ऐसा हो ही नहीं सकता कि २ अक्टुबर के दिन देश को बापू की याद न आए। कांग्रेसी भले ही उन्हें भूल जाएं, पर देशवासी नहीं। न जाने कितने सडक छाप नेताओ ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम की कस्में खाकर अपनी किस्मत चमकायी है। खुद को उनका सच्चा अनुयायी कहने वाले कितने सच्चे हैं यह उनकी तरक्की और देश की बदहाली को देख कर सहज ही जाना जा सकता है। इस बार के दो अक्टुबर के दिन एक खबर ने हैरत में डालकर रख दिया। नागपुर की जेल में बंद कैदियों का बयान आया कि अपराध करने से पहले यदि उन्होंने बापू के जीवन चरित्र को पढ लिया होता तो भूलकर भी अपराध का मार्ग नहीं अपनाते।
नागपुर के मध्यवर्ती कारागृह के कैदियों को सुधारने के लिए कई तरह के प्रयोग और प्रयास किये जाते हैं। हिंसा के मार्ग पर चलकर जेल की सलाखों तक पहुंचने वाले अपराधियों को सत्य और अहिंसा का पाठ पढाने के लिए गांधी के मूलभूत विचारों से अवगत कराया जाता है। यह सिलसिला पिछले पांच-सात साल से चला आ रहा है। कैदियों को मानवता के सच्चे पुजारी महात्मा गांधी की किताब पढने को दी गयी। कैदी महात्मा गांधी को कहां तक समझ पाये यह जांचने के लिए उनका इम्तहान भी लिया गया। १७५ पुरुष व महिला कैदियों ने 'गांधी जी' नामक किताब को पढने के बाद बडे उत्साह के साथ परीक्षा में भाग लिया। युवा कैदियों के साथ-साथ उम्रदराज कैदियों का उत्साह भी देखते बनता था। एक बुजुर्ग कैदी को इस बात का बेहद मलाल था कि वह गांधी को पहले क्यों नहीं जान पाया। अगर उसने इस महापुरुष की किताब पहले पढी होती तो आज वह अपराधी होने की बजाय देश का एक कर्मठ और ईमानदार नागरिक होता।
कैदियों की पीढा में छिपा संदेश बहुत कुछ कह रहा है। गांधी की तस्वीर पर माला पहनाने और सिर पर टोपी लगाने वाले नेता क्या इस पर गौर फरमायेंगे और देश को गर्त में धकेलने से बाज आएंगे? गांधी जी के नागपुर से बडे करीबी रिश्ते थे। इस शहर के कुछ नेताओं ने भी भ्रष्टाचार और अनाचार के कीर्तिमान रचे हैं। बापू के नाम की ढोलक हमेशा उनके गले में लटकी रहती है। बापू के हत्यारे गोडसे के प्रशंसक भी महात्मा के नाम की माला जपने लगे हैं। चुनाव के मौसम में यह नाम बडा फायदेमंद साबित होता है। गांधी जी का आजादी के आंदोलन के दौरान इस शहर में आना-जाना लगा रहता था। घंटे भर की दूरी पर स्थित 'सेवा ग्राम' इस तथ्य की पुष्टि करता है। कई और भी निशानियां हैं जिनपर उनकी छाप आज भी जिंदा है। बापू के दो बेटों ने भी इस शहर के गली-कूचों की खाक छानी थी। उनके द्वितिय पुत्र हीरालाल गांधी को अपने पिता के उसूल रास नहीं आते थे। दरअसल हीरालाल में पिता के किसी गुण का नामोनिशान नहीं था। सच्चाई से दूर भागने वाला हीरालाल नशे में धुत रहता था। यह १९३७ की बात है। तब नागपुर के कई लोगों ने उसे नशे में यहां-वहां पडे हुए देखा था। उन्हीं में से एक सज्जन, जो कि महात्मा जी के सहयोगी भी थे, ने हीरालाल को नशे की हालत में कहीं सोये हुए देखा। उन्हें जब पता चला कि हीरालाल, महात्मा गांधी के पुत्र हैं तो उन्होंने उसे समझाया कि उसकी हरकतों से बापू की बदनामी होगी। उन्होंने ही हीरालाल गांधी को नागपुर नगर परिषद कार्यालय में लिपिक की नौकरी भी दिलवा दी।
महात्मा गांधी को जब यह बात पता चली तो वे नौकरी दिलाने वाले महानुभाव पर जमकर उखडे थे कि उन्होंने एक शराबी को नौकरी क्यों दिलवायी। तय है कि गांधी जी का बेटा होने की 'योग्यता' के चलते ही नियम-कायदों को ताक पर रखकर हीरालाल गांधी को नौकरी दे दी गयी थी। गांधी जी की लताड के बाद हीरालाल को नौकरी से हाथ धोना प‹डा था। इस घटना ने आग में घी डालने का काम किया था। अपने सिद्धांतवादी पिता से खार खाने वाला पुत्र का आगबबूला हो उठना स्वाभाविक था। गांधी जी ने इसकी कतई परवाह नहीं की। वे अपने आंदोलन को गति देने में लीन रहे। सत्य और इंसाफ के इस पुजारी के तीसरे बेटे राम मोहन गांधी ने १९६७ तक नागपुर शहर के एक दैनिक अखबार में नौकरी कर जैसे-तैसे अपने दिन काटे थे। यह था राष्ट्रपिता के जीवन का असली सच। बापू कहते थे कि योग्य आदमी को उसका हक मिलना चाहिए। गरीबी भी qहसा का प्रतिरूप है। यह हिंसा आज भी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। इसे फैलाने वाले ज्यादातर बापू के तथाकथित चेले हैं जो सत्ता और अपनों के लिए क्या कुछ नहीं कर गुजरते। सरकारी संपदा को लूटने और लुटवाने में लगे अधिकांश राजनेताओं को भूल-बिसरे ही आम आदमी याद आता है। हां चुनाव के वक्त जरूर उन्हें उनकी चिंता सताने लगती है। देशवासियों को त्याग और समर्पण का संदेश देने वाले हुक्मरान कितने दो मुंहे और निर्दयी हैं इसका ज्वलंत उदाहरण हाल ही में देखने में आया है। मनमोहन सरकार ने पिछले दिनों अपनी सरकार की वर्षगांठ मनायी। इसमें हर तरह के तामझाम थे। डिनर में एक प्लेट पर ८००० रुपये फूंक कर इस देश को चलाने वालों ने बता दिया कि वे किसी राजा से कम नहीं हैं। जनता चाहे कंगाली की दहलीज पर बैठकर रोती-कलपती रहे पर उन्हें तो मौज मनानी ही है। यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। कांग्रेस की प्रवक्ता रेणुका चौधरी से जब इस शाही खर्चे को लेकर सवाल किया गया तो वे बौखला उठीं। उनका कहना था कि अगर जनता भूखी मर रही है तो क्या हम भी भूखे रहें? खाना-पीना बंद कर दें! मतलब साफ है कि सरकारी खजाने के लूटेरे इतने निर्मम हो चुके हैं कि उनके लिए राष्ट्रपिता के विचार और संदेश कोई मायने नहीं रखते। गांधी के नाम पर वोट हथियाना और सत्ता सुख पाना ही उनका एकमात्र मकसद रह गया है...।
नागपुर के मध्यवर्ती कारागृह के कैदियों को सुधारने के लिए कई तरह के प्रयोग और प्रयास किये जाते हैं। हिंसा के मार्ग पर चलकर जेल की सलाखों तक पहुंचने वाले अपराधियों को सत्य और अहिंसा का पाठ पढाने के लिए गांधी के मूलभूत विचारों से अवगत कराया जाता है। यह सिलसिला पिछले पांच-सात साल से चला आ रहा है। कैदियों को मानवता के सच्चे पुजारी महात्मा गांधी की किताब पढने को दी गयी। कैदी महात्मा गांधी को कहां तक समझ पाये यह जांचने के लिए उनका इम्तहान भी लिया गया। १७५ पुरुष व महिला कैदियों ने 'गांधी जी' नामक किताब को पढने के बाद बडे उत्साह के साथ परीक्षा में भाग लिया। युवा कैदियों के साथ-साथ उम्रदराज कैदियों का उत्साह भी देखते बनता था। एक बुजुर्ग कैदी को इस बात का बेहद मलाल था कि वह गांधी को पहले क्यों नहीं जान पाया। अगर उसने इस महापुरुष की किताब पहले पढी होती तो आज वह अपराधी होने की बजाय देश का एक कर्मठ और ईमानदार नागरिक होता।
कैदियों की पीढा में छिपा संदेश बहुत कुछ कह रहा है। गांधी की तस्वीर पर माला पहनाने और सिर पर टोपी लगाने वाले नेता क्या इस पर गौर फरमायेंगे और देश को गर्त में धकेलने से बाज आएंगे? गांधी जी के नागपुर से बडे करीबी रिश्ते थे। इस शहर के कुछ नेताओं ने भी भ्रष्टाचार और अनाचार के कीर्तिमान रचे हैं। बापू के नाम की ढोलक हमेशा उनके गले में लटकी रहती है। बापू के हत्यारे गोडसे के प्रशंसक भी महात्मा के नाम की माला जपने लगे हैं। चुनाव के मौसम में यह नाम बडा फायदेमंद साबित होता है। गांधी जी का आजादी के आंदोलन के दौरान इस शहर में आना-जाना लगा रहता था। घंटे भर की दूरी पर स्थित 'सेवा ग्राम' इस तथ्य की पुष्टि करता है। कई और भी निशानियां हैं जिनपर उनकी छाप आज भी जिंदा है। बापू के दो बेटों ने भी इस शहर के गली-कूचों की खाक छानी थी। उनके द्वितिय पुत्र हीरालाल गांधी को अपने पिता के उसूल रास नहीं आते थे। दरअसल हीरालाल में पिता के किसी गुण का नामोनिशान नहीं था। सच्चाई से दूर भागने वाला हीरालाल नशे में धुत रहता था। यह १९३७ की बात है। तब नागपुर के कई लोगों ने उसे नशे में यहां-वहां पडे हुए देखा था। उन्हीं में से एक सज्जन, जो कि महात्मा जी के सहयोगी भी थे, ने हीरालाल को नशे की हालत में कहीं सोये हुए देखा। उन्हें जब पता चला कि हीरालाल, महात्मा गांधी के पुत्र हैं तो उन्होंने उसे समझाया कि उसकी हरकतों से बापू की बदनामी होगी। उन्होंने ही हीरालाल गांधी को नागपुर नगर परिषद कार्यालय में लिपिक की नौकरी भी दिलवा दी।
महात्मा गांधी को जब यह बात पता चली तो वे नौकरी दिलाने वाले महानुभाव पर जमकर उखडे थे कि उन्होंने एक शराबी को नौकरी क्यों दिलवायी। तय है कि गांधी जी का बेटा होने की 'योग्यता' के चलते ही नियम-कायदों को ताक पर रखकर हीरालाल गांधी को नौकरी दे दी गयी थी। गांधी जी की लताड के बाद हीरालाल को नौकरी से हाथ धोना प‹डा था। इस घटना ने आग में घी डालने का काम किया था। अपने सिद्धांतवादी पिता से खार खाने वाला पुत्र का आगबबूला हो उठना स्वाभाविक था। गांधी जी ने इसकी कतई परवाह नहीं की। वे अपने आंदोलन को गति देने में लीन रहे। सत्य और इंसाफ के इस पुजारी के तीसरे बेटे राम मोहन गांधी ने १९६७ तक नागपुर शहर के एक दैनिक अखबार में नौकरी कर जैसे-तैसे अपने दिन काटे थे। यह था राष्ट्रपिता के जीवन का असली सच। बापू कहते थे कि योग्य आदमी को उसका हक मिलना चाहिए। गरीबी भी qहसा का प्रतिरूप है। यह हिंसा आज भी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। इसे फैलाने वाले ज्यादातर बापू के तथाकथित चेले हैं जो सत्ता और अपनों के लिए क्या कुछ नहीं कर गुजरते। सरकारी संपदा को लूटने और लुटवाने में लगे अधिकांश राजनेताओं को भूल-बिसरे ही आम आदमी याद आता है। हां चुनाव के वक्त जरूर उन्हें उनकी चिंता सताने लगती है। देशवासियों को त्याग और समर्पण का संदेश देने वाले हुक्मरान कितने दो मुंहे और निर्दयी हैं इसका ज्वलंत उदाहरण हाल ही में देखने में आया है। मनमोहन सरकार ने पिछले दिनों अपनी सरकार की वर्षगांठ मनायी। इसमें हर तरह के तामझाम थे। डिनर में एक प्लेट पर ८००० रुपये फूंक कर इस देश को चलाने वालों ने बता दिया कि वे किसी राजा से कम नहीं हैं। जनता चाहे कंगाली की दहलीज पर बैठकर रोती-कलपती रहे पर उन्हें तो मौज मनानी ही है। यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। कांग्रेस की प्रवक्ता रेणुका चौधरी से जब इस शाही खर्चे को लेकर सवाल किया गया तो वे बौखला उठीं। उनका कहना था कि अगर जनता भूखी मर रही है तो क्या हम भी भूखे रहें? खाना-पीना बंद कर दें! मतलब साफ है कि सरकारी खजाने के लूटेरे इतने निर्मम हो चुके हैं कि उनके लिए राष्ट्रपिता के विचार और संदेश कोई मायने नहीं रखते। गांधी के नाम पर वोट हथियाना और सत्ता सुख पाना ही उनका एकमात्र मकसद रह गया है...।
No comments:
Post a Comment