अपनी जान की चिंता सताने लगी। उन्होंने भी वहां पर टिकना मुनासिब नहीं समझा। मरीजों को ऊपरवाले भगवान के भरोसे छोड दिया गया। नीचे वाले भगवान घोर स्वार्थी और कायर निकले।प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री होने के बावजूद इंसानियत का परिचय देने में कोई कमी नहीं की। अस्पताल में मची अफरातफरी और आग के तांडव के बीच वे घंटों वहीं डटी रहीं। उन्होंने मृतकों और घायलों के परिवारों को दूसरे नेताओं की तरह दिखावटी सांत्वना नहीं दी। वे तब मां, बहन और बेटी की तरह दुखियों के आंसू पोंछती रहीं और खुद भी चिंता और पीडा से पिघलती रहीं। देश में ऐसी मुख्यमंत्री का मिलना मुश्किल है। अगर यह मुश्किल आसान हो जाए तो देश और प्रदेशों का चेहरा बदल सकता है। पर इस मुल्क के नेता तो देश को मंझदार में ही उलझाये रखना चाहते हैं। यही वजह है कि सिनेमाघरों और अस्पतालों में कोई फर्क नहीं रह गया है। येन-केन-प्रकारेण धन कमाना ही इनका असली मकसद है। देश के छोटे-बडे शहरों के अधिकांश अस्पतालों के हालात कोलकाता के आमरी अस्पताल से जुदा नहीं हैं। महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में अधिकांश अस्पताल उद्योगधंधे की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। तगडे डोनेशन और मोटी-मोटी फीसें देकर अस्पताल खोलने या नौकरी बजाने वाले डॉक्टरों का धन समेटना एकमात्र मकसद रह गया है। इस शहर में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और उडीसा के मरीज इलाज कराने के लिए आते हैं। कुछ दिन पहले इसी शहर में स्थित केयर अस्पताल में आग लग गयी थी। यहां की सुरक्षा व्यवस्था भी आमरी की तरह बदहाल थी। मरीजों की किस्मत अच्छी थी जो वे बाल-बाल बच गये। इस शहर के एक बडे अस्पताल का किस्सा अक्सर प्रबुद्ध जनों के बीच सुना-सुनाया जाता है। लगभग तीन वर्ष पहले की बात है। नागपुर मेडिकल कॉलेज में भर्ती एक मरीज की मौत हो जाने के पश्चात पता नहीं क्या सोचकर उसके परिवार वाले शहर के एक बडे अस्पताल की शरण में जा पहुंचे। नामी-गिरामी हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर ने 'मरीज' को मोटी फीस के लालच में अपने अस्पताल के आईसीयू में इस आश्वासन के साथ लिटा दिया कि मरीज शीघ्र ही भला-चंगा हो जायेगा। दो दिन तक तरह-तरह का इलाज चलता रहा फिर डॉक्टर साहब ने हाथ खडे कर दिये और परिवार वाले को लाखों रुपये का बिल थमा दिया। अब परिवार वालों के धमाके की बारी थी। उनके साथ आये एक चतुर-चालाक नेतानुमा चेहरे ने डॉक्टर साहब के समक्ष मेडिकल कॉलेज का वो प्रमाणपत्र पेश कर दिया जिसमें मरीज के दो दिन पहले ही प्रभु को प्यारे हो जाने का स्पष्ट उल्लेख था। पहले तो डॉक्टर खुद को सच्चा बताते हुए तरह-तरह के लटके-झटके दिखाता रहा फिर जब सामने वाले ने मीडिया के समक्ष जाकर नंगा करने की धमकी दी तो वह हाथ-पैर जोडने लगा। शहर के एक प्रतिष्ठित डॉक्टर की साख का सवाल था। उन्होंने अपनी इस साख को एक करोड रुपये देकर किसी तरह से बचाया। फिर भी बात बाहर आ ही गयी। पिछले दिनों देश के एक राष्ट्रीय नेता के यहां आयोजित दीपावली मिलन कार्यक्रम में भी इस धन पशु डॉक्टर की कारस्तानी की चर्चा होती रही। डॉक्टर के लिए करोड-दो-करोड रुपये कोई खास मायने नहीं रखते। वे रोज लाखों के वारे-न्यारे करते थे, और कर रहे हैं...। और यह भी तय है कि उनके अंदर की इंसानियत और नैतिकता न तो पहले जिंदा थी और न ही आज उसके जिंदा होने की उम्मीद की जा सकती है...। मरीज़ों का तो भगवान ही मालिक है...।
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