Thursday, December 1, 2011

चोर की दाढी में तिनका

जब कभी शराब की बुराइयों, तबाहियों और अच्छाइयों को लेकर लोगों को उलझते और दिमाग खपाते देखता हूं तो मुझे बरबस अपने स्वर्गीय मित्र विजय मोटवानी की याद आ जाती है। छत्तीसगढ के बिलासपुर के रहने वाले विजय एक युवा पत्रकार थे। खबरों को सूंघने और समझने की उनमें भरपूर क्षमता थी। सजग पत्रकार के साथ-साथ वे एक सुलझे हुए व्यंग्यकार भी थे। देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में धडल्ले से छपते और पढे जाते थे। पर अचानक पता नहीं कैसे उन्हें शराब की लत लग गयी। अंधाधुंध शराबखोरी ने मात्र तीसेक साल के विजय को मौत के उस गहरे समन्दर में डूबो दिया जहां से बडे से बडे तैराक वापस नहीं लौटा करते। सिर्फ यादे भर रह जाती हैं।अकेला विजय ही शराब का शिकार नहीं हुआ। न जाने कितनी उभरती प्रतिभाएं इसके भंवरजाल में उलझ कर दुनिया से रुख्सत कर चुकी हैं। यह सिलसिला रुकने और थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। ऐसे मयप्रेमी भी हैं जिनका दावा है कि यह उनकी सेहत पर कोई असर नहीं डालती। कई तो ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि उन्हें इससे ऊर्जा मिलती हैं। खुशवंत सिं‍ह का नाम काफी जाना-पहचाना है। उनके कॉलम विभिन्न अखबारों में नियमित छपते रहते हैं। वे कई चर्चित उपन्यास भी लिख चुके हैं। उनकी उम्र नब्बे का आंकडा पार कर चुकी है। फिर भी स्कॉच पिये बिना उन्हें नींद नहीं आती। पिछले सत्तर साल से बिना नागा पीते चले आ रहे हैं और लेखन भी जारी है। 'हंस' के सम्पादक जो कि एक जाने-माने कहानीकार और उपन्यासकार हैं, वे भी अस्सी साल से ऊपर के हो चुके हैं, पर नियमित 'रसरंजन' करना उनकी आदत में शुमार है। ऐसे धुरंधरों को अपना प्रेरणा स्त्रोत मानने वाले ढेरों संपादक, पत्रकार, कहानीकार अपने देश में भरे पडे हैं। देश और दुनिया में न जाने कितने कलाकार हैं जिन्हें नियमित रसरंजन किये बिना नींद ही नहीं आती। कई तो ऐसे भी हैं जो अपनी अच्छी-खासी उम्र का हवाला देकर यह बताते और जताते नहीं थकते कि शराब को अगर सलीके से हलक में उतारा जाए तो इससे कतई कोई नुकसान नहीं होता। यानी शराब अमृत का काम करती है और मस्ती में जीना सिखाते हुए उम्रदराज बनाती है। कई राजनेता और अभिनेता तो ऐसे भी हैं जो शराब से दूर रहने के भाषण झाडते रहते हैं पर खुद इसकी लत के जबरदस्त शिकार हैं। मीडिया से जुडे अधिकांश 'क्रांतिकारी' शराब के सुरूर में डूबे रहना पसंद करते हैं। वैसे भी इन लोगो को मुफ्त में डूबने को भरपूर मिल जाती है। इसलिए यह महारथी कोई मौका नहीं छोडते। देश का नवधनाढ्य वर्ग तो दारूखोरी के मामले में किसी को भी अपने समक्ष टिकने नहीं देना चाहता। इस वर्ग में भू-माफिया, बिल्डर, स्मगलर तथा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के वो दलाल शामिल हैं जो हराम की कमायी को लुटाने के लिए बहाने तलाशते रहते हें। ऐसे लोगों की बढती भीड को देखकर जहां-तहां शराब की दूकानें खुलती चली जा रही हैं। बीयर बारों की कतारें देखते बनती हैं। हर बॉर में मेला-सा लगा नजर आता है जहां कम उम्र के युवा भी जाम से जाम टकराते देखे जा सकते हैं। स्कूल-कॉलेजों में पढनेवाली लडकियों और महिलाओं ने भी मयखानों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी शुरू कर दी है। इस तरह के किस्म-किस्म के नजारों को देखकर यह कतई नहीं लगता कि हिं‍दुस्तान में गरीबी और बदहाली है। कुछ महीने पूर्व जब महाराष्ट्र में शराब की कीमतों में लगभग चालीस से पचास प्रतिशत तक की बढोतरी की गयी तो यह लगने लगा था कि पीने वालों की संख्या में जबरदस्त कमी हो जायेगी। पर मेले की रौनक जस की तस बनी रही। तय है कि यह जालिम चीज ही ऐसी है जो एक बार मुंह से लग गयी तो छूटती नहीं। इस देश में जहां अमीरों के लिए एक से बढकर एक अंग्रेजी महंगी शराबें उपलब्ध हैं तो गरीबों के लिए भी सस्ती देसी दारू के ठेकों की भी कोई कमी नहीं है। गली-कूचों तक में खुल चुके यह ठेके चौबीस घंटे आबाद रहते हैं, जहां पर खून-पसीना बहाकर चंद रुपये कमाने वालों का जमावडा लगा रहता है। कई तो ऐसे होते हैं जो दारू के चक्कर में अपने घर-परिवार को भी भूल चुके होते हैं। घर में बीवी-बच्चों को भले ही भरपेट खाना न मिले पर इन्हें डटकर चढाये बिना चैन नहीं मिलता। यह भी हकीकत है कि आलीशान बीयर बारों में सफेदपोश नेता, नौकरशाह, उद्योगपति, व्यापारी आदि-आदि तो देसी दारू के ठेकों पर छोटे-मोटे अपराधी पनाह पाते और मौज उडाते हैं।यही दारू कई अपराधों की जननी भी है। न जाने कितनी हत्याएं बलात्कार, चोरी डकैतियां और अपराध-दर-अपराध शराब और दारू की ही देन होते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बडी लडाई लडने वाले अन्ना हजारे का मानना है कि शराब देश की सबसे बडी दुश्मन है। शराबी देश के माथे का कलंक हैं। पिछले दिनों जब उन्होंने शराबियों को पेड से बांधकर कोडे मारने की बात की तो हंगामा-सा बरपा हो गया। इस हंगामें में वो शराबी कहीं शामिल नही थे जिन्हें दुरुस्त करने के लिए अन्ना हजारे ने यह विस्फोटक तीर छोडा था। देशभर के नव धनाढ्य वर्ग के साथ-साथ पत्रकारों, संपादकों, लेखकों, नेताओं की मयप्रेमी फौज अन्ना पर पिल पडी और चीखने-चिल्लाने लगी-यह तो अन्ना की गुंडागर्दी है। ऐसी अन्नागीरी महात्मा गांधी के देश में नहीं चल सकती। यह आम आदमी की आजादी को छीनने वाला फरमान है। हम अपने कमाये धन को कैसे भी खर्च करें यह हमारा व्यक्तिगत मामला है। और भी न जाने क्या-क्या कहा जाता रहा। दरअसल अन्ना ने तो उन शराबियों की पिटायी की बात कही जो हद दर्जे के नशेडी हैं। घर के बर्तन और बीवी के जेवर तक दारू की भेंट चढाने से नहीं कतराते। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पडता कि उनकी इस लत की वजह से उनके बाल-बच्चे भूखे मर रहे हैं। उनकी गरीबी और बदहाली की असली वजह ही यह दारू ही है। अन्ना का यह कहना गलत तो नहीं है कि घोर शराबी इंसान कई बार नशे की धुन में व्याभिचारी और बलात्कारी बन जाता है। यह नशा उसे चोर, डकैत और हत्यारा भी बना देता है। उसका विवेक नष्ट हो जाता है और वह अच्छे-बुरे की पहचान भी भूल जाता है। अन्ना के विरोध में चिल्लाने वाले क्या इस हकीकत से इंकार कर सकते हैं?

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