Thursday, March 15, 2012
इन्हें आप क्या कहेंगे?
बडी मुश्किल है। गांव रोजी-रोटी नहीं देते। शहर देते हैं पर बहुत कुछ छीन लेते हैं। भीड भरे शहरों की तरफ दौड लगाना लोगों की मजबूरी बन चुका है। भीड का अपना कोई दीन-धर्म नहीं होता। उसकी अपनी मजबूरियां होती हैं। क्रांक्रीट के जंगलों में तब्दील होते नगर और महानगर भीड को ढोते-ढोते निर्मम होते चले जाते हैं। इन्हें किसी की चीख-पुकार सुनायी नहीं देती। देश के लगभग सभी नगरों और महानगरों के बारे में यही कुछ कहा और सोचा जाता है।देश के बीचों-बीच बसा शहर नागपुर अपनी कई खासियतों के कारण जाना-पहचाना जाता है। आपसी सद्भावना और भाईचारे का प्रतीक माने जाने वाले इस शहर में एकाएक आत्महत्याओं और हत्याओं का जो अजब दौर-सा चल पडा है, वह यकीनन बेहद चौंकाने वाला है। सच तो यह है कि यह सब इसकी छवि के कतई अनुकूल नहीं है। सरे बाजार कॉलेज जाती एक बेकसूर छात्रा की हत्या हो जाती है और राह चलते लोग देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। हर शरीफ आदमी को गुंडे-बदमाशों तथा पुलिस से डर लगता है। जितना हो सकता है इनसे बचकर रहो। अपनी तथा अपनों की जान बची रहे यही बहुत है। ऐसी न जाने कितनी खौफनाक हत्याएं इस शहर के खाते में दर्ज हैं जिनके हत्यारे पुलिस की पकड में न तो आ पाये हैं और न ही कोई उम्मीद है। शहर की बीयर बारों, होटलों और चहल-पहल वाली सडकों पर चलने वाली गोलियों ने अमन पसंद शहरियों को खौफ के हवाले करने में कोई कसर नहीं छोडी है। मुंबई की तर्ज पर यहां के लोग भी अपने काम से काम रखने लगे हैं। उनके आसपास चाहे कुछ भी घट जाए पर वे बेपरवाह रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। ऐसा भी लगता है कि किसी के पास भी अपने आसपास नजर उठाकर देखने की फुर्सत नहीं है। फिर भी जिस तरह से ऊपर वाले ने इंसानों की पांचों उंगलियां बराबर नहीं बनायी हैं वैसे ही सभी इंसान मतलबी और निष्ठुर नहीं होते।नागपुर का ऑटो चालक विष्णु उस दिन मौत के मुंह में समा गया होता यदि शबाना खान उसकी सहायता के लिए आगे नहीं आतीं। नागपुर का पंचशील चौक एक भीडभाड वाला इलाका है। लोगों का यहां निरंतर आना-जाना लगा रहता है। विष्णु छात्रों को स्कूल पहुंचाने का काम करता है। २४ फरवरी के दिन वह घर लौट रहा था। सिग्नल की लाल बत्ती होने के कारण उसे उसी पंचशील चौक पर रूकना पडा जहां किसी को किसी की कोई परवाह नहीं रहती। हर कोई जल्दी में होता है। अचानक विष्णु के सीने में दर्द उठा और ग्रीन सिग्नल हो जाने के बाद भी वह ऑटो शुरू न कर सका। उसने आते-जाते कई लोगों से मदद की गुहार लगायी पर किसी के पास भी उसकी फरियाद सुनने की फुर्सत नहीं थी। यह संयोग ही था कि ऐन उसी वक्त शबाना खान की कार वहीं पर खराब हो गयी जहां विष्णु सीने में दर्द होने कारण बुरी तरह से कराह रहा था। शबाना जी के साथ उनकी सास भी थीं। शबाना जी कार से उतरीं। उन्होंने भी लोगों से विष्णु की सहायता करने को कहा पर किसी ने भी सुनना गंवारा नहीं किया। ऐसे विकट हालात में शबाना जी ने एक दूसरे ऑटो वाले को किराये पर लिया और मौत से लड रहे विष्णु को ऑटो में बिठाकर प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ डा. अजीज खान के अस्पताल जा पहुंचीं। अस्पताल पहुंच कर उन्होंने खुद ही विष्णु को स्ट्रेचर में डाला और डॉक्टर के केबिन तक ले गई। डॉ. ने जांच के बाद बताया कि यदि विष्णु को अस्पताल लाने में पांच मिनट की भी देरी हो जाती तो उसकी मौत तय थी। विष्णु का इलाज प्रारंभ हो गया और शबाना जी ने उसके मित्रों और परिवार वालों तक उसकी नाजुक हालत की सूचना पहुंचा दी। इतना ही नहीं उन्होंने डॉक्टर को भी पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया कि वे पैसों की कतई चिंता न करें। विष्णु के इलाज में जो भी खर्चा आयेगा उसका भुगतान वे खुद करेंगी। हृदयरोग से पीडित विष्णु को तमाम सुविधाएं उपलब्ध करवायी गयीं। जितने दिन तक वह अस्पताल में भर्ती रहा, शबाना जी उसका हाल-चाल जानने के लिए आती रहीं।हर किसी के जीने के तौर-तरीके अलग-अलग होते हैं। अंधाधुंध दौलत कमाने के बाद अधिकांश लोग अपने घर-परिवार के होकर रह जाते हैं। भौतिक सुख-सुविधाओं का मोहपाश उन्हें इस कदर जकड लेता है कि उन्हें और कुछ दिखायी ही नहीं देता। आसपास कोई दम भी तोड रहा हो, तो भी वे देखना तक जरूरी नहीं समझते। ऐसे भी बहुतेरे हैं जो अपनों के साथ भी दरिंदगी से पेश आते हैं। पर कुछ लोग खास होते हैं जिनके जीवन जीने के सलीके को देखकर इस बात पर यकीन करने को विवश हो जाना पडता है कि दुनिया भले ही कितनी बदल गयी हो पर फिर भी कुछ लोगों में सच्ची इंसानियत अभी जिंदा है। वे खुद के लिए नहीं, सिर्फ और सिर्फ दूसरों के लिए जीते हैं। उनके लिए जाति और धर्म कोई मायने नही रखते।नागपुर में रहने वाले मेजर हेमंत जकाते और उनकी धर्म पत्नी श्रीमती सुलभा जकाते के बारे में आप क्या कहेंगे, जिन्होंने अपनी सारी जमीन-जायदाद और घर बेचकर मिले धन को समाजसेवा के लिए न्यौछावर कर दिया है और खुद एक वृद्धाश्रम में रह कर निरंतर समाजसेवा में तल्लीन हैं। मेजर हेमंत जकाते १९६२ में हुए भारत-चीन तथा १९७१ के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अपने जौहर दिखा चुके हैं। सरकार के द्वारा उन्हें नौ मैडल देकर सम्मानित भी किया जा चुका है।
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