Thursday, May 17, 2012

कुछ सडी हुई मछलियां

दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारत की संसद के साठ वर्ष पूर्ण होने की खुशी में जश्न मनाया गया। साठ साल पूर्व १३ मई १९५२ को संसद के दोनों सदनों की गरिमामय शुरुआत हुई थी। देश के संसदीय लोकतंत्र के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर सभी पार्टियों के नेताओं ने अभूतपूर्व उत्साह का प्रदर्शन किया। लालूप्रसाद यादव जैसे नेता आक्रोष दिखाते नजर आये। उन्हें इस बात की पीडा थी कि कुछ लोग सांसदों के चरित्र पर उंगली उठाकर संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाते रहते हैं। लालू मार्का नेताओं को अब कौन समझाये कि वो भी एक जमाना था जब देश की संसद में पंडित जवाहरलाल नेहरु, आचार्य जे.बी. कृपलानी, डॉ. राम मनोहर लोहिया, अटल बिहारी वाजपेयी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे निष्कलंक राजनेता विराजमान रहा करते थे। उन पर निशाना साधने की शायद ही कोई जुर्रत कर पाता था। देश का हर नागरिक उन्हें सम्मान देता था। सम्मान आज भी मिलता है, पर सभी को नहीं। यह तो अच्छा है कि हिं‍दुस्तान में अभिव्यक्ति की आजादी है। नहीं तो लालू प्रसाद यादव, पप्पू यादव और शहाबुद्दीन जैसे भ्रष्ट्राचारी और बाहुबलि जिन्हें संसद भवन में पहुंचने का मौका मिलता रहा है अपने खिलाफ बोलने वालों की गर्दन ही दबोच डालते। कुछ बददिमाग नेताओं के सांसद बन जाने के कारण विधि बनाने वाली संस्था के लिए विधि निर्माण का काम गौण हो गया है। वर्तमान समस्याओं की अनदेखी कर उन विषयों पर समय नष्ट किया जाता है जिनसे आम आदमी को कोई फायदा नहीं होता। वर्षों पहले बनाये गये कार्टून में सांसद इस कदर उलझ कर रह जाते हैं कि जैसे देश के सामने और कोई समस्या बची ही न हो।
इस सच से कौन इंकार कर सकता है कि साठ वर्षों के दौरान संसद में अनेकानेक बदलाव आये हैं। अपवादों को छोड दें तो संसद और सांसदों का इतिहास यह विश्वास तो जगाता ही है कि इस देश की एकता को कोई भी खंडित नहीं कर सकता। पडोसी देश पाकिस्तान आजाद होने के बाद भी सही मायने में आजाद नहीं हो पाया। वहां पर लोकतंत्र को मजबूत जडें जमाने का अवसर अभी तक नहीं मिल पाया है। इस मामले में हम कितने खुशकिस्मत हैं, सारी दुनिया जानती भी है और स्वीकारती भी है। जो लोग सांसदों को कटघरे में खडे करते रहते हैं उनकी भी यह मंशा है कि ईमानदार लोग सांसद बन संसद भवन पहुंचे। उन्हीं की बदौलत ही देश की संसदीय प्रणाली मजबूत होगी और देश का सर्वांगीण विकास हो पायेगा। इस चिं‍ता और शिकायत को नकारा नहीं जा सकता कि वर्तमान में लोकसभा का चुनाव लडना हर किसी के बस की बात नहीं है। राष्ट्रभक्ति और ईमानदारी धन के सामने कमजोर पड जाती है और उन लोगों को भी सांसद बनने का मौका मिल जाता है जो संसद की गरिमा को बरकरार नहीं रख पाते। जिस राज्यसभा में विद्वानों, कलाकारों और राजनीति के धुरंधरों को पहुंचना चाहिए था वहां पर खनिज माफियाओं, शराब किं‍ग तथा तरह-तरह के अवैध धंधे करने वालों की उपस्थिति बढती चली जा रही है। यह भयावह तस्वीर उन्हें बेहद आहत करती है जो निरंतर देशहित में लगे रहते हैं।
साठ वर्ष के जश्न के अवसर पर संसद का एक अलग चेहरा नजर आया। नहीं तो होता यह है कि ज्यादातर समय शोर शराबे और एक दूसरे की टांग खिं‍चाई में निकल जाता है। भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवानी को जिस तल्लीनता और सम्मान के साथ सुना गया वह भी बेमिसाल था। यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी पहली बार बडे इत्मीनान से भाषण देते हुए देखा गया। ऐसा कतई नहीं लग रहा था कि यह वही संसद है जहां कार्यकाही निरंतर बाधित होती रहती है और शोर शराबे और हंगामें का शर्मनाक सिलसिला बना रहता है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिं‍ह ने याद दिलाया कि संसद के काम काज के घंटे घटते चले जा रहे हैं। यानी अधिकांश सांसद अपने दायित्व के प्रति गंभीर नहीं हैं। संसद का एक-एक मिनट कीमती होता है क्योंकि इस पर देश और दुनिया की निगाहें लगी रहती हैं और अच्छा खासा खर्चा होता है। सांसदो के द्वारा नोट लेकर प्रश्न पूछने का मामला सामने आने के बाद निश्चय ही संसद की गरिमा को चोट पहुंची थी। तब यह सवाल भी उठा था कि क्या यह वही संसद है जहां राम मनोहर लोहिया, जार्ज फर्नाडीस और चंद्रशेखर जैसी महान हस्तियां संसद को गौरवान्वित करते हुए आम आदमी की तकलीफों को निर्भीकता और निष्पक्षता के साथ उठाती थीं। समाज सेवक अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे समाज सेवकों को देश की चिं‍ता हैं इसलिए वे सांसदो के आचरण को लेकर सवाल उठाते रहते हैं। कोई भी यह नहीं कहता कि सभी सांसद भ्रष्ट ओर निकम्मे हैं। कुछ सडी हुई मछलियों के कारण पूरे तालाब की कैसी दुर्गति हो जाती है इससे तो हर कोई वाकिफ है।

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