उन्हें किसी और का बोलना नहीं सुहाता। वे सिर्फ और सिर्फ सत्ता के भूखे हैं। उनका सिर्फ एक ही मकसद है। कुर्सी के लिए जोड-तोड करते रहना। मिल जाए तो उस पर कब्जा जमाये रहना। उनके अपने कोई उसूल नहीं हैं। सब कुछ उधार पर कायम है। जिधर बम उधर हम। आस्था और निष्ठा शब्द भर हैं इनके लिए। हां हम बात कर रहे हैं उन दोगले नेताओ की जिनके लिए वोट ही सब कुछ हैं। इनके लिए वे देशवासियों को आपस में लडाने और बांटने की कुटिल साजिशों में तल्लीन हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में नारायण राणे का अच्छा-खासा दबदबा है। यह महाशय प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। यह सौभाग्य इन्हें तब मिला था जब महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा की सरकार थी। मात्र आठ महीने तक मुख्यमंत्री के सिंहासन पर विराजमान रहने वाले नारायण राणे को शिवसेना ने फर्श से अर्श तक पहुंचाया। यह भाजपा-शिवसेना की बदकिस्मती थी कि उसे दोबारा महाराष्ट्र की सत्ता नहीं मिल पायी। सत्ता पिपासु नारायण राणे को जब यह लगा कि अब शिवसेना में टिके रहना उनके लिए फायदे का सौदा नहीं है तो उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया। वे जब तक शिवसेना में रहे, कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी के खिलाफ बेहूदा भाषण बाजी करते रहे। अपने नेता बाल ठाकरे की तर्ज पर विदेशी सोनिया की खिल्ली भी उडाते रहे। उनके कांग्रेस में समाने की एकमात्र वजह थी किसी भी तरह से महाराष्ट्र का फिर से मुख्यमंत्री बनना। इसके लिए उन्होंने कई बार अपने उग्र तेवर भी दिखाये। मीडिया के सामने रोना भी रोया कि कांग्रेस ने उनके साथ दगाबाजी की है। उन्होंने तो कांग्रेस का दामन ही इस शर्त पर थामा था कि उन्हें ही महाराष्ट्र का सीएम बनाया जायेगा। जो कांग्रेस देश की जनता से किये गये वायदे नहीं निभा पायी उस पर घाघ नारायण राणे ने कैसे और क्यों यकीन कर लिया यह तो वही जानें। वैसे कांग्रेस ने उन्हें पूरी तरह से निराश भी नहीं किया। शिवसेना से दगाबाजी करने और कांग्रेस की सीटें बढाने का उन्हें भरपूर ईनाम मिला। वर्तमान में वे महाराष्ट्र सरकार में उद्योग मंत्री हैं। नारायण 'मलाई' प्रेमी हैं। कांग्रेस भी जानती है। अगर उसके भी कभी शिवसेना जैसे हाल हुए तो वे राजनीति के किसी दूसरे ठिकाने की दहलीज पर पहुंच कर सलामी ठोकने में देरी नहीं लगायेंगे। ऊंची कुर्सी की चाह उन्हें कहीं भी ले जा सकती है। उनसे कुछ भी करवा और बुलवा सकती है। शिवसेना वाले 'गुण' उन्होंने त्यागे नहीं हैं। ना ही ऐसा कोई इरादा है।
कहावत है... खरबूजा, खरबूजे को देखकर रंग बदलता है। राजनेताओं की औलादों को यह गुण विरासत में मिलता है। इसका जीता-जागता उदाहरण हैं नारायण के लाडले नितेश राणे। यह भी राजनीति में झंडे गाढने को बेताब हैं। अब वो पुराना जमाना तो रहा नहीं जब राजनीति में जमने के लिए जनसेवा की जाती थी। यह तो एक दूसरे की कब्रें खोदने और बकने-बकवाने का जमाना है। जो जितना तीखा और भडकाऊ बोलता है, उतना ही अधिक सुना और सुनाया जाता है। इस मूलमंत्र को आत्मसात कर चुके नारायण पुत्र का बस चले तो सारे के सारे गुजरातियों को मुंबई से खदेड दे। उसका कहना है कि मुंबई के अधिकांश गुजराती नरेंद्र मोदी के घोर समर्थक हैं। दिन-रात उसी की माला जपते रहते हैं। उसे पक्का यकीन है कि गुजराती सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी को ही वोट देते हैं। यह तो सरासर दगाबाजी है। ऐसे दगाबाजों को मोदी की शरण में चले जाना चाहिए। काहे को मुंबई में कमाई कर मौजमस्ती कर रहे हैं। नितेश को डर है कि मोदी परस्त गुजराती मुंबई को कही गुजरात न बना दें। इसलिए समय रहते इस बीमारी का इलाज हो ही जाना चाहिए।
यह सौ फीसदी सच है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में लोगों के बोलने, सोचने और करने पर उंगलियां उठाने का चलन बढता चला जा रहा है। मुसलमान अगर कांग्रेस या समाजवादी पार्टी की तरफ झुकते हैं तो किसी न किसी राजनीतिक पार्टी को ऐतराज होता है। फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन अगर उत्तर प्रदेश और गुजरात का गुणगान करते हैं तो उन पर फौरन निशाना साध दिया जाता है। लगता है कि कुछ नेताओं ने यह मान लिया है कि उन्हें ही सिर्फ बोलने और लताडने का हक है। शोभा डे एक अच्छी लेखिका हैं। देश में उनकी अपनी पहचान है। पिछले दिनों जैसे ही तेलंगाना नाम के नये राज्य के बनने का ऐलान हुआ तो उन्होंने ट्विटर पर लिख डाला कि मुंबई के साथ भी ऐसा क्यों नहीं हो सकता? उनके इतना भर लिखने से हंगामा हो गया। उन पर ताने कसे जाने लगे। एक अदनी-सी लेखिका और पेज थ्री की फैशनपरस्त नारी की यह मजाल कि वह मुंबई को महाराष्ट्र से अलग करने वाली बयानबाजी करे। शोभा डे को सबक सिखाने की नीयत से कई चेहरे सडकों पर भी उतर आये। उनके खिलाफ जोरदार प्रदर्शन भी किया गया। सत्ता के नशे में चूर राजनेताओं को दर्पण दिखाने वाले रास नहीं आ रहे। दलित चिंतक-लेखक कंवल भारती को भी बीते सप्ताह इसलिए उत्तरप्रदेश की समाजवादी सरकार ने इसलिए गिरफ्तार कर लिया क्योंकि उन्होंने आरक्षण और दुर्गा नागपाल के मुद्दे को लेकर फेसबुक पर अपने दिल की बात कह दी थी। उनके यह लिखने पर कि उत्तरप्रदेश में अखिलेश का नहीं, आजम खां का राज चलता है... फौरन गिरफ्तार कर लेना यही दर्शाता है कि मदहोश मंत्रियों को आलोचना कतई बर्दाश्त नहीं होती। उन्हें दरबारी-चाटूकार ही सुहाते हैं। यह है अपना देश भारत वर्ष जहां पर आम आदमी के बोलने पर पाबंदी है। यह हक नेताओं ने अपने लिए आरक्षित कर लिया है। वे जो कहें वही सही!... ऐसे अहंकारी नेताओं को शायद ही कभी यह विचार आता होगा कि बुद्धिजीवी हों या आम आदमी सभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती हैं। यह उनका नैतिक अधिकार है। संविधान ने सिर्फ मंत्रियों-संत्रियों, नेताओं और उनकी औलादों को ही अपने विचार व्यक्त करने की आजादी नहीं दी है।
कहावत है... खरबूजा, खरबूजे को देखकर रंग बदलता है। राजनेताओं की औलादों को यह गुण विरासत में मिलता है। इसका जीता-जागता उदाहरण हैं नारायण के लाडले नितेश राणे। यह भी राजनीति में झंडे गाढने को बेताब हैं। अब वो पुराना जमाना तो रहा नहीं जब राजनीति में जमने के लिए जनसेवा की जाती थी। यह तो एक दूसरे की कब्रें खोदने और बकने-बकवाने का जमाना है। जो जितना तीखा और भडकाऊ बोलता है, उतना ही अधिक सुना और सुनाया जाता है। इस मूलमंत्र को आत्मसात कर चुके नारायण पुत्र का बस चले तो सारे के सारे गुजरातियों को मुंबई से खदेड दे। उसका कहना है कि मुंबई के अधिकांश गुजराती नरेंद्र मोदी के घोर समर्थक हैं। दिन-रात उसी की माला जपते रहते हैं। उसे पक्का यकीन है कि गुजराती सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी को ही वोट देते हैं। यह तो सरासर दगाबाजी है। ऐसे दगाबाजों को मोदी की शरण में चले जाना चाहिए। काहे को मुंबई में कमाई कर मौजमस्ती कर रहे हैं। नितेश को डर है कि मोदी परस्त गुजराती मुंबई को कही गुजरात न बना दें। इसलिए समय रहते इस बीमारी का इलाज हो ही जाना चाहिए।
यह सौ फीसदी सच है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में लोगों के बोलने, सोचने और करने पर उंगलियां उठाने का चलन बढता चला जा रहा है। मुसलमान अगर कांग्रेस या समाजवादी पार्टी की तरफ झुकते हैं तो किसी न किसी राजनीतिक पार्टी को ऐतराज होता है। फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन अगर उत्तर प्रदेश और गुजरात का गुणगान करते हैं तो उन पर फौरन निशाना साध दिया जाता है। लगता है कि कुछ नेताओं ने यह मान लिया है कि उन्हें ही सिर्फ बोलने और लताडने का हक है। शोभा डे एक अच्छी लेखिका हैं। देश में उनकी अपनी पहचान है। पिछले दिनों जैसे ही तेलंगाना नाम के नये राज्य के बनने का ऐलान हुआ तो उन्होंने ट्विटर पर लिख डाला कि मुंबई के साथ भी ऐसा क्यों नहीं हो सकता? उनके इतना भर लिखने से हंगामा हो गया। उन पर ताने कसे जाने लगे। एक अदनी-सी लेखिका और पेज थ्री की फैशनपरस्त नारी की यह मजाल कि वह मुंबई को महाराष्ट्र से अलग करने वाली बयानबाजी करे। शोभा डे को सबक सिखाने की नीयत से कई चेहरे सडकों पर भी उतर आये। उनके खिलाफ जोरदार प्रदर्शन भी किया गया। सत्ता के नशे में चूर राजनेताओं को दर्पण दिखाने वाले रास नहीं आ रहे। दलित चिंतक-लेखक कंवल भारती को भी बीते सप्ताह इसलिए उत्तरप्रदेश की समाजवादी सरकार ने इसलिए गिरफ्तार कर लिया क्योंकि उन्होंने आरक्षण और दुर्गा नागपाल के मुद्दे को लेकर फेसबुक पर अपने दिल की बात कह दी थी। उनके यह लिखने पर कि उत्तरप्रदेश में अखिलेश का नहीं, आजम खां का राज चलता है... फौरन गिरफ्तार कर लेना यही दर्शाता है कि मदहोश मंत्रियों को आलोचना कतई बर्दाश्त नहीं होती। उन्हें दरबारी-चाटूकार ही सुहाते हैं। यह है अपना देश भारत वर्ष जहां पर आम आदमी के बोलने पर पाबंदी है। यह हक नेताओं ने अपने लिए आरक्षित कर लिया है। वे जो कहें वही सही!... ऐसे अहंकारी नेताओं को शायद ही कभी यह विचार आता होगा कि बुद्धिजीवी हों या आम आदमी सभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती हैं। यह उनका नैतिक अधिकार है। संविधान ने सिर्फ मंत्रियों-संत्रियों, नेताओं और उनकी औलादों को ही अपने विचार व्यक्त करने की आजादी नहीं दी है।
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