Monday, March 26, 2012
राजधर्म के बौने हो जाने की पीडा
ममता बनर्जी को बंगाल की शेरनी कहा जाता है। इस शेरनी के पंजे बडे नुकीले हैं। अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर डॉ.मनमोहन सिंह तक के चेहरों पर इन पंजों के घाव देखे जा सकते हैं। और भी न जाने कितनों को शेरनी घायल कर चुकी है। उनके ताजा शिकार हैं दिनेश त्रिवेदी। इन महाशय की रेलमंत्री की कुर्सी ममता की जिद की बलि चढ चुकी है। त्रिवेदी ने वैसा रेल बजट पेश नहीं किया जैसा ममता चाहती थीं, इसलिए एक ही झटके से बाहर का रास्ता दिखवा दिया गया। सच यह भी है कि त्रिवेदी ममता की राजनीति के चरित्र को समझ ही नही पाये। अपनी पार्टी की सुप्रीमों को खुश करने की बजाय रेल के भले में उलझ गये थे। उनके द्वारा पेश किये गये बजट को देश के प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री ने भी सराहा। पर उनकी तारीफ धरी की धरी रह गयी। ममता के आगे सब झुक गये। यहां तक कि देश के प्रधानमंत्री भी, जो कि कोई भी फैसला लेने में सक्षम हैं। पर जिस तरह से ममता की जिद के चलते दिनेश त्रिवेदी की छुट्टी की गयी और मुकुल रॉय को रेल मंत्रालय सौंपा गया उससे यह स्पष्ट हो गया है कि यह शेरनी अपनी पार्टी के सांसदों को महज प्यादा भर समझती है। प्यादे की क्या मजाल कि जो वह राजा के हुक्म के खिलाफ चलने का साहस दिखाए। ममता की मर्जी थी इसलिए प्रधानमंत्री ने उनके सेवक मुकुल रॉय को रेल मंत्रालय की बागडोर सौंपने में देरी नहीं लगायी। मुकुल महज बारहवीं पास हैं। गुजराती परिवार में जन्में दिनेश त्रिवेदी ने कोलकाता के सेंट जेवियर्स कालेज से स्नातक होने के बाद अमेरिका के टेक्सास विश्व विद्यालय से एमबीए की डिग्री प्राप्त की हुई है। शौकिया पायलट की ट्रेनिंग भी ले चुके हैं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के काफी करीब रहे हैं। स्वामी विवेकानंद के जीवन चरित्र से प्रभावित त्रिवेदी भारतीय रेलवे का चेहरा-मोहरा बदलना चाहते थे। एक लाख से ज्यादा बेरोजगारों को नौकरी देने का उनका इरादा था। उनकी मंशा थी कि रेलवे पटरी पर आ जाए और देशवासी अच्छी और सुरक्षित यात्रा का सुख भोग सकें। उन्होंने बिना कोई चालाकी दिखाये रेल भाडा बढा दिया और अपनी ही पार्टी की सुप्रीमो के कोप के शिकार हो गये। ममता तो २०११ में ही मुकुल रॉय को रेलमंत्री बनवाने पर तुली थीं। तब उनकी नहीं चल पायी। उन्हें जिस मौके का इंतजार था वो आखिरकार उन्हें मिल ही गया। चाटूकारिता सता पा गयी और खुद्दारी धकिया दी गयी।ममता की दीदीगिरी के शिकार हुए दिनेश त्रिवेदी सिद्धांत प्रेमी हैं। बोलने से पहले दस बार सोचते हैं। मुकुल रॉय बोलते पहले हैं और सोचते बाद में हैं। उन्हें यह भी तहजीब नहीं है कि देश के प्रधानमंत्री के समक्ष किस तरह से पेश आना चाहिए। ममता के हल्के से इशारे पर एक टांग पर खडे हो जाने वाले मुकुल जब रेल मंत्रालय में रेल मंत्री थे तब गोवाहटी में हुए बम विस्फोट में एक सवारी गाडी पटरी से उतर गयी थी जिसमें १०० से ज्यादा लोग गंभीर रूप से घायल हो गये थे। प्रधानमंत्री ने मुकुल को दुर्घटना स्थल का दौरा करने के निर्देश दिये पर वे नहीं गये। प्रधानमंत्री को यह बात बहुत खटकी थी पर फिर भी वे मन मसोस कर रह गये थे। आखिरकार ऐसे नकारा व्यक्ति को उन्हें रेल मंत्रालय की पूरी बागडोर सौंपने को विवश होना पडा है। यह भी कहा जाता है कि मुकुल रॉय ममता बनर्जी के अमर qसह हैं। कोई कितना भी ईमानदार होने का ढिंढोरा पीट ले पर धन के बिना राजनीतिक पार्टियों का चला पाना लगभग असंभव है। मुकुल रॉय दलाल अमर सिंह की तरह हर काम बखूबी करना जानते हैं। उनके लिए उनकी ममता दीदी और उनकी पार्टी ही सब कुछ है। देश रसातल में जाता है तो जाए पर उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आने वाली। वे तो हमेशा ममता दीदी जिंदाबाद करते रहेंगे।तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बनर्जी ने जिस तरह से दिनेश त्रिवेदी को अपमानित कर अपनी मनमानी की उससे देशवासी यह मानने को भी विवश हो गये हैं कि हिंदुस्तान का प्रधानमंत्री वाकई बेहद कमजोर है। अगर डा. मनमोहन सिंह ममता को उसकी औकात दिखा देते और पीएम की कुर्सी को दांव पर लगा देते तो यकीनन देश का सिर ऊंचा होता। पर वे ऐसा नहीं कर पाये। उन्होंने ममता की दादागिरी के सामने अपने सभी हथियार डाल दिये। दिनेश त्रिवेदी ने रेल किराया बढाने की घोषणा बहुत सोच समझ कर की। वे वर्षों से चली आ रही परंपरा को भी तोडना चाहते थे। लालू और ममता के रेलवे बजट में भले ही किराया नहीं बढाया गया पर रेलवे का भी कोई भला नहीं हो पाया। त्रिवेदी जानते हैं कि देश की न जाने कितनी ऐसी रेल पटरीयां हैं जो सड-गल चुकी हैं और जब- तब रेल दुर्घटनाओं को आमंत्रित करती रहती हैं। मानव रहित रेलवे क्रासिंग पर दुर्घटनाओं का अंबार लगा रहता है। मुकुल रॉय के रेलमंत्री पद की शपथ लेते-लेते दो ट्रेन हादसे हो गये। १७ लोग मौत की मुंह में समा गये। पर यह उनकी चिंता का विषय नहीं है। इस देश में रेल दुर्घटनाओं में यात्रियों का मरना आम बात है। सरकार मृतकों के आश्रितों को दो-चार लाख का मुआवजा देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती है। जिस देश में मुकुल रॉय जैसे लापरवाह रेल मंत्री हों उसका तो भगवान ही मालिक है।देश के संसदीय इतिहास में यह पहला मौका है जब किसी रेल मंत्री को रेल बजट पेश करने के बाद अपनी कुर्सी गवानी पडी हो। जानकार मानते हैं कि त्रिवेदी का ध्यान रेलवे के भविष्य पर केंद्रित था। देशवासियों की यात्रा को पूरी तरह से सुरक्षित और आरामदायक बनाने के लिए रेल किराये में कहीं-कहीं बढोत्तरी यकीनन जरूरी है। त्रिवेदी कुछ ज्यादा जल्दी में थे। यदि वे साधारण दर्जे के किराये नहीं बढाते और स्लीपर क्लास में भी नाम मात्र की वृद्धि करते तो इतना हंगामा नहीं मचता। पूर्व में रेल मंत्रालय संभाल चुके नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और ममता बनर्जी में जो बेवकूफ बनाने की कला है उसे दिनेश त्रिवेदी आत्मसात नहीं कर पाये। एक निष्छल और जागरूक मंत्री की जिस तरह से कुर्सी छीनी गयी है उससे सजग देशवासियों में बहुत गलत संदेश गया है। स्वार्थी गठबंधन के समक्ष राजधर्म के बौने हो जाने की पीडा देश के चेहरे पर भी देखी जा सकती है।
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