अब तो इस देश की आम जनता को यकीन कर ही लेना चाहिए कि नेताओं, सत्ताधीशों और सत्ता के दलालों ने हिंदुस्तान को मंडी में तब्दील करके रख दिया है। जिधर देखो उधर मतलब परस्त सौदागर और उनकी सौदेबाजी। खरीदने और बेचने की इस भ्रष्ट मंडी में ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का कोई मोल नहीं है। बेइमानी और मनमानी का सिक्का धडल्ले से चल रहा है। नकली ने असली को बाहर खदेड दिया है। आयाराम, गयाराम यानी दलबदलूओं के प्रदेश हरियाणा के राज्यसभा सांसद वीरेंद्र सिंह ने अपनी ही पार्टी कांग्रेस तथा खुद को भरे चौराहे पर निर्वस्त्र कर डाला। इस कांग्रेसवीर ने रहस्योद्घाटन किया कि एक बार किसी ने मुझे बताया था कि राज्यसभा की सीट पाने के लिए १०० करोड खर्च करने पडते हैं। लेकिन खुशकिस्मती से उसे यह सीट ८० करोड में मिल गयी और उसे २० करोड का फायदा हो गया। वैसे यह कोई नयी जानकारी नहीं है। लगभग सब जानते हैं। लेकिन कांग्रेस के एक नामी नेता और सांसद के मुंह खोलने से हंगामा हो गया। वैसे अभी तक यही अनुमान लगते थे कि इस देश में दारू किंग विजय माल्या, भ्रष्ट अखबारीलाल, उद्योगपति और खनिज माफिया, पच्चीस-पचास करोड की दान-दक्षिणा की बदौलत राज्यसभा में आसानी से पहुंच जाते हैं। यह अस्सी और सौ करोड का खेल तो वाकई हैरत में डालने वाला है। इतने में तो कोई अच्छी-खासी फैक्टरी लगायी जा सकती है, जिसमें सैकडों बेरोजगारों को रोजगार मिल सकता है और खुद भी मालामाल हुआ जा सकता है। लेकिन अब यह तय लगता है कि कारखाने खडे करने से बेहतर धंधा तो राजनीति और राजनेताओं का कंधा है। करोडों रुपये की भेंट चढाकर राज्यसभा या विधान परिषद की सीट का जुगाड करो और पांच वर्षों में इतनी दौलत कमा लो जितनी बडे-बडे उद्योगपति भी न कमा पाते हों। अपने मुल्क में वर्षों से यही तो हो रहा है। ईमानदार चेहरों के लिए राज्यसभा की दहलीज तक पहुंच पाना मुंगेरीलाल के सपने जैसा है। जिनकी जेब में दम होता है उन्हें ही यह तोहफा मिलता है। भले ही वे हद दर्जे के अपराधी क्यों न हों। उनकी तिजोरियां ही उनकी असली योग्यता होती हैं।
राज्यसभा और विधान परिषद की तरह ही लोकसभा और विधान सभा के चुनाव लड पाना सच्चे और सीधे लोगों के बस की बात नहीं रही। हाल ही में असोसिएशन फार डेमोक्रैटिक रिफॉम्र्स(एडीआर)ने गहन अध्यन्न के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला है कि अपराधी छवि के उम्मीदवारों के मुकाबले साफ-सुथरे रेकॉर्ड वाले उम्मीदवारों के लिए चुनाव जीतना बेहद टेढी खीर होता है। काले धन की बरसात कर येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने वालों का जनसेवा से कोई लेना-देना नहीं होता। कम से कम समय में अधिकतम माया बटोरना ही उनका एकमात्र मकसद होता है। राजनीति के अपराधीकरण के इस दौर में शरीफ लोग तो राजनीति में कदम रखने से ही घबराते हैं। यही वजह है कि चोर-उचक्के भी चुनाव जीत जाते हैं। इनके चेहरे अलग-अलग होते हैं, लेकिन मकसद एक ही होता है! रेत माफिया, भू-माफिया, तेल माफिया, कोल माफिया और तमाम काले धंधों के सरगना इनके संगी-साथी होते हैं। मिल-बांटकर कमाने और खाने वाले। इसे मीडिया की गजब की सतर्कता का कमाल ही कह सकते हैं कि बहुत-सी दबी-छिपी सच्चाइयां लगातार बेपर्दा हो रही हैं और लोगों को चौंका रही हैं।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को प्रदेश और देश का एक सम्मानित नेता माना जाता है। भारतीय जनता पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी के काबिल भी समझती है। ऐसे राजनेता का नाम जब किसी माफिया से जुडता है तो लोग स्तब्ध रह जाते हैं और यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि आखिर किस पर भरोसा किया जाए! मुख्यमंत्री शिवराज के एकदम करीबी रेत माफिया दिलीप सूर्यवंशी और सुधीर शर्मा के यहां आयकर विभाग द्वारा मारे गये छापे में जो डायरियां मिलीं उनमें स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया गया है कि उन्होंने माइनिंग लायसेंस लेने के लिए प्रदेश के खनिज मंत्री राजेंद्र शुक्ला को मोटी घूस दी थी। इतना ही नहीं उच्च शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को भी करोडों की सौगात देने का जिक्र है। कुछ ऐसा ही हाल उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव का है। उन्होंने रेत तस्करों के दबाव में आकर ईमानदार आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को निलम्बित करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। दुर्गा नागपाल के निलंबन के खिलाफ देशभर में जब खूब हो-हल्ला मचा तो यह भी प्रचारित किया गया उन्होंने मस्जिद की दिवार को तोडने का आदेश दिया था। उनकी इस लापरवाही से दंगा भडकने की जबरदस्त आशंका थी। अब अखिलेश सरकार यह तो कहने से रही कि उसने मुसलमानों के वोटों की दिवार को और अधिक मजबूत बनाने के लिए एक ईमानदार अधिकारी के मनोबल की हत्या करने की कोशिश की है। अखिलेश के कारनामे से स्पष्ट है कि सत्ताधीशों की मतलबपरस्त कौम ईमानदार अधिकारियों के काम में बाधा डालती है। अवैध कारोबारियों की पीठ थपथपाती है। यही कारोबारी कभी न कभी राज्यसभा में पहुंचने के अधिकारी भी बन जाते हैं। दुर्गा की तरह अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित रहने वाले अधिकारी अक्सर सत्ताधीशों के दुलारों का निशाना बनते हैं। महाराष्ट्र के नासिक में २५ जनवरी २०११ को तेल माफिया ने एडीएम यशवंत सोनवने को तेल से नहलाकर जिन्दा जला दिया था। इसी तरह से ४ मार्च २०१२ को मध्यप्रदेश के मुरैना जिले में अवैध खनन माफिया के विरुद्ध कार्यवाई करने गये अधिकारी नरेंद्र कुमार को सरे आम ट्रेक्टर से कुचल कर खत्म कर दिया गया था। यह कोई नयी बात नहीं है। दुर्गा की किस्मत अच्छी थी जो रेत माफियाओं के हाथों मरने से बच गयीं। शक्ति कभी हारा नहीं करती। आज पूरा देश उनके साथ है। उनके साहस और आत्म-स्वाभिमान का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। यह कलम दुर्गा शक्ति को सलाम करती है।
राज्यसभा और विधान परिषद की तरह ही लोकसभा और विधान सभा के चुनाव लड पाना सच्चे और सीधे लोगों के बस की बात नहीं रही। हाल ही में असोसिएशन फार डेमोक्रैटिक रिफॉम्र्स(एडीआर)ने गहन अध्यन्न के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला है कि अपराधी छवि के उम्मीदवारों के मुकाबले साफ-सुथरे रेकॉर्ड वाले उम्मीदवारों के लिए चुनाव जीतना बेहद टेढी खीर होता है। काले धन की बरसात कर येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने वालों का जनसेवा से कोई लेना-देना नहीं होता। कम से कम समय में अधिकतम माया बटोरना ही उनका एकमात्र मकसद होता है। राजनीति के अपराधीकरण के इस दौर में शरीफ लोग तो राजनीति में कदम रखने से ही घबराते हैं। यही वजह है कि चोर-उचक्के भी चुनाव जीत जाते हैं। इनके चेहरे अलग-अलग होते हैं, लेकिन मकसद एक ही होता है! रेत माफिया, भू-माफिया, तेल माफिया, कोल माफिया और तमाम काले धंधों के सरगना इनके संगी-साथी होते हैं। मिल-बांटकर कमाने और खाने वाले। इसे मीडिया की गजब की सतर्कता का कमाल ही कह सकते हैं कि बहुत-सी दबी-छिपी सच्चाइयां लगातार बेपर्दा हो रही हैं और लोगों को चौंका रही हैं।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को प्रदेश और देश का एक सम्मानित नेता माना जाता है। भारतीय जनता पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी के काबिल भी समझती है। ऐसे राजनेता का नाम जब किसी माफिया से जुडता है तो लोग स्तब्ध रह जाते हैं और यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि आखिर किस पर भरोसा किया जाए! मुख्यमंत्री शिवराज के एकदम करीबी रेत माफिया दिलीप सूर्यवंशी और सुधीर शर्मा के यहां आयकर विभाग द्वारा मारे गये छापे में जो डायरियां मिलीं उनमें स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया गया है कि उन्होंने माइनिंग लायसेंस लेने के लिए प्रदेश के खनिज मंत्री राजेंद्र शुक्ला को मोटी घूस दी थी। इतना ही नहीं उच्च शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को भी करोडों की सौगात देने का जिक्र है। कुछ ऐसा ही हाल उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव का है। उन्होंने रेत तस्करों के दबाव में आकर ईमानदार आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को निलम्बित करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। दुर्गा नागपाल के निलंबन के खिलाफ देशभर में जब खूब हो-हल्ला मचा तो यह भी प्रचारित किया गया उन्होंने मस्जिद की दिवार को तोडने का आदेश दिया था। उनकी इस लापरवाही से दंगा भडकने की जबरदस्त आशंका थी। अब अखिलेश सरकार यह तो कहने से रही कि उसने मुसलमानों के वोटों की दिवार को और अधिक मजबूत बनाने के लिए एक ईमानदार अधिकारी के मनोबल की हत्या करने की कोशिश की है। अखिलेश के कारनामे से स्पष्ट है कि सत्ताधीशों की मतलबपरस्त कौम ईमानदार अधिकारियों के काम में बाधा डालती है। अवैध कारोबारियों की पीठ थपथपाती है। यही कारोबारी कभी न कभी राज्यसभा में पहुंचने के अधिकारी भी बन जाते हैं। दुर्गा की तरह अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित रहने वाले अधिकारी अक्सर सत्ताधीशों के दुलारों का निशाना बनते हैं। महाराष्ट्र के नासिक में २५ जनवरी २०११ को तेल माफिया ने एडीएम यशवंत सोनवने को तेल से नहलाकर जिन्दा जला दिया था। इसी तरह से ४ मार्च २०१२ को मध्यप्रदेश के मुरैना जिले में अवैध खनन माफिया के विरुद्ध कार्यवाई करने गये अधिकारी नरेंद्र कुमार को सरे आम ट्रेक्टर से कुचल कर खत्म कर दिया गया था। यह कोई नयी बात नहीं है। दुर्गा की किस्मत अच्छी थी जो रेत माफियाओं के हाथों मरने से बच गयीं। शक्ति कभी हारा नहीं करती। आज पूरा देश उनके साथ है। उनके साहस और आत्म-स्वाभिमान का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। यह कलम दुर्गा शक्ति को सलाम करती है।
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