Thursday, August 22, 2013

नायक और खलनायक

प्याज तो बहुत छोटी चीज़ है। सत्ता के लिए यह कुछ भी कर सकते हैं। वैसे भी नाटक करने में इनका कोई सानी नहीं है। बडे ही सिद्धहस्त कलाकार हैं ये। डबल रोल करने में भी माहिर हैं। कई तो ऐसे भी हैं जो खलनायक होने के बावजूद भी हमेशा नायक का चोला धारण किये रहते हैं। बरसाती मेंढक भी अपने-अपने रंग में आ जाते हैं। चुनावी मौसम के आते ही देशभर में इनकी उछलकूद शुरू हो जाती है। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली इनका बेहद पसंदीदा मंच है। देश भर के दर्शकों की निगाहें भी तो दिल्ली के इसी भव्य मंच पर टिकी रहती हैं।
मंच पर इन दिनों तरह-तरह के नाटक मंचित हो रहे हैं। मंच पर दूकाने सजी हैं। प्याज के ढेर लगे हैं। जोकरों के हाथों में तराजू हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पचास रुपये किलो में प्याज बेच रही हैं। भाजपा के विजय गोयल और आम आदमी पार्टी के अरविं‍द केजरीवाल अपने चुनावी प्याज चालीस रुपये किलो में बेच रहे हैं। तय है कि ज्यादा भीड इन्हीं दोनों स्टालों पर है। लोग धडाधड प्याज खरीद रहे हैं। शीला को गुस्सा आ रहा है। चिं‍तित भी हैं। चिं‍तन-मनन कर रही हैं। कमबख्त लुटिया डुबोने पर तुले हैं। पर मैं इनकी दाल किसी भी हाल में गलने नहीं दूंगी। देखती हूं कितने दिन तक घाटा खाकर प्याज बेचते हैं। एक-एक को नानी याद दिला दूंगी। आखिर दिल्ली में मेरी सरकार है। अपनी सल्तनत को यूं ही नहीं लुटने दूंगी। इन्हें मात देने के लिए सारी सरकारी तिजोरियां खोल दूंगी। यह लोग अगर बाज नहीं आए तो मुफ्त में प्याज के साथ-साथ दूसरी सभी सब्जियां बांटने से भी नहीं चूकूंगी। यह थके हुए खिलाडी क्या जानें सत्ता की ताकत।
भाजपा के लिए तो यह बदला लेने का बेहद अच्छा मौका है। वह यह कैसे भूल सकती है कि १९९८ में इसी प्याज की वजह से ही उसने शीला दीक्षित से मात खायी थी और अपनी सत्ता गंवानी थी। आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो केजरीवाल को भी प्याज के आसमान छूते दामों ने सत्ता पाने के भ्रम का शिकार बना दिया है। उन्हें भी इतिहास के दोहराये जाने का यकीन है। उन्हें यह भी भरोसा है कि इस बार सिर्फ और सिर्फ उनकी ही किस्मत का ही ताला खुलने वाला है। कांग्रेस और भाजपा आपस में लड मरेंगे और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनेगी।
चुनावों में जीत का सेहरा बांधने को लालायित कई नेता टोटकेबाजी और भ्रम के भंवर में डूबे हैं। यह लोग देशवासियों को भी भ्रम का शिकार बनाये रखना चाहते हैं। इनके चेहरे पर लुभावने मुखौटे सजे हुए हैं। भ्रम जब कभी फलदायी हो जाता है तो उसके साथ विश्वास भी जुड जाता है। यह विश्वास धीरे-धीरे अंधविश्वास में तब्दील हो जाता है। अंधविश्वास ने इस देश का कितना कबाडा किया है और किस कदर अपराधों को जन्म देने का सिलसिला बनाये रखा है उससे सभी सजग भारतवासी वाकिफ हैं। पर नेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पडता। मरना तो उन्हें पडता है जिन्हें अंधविश्वासियों के दिलों में जडे जमा चुकी तूफानी आस्था के खात्मे के लिए खुली जंग लडनी पडती है...।
दरअसल देश का आम आदमी लुटे-पिटे दर्शक की मुद्रा में है। उसे सत्ता के कुछ लुटेरों ने भरे बाज़ार लूट लिया है। नेता और मुनाफाखोर दोनों मजे में हैं। प्याज की जमाखोरी करने वाले कई सफेदपोश नेतागिरी के धंधे के भी सिकंदर हैं। किसी का कांग्रेस से तो किसी का भाजपा आदि... आदि से टांका भिडा है। इस देश के गरीब के पास न तो खाने के लिए पैसे हैं, न ही दवाओं को खरीदने के लिए। जीवनरक्षक दवाएं तो अब उसके लिए सपना होने जा रही हैं। बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने मुंह मांगी कीमतों पर भारतीय दवा कंपनियों को खरीदने का अभियान तेज कर दिया है। ऐसे में दवाएं कितनी महंगी होंगी और जिं‍दगियां कितनी सस्ती हो जाएंगी इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। आठ सौ करोड रुपये से ज्यादा की कीमत की भारतीय दवाओं पर विदेशी कंपनियों का कब्जा होने जा रहा है। सरकार बेबस है। देश का रुपया लगातार गिर रहा है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के दिमाग ने काम करना बंद कर दिया है। महंगाई अपनी चरम सीमा को पार कर चुकी है। देश दिवालिया होने के कगार पर है। घपले-घोटाले करने वाले आनंदित हैं। उनके कुकर्मों की फाइलें गुम होने लगी हैं। यह कोई नयी बात नहीं है। भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए बडी-बडी ताकतें अपना काम करती रहती हैं। साजिशें चलती रहती हैं। जब हाथ की सफाई कारगर नहीं हो पाती तो उस कार्यालय को ही राख कर दिया जाता है जहां फाइलें सजी होती हैं। कोयला घोटाले की कई फाइलें गायब हो गयी हैं। इन फाइलों को पहिये नहीं लगे थे। तय है कि नौकरशाहों, नेताओं और उद्योगपतियों ने ही यह खेल खेला है। इस पूरी की पूरी जमात को ऐसे खेल खेलने का बडा पुराना तजुर्बा है। इन डकैतों के गिरोह में कुछ मीडिया दिग्गज भी शामिल हैं। यह मीडिया के वो मक्कार चेहरे हैं जिनका पूरा कालाचिट्ठा खुलना अभी बाकी है।  सत्ताधीश भी नहीं चाहते कि ऊंचे लोगों पर कोई आंच आए। चुनाव सिर पर हैं। करोडों-अरबों का मोटा चंदा भी तो इन्हीं से मिलता है... इन्हें नाराज करने का जोखिम कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं उठाना चाहती।

No comments:

Post a Comment