Thursday, December 22, 2011

अदम गोंडवी का गाँव

अधिकांश साहित्यकार आम आदमी के नाम की ढपली बजाकर मजमा जुटाते हैं और वाह-वाही पाते हैं। ऐसे विरले ही होते हैं जो इस तबके के साथ वफादारी निभाते हैं। इस देश में हवा में तीर चलाने और यथार्थ से कोसों दूर रहकर कलम चलाने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। अपने परिवेश से कटकर सपनों का संसार रचने वालों को भी साहित्यजगत में स्थान मिलता रहा है। दरअसल राजनीति की तरह साहित्य के मंच पर भी जोड-तोड करने वाले मुखौटों को कुछ ज्यादा ही तवज्जों मिलती रही है। यही वजह है कि दबे कुचले, कमजोर वर्ग की आवाज को मुखर करने वाले कवि, गीतकार, शायर, और कहानीकारों को अक्सर वो सम्मान नहीं मिलता जिसके वे हकदार होते हैं। बात जब हिं‍दी गजल की होती है तो सबसे पहले दुष्यंत कुमार के नाम का जिक्र होना तय है। दुष्यंत कुमार के बाद अदम गोंडवी ही एक ऐसा नाम है जिसने प्यार मोहब्बत, इश्क और जुदाई के रंग में डूबी गजल का रूख मोडते हुए उसमें आग भरके रख दी:
''आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप को, मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको।''
गोंडा जिले के एक छोटे से गांव में जन्मे रामनाथ सिं‍ह उर्फ अदम गोंडवी ने जब कविताएं और गजलें लिखनी शुरू कीं तब इश्किया मिजाज के ऐसे कलमकारों का वर्चस्व था जिनका कभी भी आम आदमी की पीडा और देश की हकीकत से कभी कोई लेना-देना नहीं रहता। सत्ताधारियों की जी हजूरी करने वाले जानबूझकर अंधे और बहरे बने रहते हैं। आदम गोंडवी सच से मुंह चुराने वालो में शामिल नहीं हुए। आजाद देश में आम आदमी की दुर्गति उन्हें निरंतर चिं‍ताग्रस्त करती रही। यही चिं‍ता उनकी लेखनी के जरिये भी निरंतर उजागर होती रही:
''काजू भूने प्लेट में, व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में।
जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गांव तक वह रोशनी आएगी कितने साल में।''
सुरेश कलमाडी, ए. राजा, कनिमोझी जैसे अरबों-खरबों के भ्रष्टाचारी अचानक पकड में आ गये हैं। इन जैसे न जाने कितने और हैं जो देश को बेचकर खा सकते हैं। अदम गोंडवी ने तो वर्षों पहले ही सचेत कर दिया था:
''जो डलहोजी न कर पाया
ये हुक्मरान कर देंगे
कमीशन दो तो
हिं‍दुस्तान को नीलाम कर देंगे।''
भ्रष्टाचारी नेताओं ने आज हिं‍दुस्तान का क्या हाल कर डाला है, वो किसी से छिपा नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ लडाई लडने वाले अन्ना हजारे जैसे समाजसेवी को भी चक्करघिन्नी बना कर रख दिया गया है। सत्ता पर काबिज चेहरे व्यवस्था के खिलाफ लडने वालों को कुचलने और खरीदने में सिद्धहस्त हैं। यही कारण है कि इस देश में दूसरा महात्मा गांधी पैदा नहीं हो पाया। दरसअल आज के हुक्मरान यह कतई नहीं चाहते कि दूसरा गांधी पैदा हो। उनके लिए एक ही गांधी बहुत है जिसका इस्तेमाल वे विविध तरीकों से सत्ता पाने के लिए करते चले आ रहे हैं। मिलबांटकर खाने के इस दौर में व्यवस्था और सरकार के खिलाफ लिखने और बोलने वालों का घोर अकाल पड गया है। फिर भी कुछ लोग अपने तयशुदा रास्तों से नहीं भटकते। अपने हाथों में हमेशा हथियार थामे रहते हैं और उस पर कभी भी जंग नहीं लगने देते। चारों तरफ फैली लूट खसोट, सांप्रदायिकता और वोटों की राजनीति पर निरंतर प्रहार करने वाले अदम गोंडवी का पिछले शनिवार को निधन हो गया पर कहीं कोई हलचल नहीं हुई। अदम गोंडवी और गरीबी में करीबी की रिश्तेदारी थी। उम्रभर वे गरीबी के दंश झेलते रहे और कलम चलाते रहे। कवि के साथ-साथ वे एक ऐसे किसान भी थे जिनकी सारी की सारी खेती की जमीन बैंक के पास गिरवी पडी है। दूसरे बदनसीब किसानों की तरह उन्होंने आत्महत्या को गले लगाने की भूल नहीं की। वे हालातों से लडते रहे और हमेशा यही संदेश देते रहे कि मैदान में डटे रहने में ही जीवन की सार्थकता है। अगर हमने हार मान ली तो शोषक जीत जाएंगे और देश को पूरी तरह से बेच खाएंगे। महात्मा गांधी भी कहा करते थे कि हिं‍दुस्तान गावों में बसता है। पर देश के गांव तो आज भी घोर बदहाली के शिकार हैं। किसानों के लिए खेती करना मुश्किल हो गया है। सरकारों को हमेशा शहरों के विकास की चिं‍ता लगी रहती है। ग्रामों के हालात चाहे कितने भी बदतर होते चले जाएं पर हुक्मरानों को इससे न फर्क पडा है और न ही पडेगा।सच तो यह है कि इस देश के हर गांव के हालात एक समान हैं। कभी राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से भेजे जाने वाले सौ रुपये में से पांच रुपये ही गांवों तक पहुंच पाते हैं। पर अब तो उन पांच रुपयों का भी गोलमाल हो जाता है। ग्रामीणों का शोषण करने वाले चेहरे-मोहरे और हथियार भी एकदम जाने पहचाने हैं। जनकवि अदम गोंडवी कभी शहरी नहीं हो सके। ताउम्र गांववासी ही रहे और अपने परिवेश का हाले बयां करते रहे:
''फटे कपडों में तन ढाके गुजरता है जहां कोई,
समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है।
और...
आप आएं तो कभी गांवों की चौपालों में
मैं रहूं या न रहूं, भूख में जबां होगी।''

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