Thursday, May 30, 2013

छत्तीसगढ की माटी का सपूत

देश के बेइमान पूंजीपतियों, भ्रष्ट खनन माफियाओं, सरकारी ठेकेदारों और सत्ता के दलालों से हर वर्ष हजारों करोड रुपयों की वसूली कर देश के ही निर्दोषों को मौत के घाट उतारने वाले नक्सलियों ने छत्तीसगढ में हैवानियत का नंगा नाच कर एक बार फिर से अपने घोर हिं‍सक इरादे स्पष्ट कर दिये हैं। न तो उनमें इंसानियत बची है और न ही देश के कानून और संविधान के प्रति कोई आदर-सम्मान बचा है। अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए वे दरिंदगी की तमाम सीमांए भी लांघ सकते हैं। कहते हैं कि २०५० तक येन-केन-प्रकारेण उनका देश पर राज करने का इरादा है। इसी इरादे ने उनके हाथों में बम-बारुद और बंदूकें थमा दी हैं। इंसान से नरभक्षी बन चुके नक्सलियों को मुल्क के ही ऐसे कई बुद्धिजीवियों का भी भरपूर समर्थन हासिल है जिन्हें लोकतंत्र में ढेरों कमियां नजर आती हैं और देश का अमन-चैन कतई नहीं सुहाता। मानवाधिकार संगठन भी नक्सलियों के द्वारा किये जाने वाले रक्तपात को देखकर आंखें मूंद लेते हैं। उन्हें इंसानी खून महज लाल रंग नजर आता है और खूंखार नक्सली किसी क्रांतिकारी से कम नहीं लगते। छत्तीसगढ में कांग्रेस के काफिले पर जिस तरह से नक्सलियों ने हमला किया और चुन-चुन कर नेताओं और कार्यकर्ताओं को गोलियों से भूना उससे तो यही लगता है कि नक्सली हिं‍सक जानवरों को भी मात देने की ठान चुके हैं।
कांग्रेस के नेता और सलवा जुडूम के प्रणेता महेंद्र कर्मा के सीने में चालीस से ज्यादा गोलियां उतारने के बाद उनके मृत शरीर को ७८ बार चाकूओं से गोदना और फिर उनका सिर ईट-पत्थरों से कुचलने का भयावह निर्मम कृत्य खूंखार जंगली जानवर ही कर सकते हैं। उस पर उनकी लाश के इर्द-गिर्द पुरुष नक्सलियों के साथ-साथ महिला नक्सलियों का खुशी से झूमते हुए नृत्य करना सिर्फ और सिर्फ यही बताता है कि यह वहशी नक्सली जंगली भेडि‍यों से भी बदतर हैं। आखिर ऐसा कौन-सा गुनाह किया था महेंद्र कर्मा ने जो उन्हें ऐसी दिल दहला देने वाली मौत मारा गया? छत्तीसगढ में इसी वर्ष विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। नक्सलियों ने कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला कर अपनी असली मंशा जाहिर कर दी है। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान भी नक्सलियों ने मतदाताओं को भयभीत करने के अनेकों प्रयास किये थे। उन्होंने बस्तर में लोगों को धमकाया था कि अगर मतदान किया तो उनका बहुत बुरा हश्र होगा। पर फिर भी नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में लोगों ने मतदान में बढचढ कर भाग लिया था। नक्सलियों को इससे बहुत तकलीफ हुई थी। उन्हे यह अहसास भी हो गया था कि उनकी मनमानी ज्यादा दिन तक नहीं चलने वाली।
इस बार भी ऐन चुनाव से कुछ महीने पहले महेंद्र कर्मा और अन्य कांग्रेसियों को गोलियों से भूनने के पीछे नक्सलियों का एक ही मकसद है कि आतंक का ऐसा वातावरण बनाया जाए कि जिससे लोग मतदान करने की हिम्मत ही न कर पाएं। नक्सलियों की अंधी क्रुरता के शिकार हुए महेंद्र कर्मा बस्तर को हिं‍सा से मुक्त कराना चाहते थे। उन्होंने कभी भी चुनाव जीतने के लिए ओछी राजनीति का सहारा नहीं लिया। छत्तीसगढ में ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं है जो चुनावी जंग जीतने के लिए सर्वप्रथम नक्सलियों तक थैलियां पहुंचाते हैं और उसके बाद ही अपने चुनाव प्रचार का बिगुल बजाते हैं। नक्सलियों ने पहले भी कई बार महेंद्र कर्मा को अपना निशाना बनाया था। ८ नवंबर २०१२ को हुए हमले में वे बाल-बाल बच गये थे। प्रदेश और देश के किसी दूसरे नेता पर इतने नक्सली आक्रमण हुए होते तो वह राजनीति से ही संन्यास ले लेता। ये महेंद्र कर्मा ही थे जो आखिर तक नक्सलियों के आतंक का सामना करते रहे और अपने लक्ष्य से कतई नहीं डिगे। यह सच भी कम चौंकाने वाला नहीं है कि कांग्रेस हो या भाजपा दोनों पार्टियों में अधिकांश ऐसे नेता भरे पडे हैं जो नक्सली इलाकों में जाने का साहस ही नहीं कर पाते। नक्सलियों के गढ बस्तर में रहकर नक्सलियों के खिलाफ जंग लडने वाले इस नेता ने इसी लडाई में अपने परिवार के कई सदस्यों को खोया और सतत एक सच्चे देशभक्त होने का उदाहरण पेश किया। यह तथ्य भी हैरान करने वाले है कि उनके मनोबल को तोडने की साजिशें रचने वालों में कई कांग्रेसी नेता भी शामिल थे। छत्तीसगढ की माटी के सपूत का आत्मबल अंत तक बरकरार रहा। वे निर्भीकता के साथ शहीद हो गये और यह संदेश भी छोड गये वो कायर होते हैं जो हिं‍सा-आतंक और अन्याय के समक्ष घुटने टेक दिया करते हैं। महेंद्र कर्मा को अमानवीय मौत देने के बाद भी नक्सलियों की हैवानियत की आग नहीं बुझी। उनकी अंत्येष्टि के दौरान नक्सलियों ने उनके परिवार के सदस्यों को सात दिन के भीतर गांव छोडकर चले जाने की धमकी दे डाली।
शहीद कर्मा के सुपुत्र छबींद्र कर्मा ने भी अपने पिताश्री के अंदाज में हत्यारों को जवाब देने में देरी नहीं लगायी। उन्होंने हत्यारों को चुनौती दी है कि वे मैदान छोडकर कभी भी नहीं भागेंगे। वे अपने परिवार समेत गांव में ही रहकर आदिवासियों को उनके खिलाफ एकजुट कर सतत लडते रहेंगे। भले ही उन्हें तथा उनके परिवार के हर सदस्य को अपनी जान की कुर्बानी ही क्यों न देनी पडे...। छत्तीसगढ की माटी के इन जांबाज सपूतो को हमारा नमन और सलाम...।

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