१५ अगस्त २०१३। राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' की १७ वीं वर्षगांठ। जिस निष्पक्ष और निर्भीक अखबार को देखते ही देखते लाखों सजग पाठकों ने हाथों-हाथ लिया हो और पूरी आत्मीयता के साथ अपनाया हो उसके बारे में ज्यादा लिखने की वैसे तो कोई गुंजाइश नहीं बचती। लेकिन मामला वर्षगांठ का है। यानी मौका भी है और दस्तूर भी इसलिए दिल की बात कहने का इससे अच्छा कोई और अवसर हो भी तो नहीं सकता। वैसे भी अभी तक जहां पर 'विज्ञापन की दुनिया' पहुंचा है, वह मंजिल नहीं पडाव मात्र है।
१५ अगस्त १९९६ के शुभ दिन 'विज्ञापन की दुनिया' की यात्रा की शुरुआत हुई। स्वतंत्रता दिवस के पर्व पर ही इस अखबार के प्रकाशन के पीछे और भी कई उद्देश्य थे। धन्नासेठों के अखबारों में नौकरी करते-करते और उनके दांवपेचों को देखते-समझते यह बात तो समझ में आ गयी थी कि पत्रकारिता को पतित करने की कैसी-कैसी साजिशें रची जा रही हैं। राजनेताओं और भिन्न-भिन्न माफियाओं के इशारों पर चलने वाले तथाकथित बडे-बडे अखबार अपने आकाओं की आरती गाने के सिवाय और कुछ नहीं कर रहे हैं। उद्योगपतियों, बिल्डरों और नेताओं के अखबारों के प्रकाशन का एकमात्र उद्देश्य दौलत कमाना तथा सरकार और जनता को बेवकूफ बनाना है। खुद को बुद्धिजीवी और प्रगतिशील कहने वाले सम्पादकों को बाजारी और अंगूठा छाप मालिकों की जी हजूरी करते देख बहुत पीडा होती थी। मोटी तनख्वाह के लालच में उनके दडंवत होने के शर्मनाक अंदाज को देखकर गुस्सा भी आता था। हालात आज भी पूरी तरह से नहीं बदले हैं। ऐसे हालातों में निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की कल्पना ही नहीं की जा सकती। हां... राज्यसभा का सदस्य जरूर बना जा सकता है। करोडों के सरकारी ठेके हथियाये जा सकते हैं। कौडिंयों के मोल सरकारी जमीनों की खैरात पायी जा सकती है। स्कूल, कालेज और दारू की फैक्टरियां खोलने के लायसेंस बडी आसानी से प्राप्त किये जा सकते हैं। सरकारी जमीनों को कौडिंयों के मोल हासिल करने में भी कोई अडचन नहीं आती। लगभग मुफ्त में पायी गयी इन लम्बी-चौडी जमीनों पर भव्य व्यावसायिक इमारतें खडी कर अरबों-खरबों के वारे-न्यारे किये जा सकते हैं। अब तो कुछ मीडिया दिग्गज दलाली भी करने लगे हैं। पिछले दिनों देश के दो अखबार मालिकों ने हजारों करोड की कोयला खदाने हथिया कर अपने जबरदस्त दमदार होने का सबूत पेश कर दिया है। आम आदमी कल्पना भी नहीं कर सकता कि कारोबारी अखबारीलाल अखबारों की आड में कितने काले-पीले धंधों को अंजाम देते हैं। सरकारी तंत्र को यह ताकतवर लोग अपनी उंगलियों पर नचाते हैं। नचैयों की भी अपनी कमजोरियां और मजबूरियां होती हैं। पत्रकारिता के ऐसे दुखद और दमघोंटू माहौल में 'विज्ञापन की दुनिया' के प्रकाशन का निर्णय लिया गया। देशभर के सजग पाठकों के बीच अपनी छाप छोडने में इस साप्ताहिक को ज्यादा समय नहीं लगा। हमारी कल्पना से भी कहीं बहुत ज्यादा लोग इससे जुडते चले गये और कारवां बनता चला गया। ऐसे में हमारा विश्वास और भी पुख्ता हो गया कि पाठक ऐसे अखबारों को कतई पसंद नहीं करते जो अपने धंधे चमकाने की पत्रकारिता करते हों। जिनपर किसी राजनीतिक पार्टी का ठप्पा लगा हो। सजग पाठक सिर्फ और सिर्फ ऐसी कलम के पक्षधर हैं जो बेखौफ हो और किसी भी कीमत पर बिकने को तैयार न हो। सरकारी विज्ञापनों के लिए सरकार के हर गुनाह की अनदेखी करने वाले अखबारों को पहचानने में भी सजग पाठक देरी नहीं लगाते। फिर भी वे ऐसे अखबारों को इसलिए भी ताउम्र खरीदते रहते हैं क्योंकि महंगाई के जमाने में भी यह डेढ-दो रुपये में मिल जाते हैं। रद्दी में बेचने पर भी फायदा हो जाता है। ऐसे अखबारों के मालिकों को तो मुफ्त में भी अखबार बांटने से कोई फर्क नहीं पडता। सरकार की आखों में धूल झोंककर अधिकतम कीमत पर विज्ञापन हथियाने के लिए धन्नासेठ ऐसे ही फंडे अपनाते हैं। मुफ्त में अखबार बांटते हैं और उसे बिक्री में दर्शाकर अपना सर्कुलेशन बढाते हैं। इससे काली कमायी भी सफेद हो जाती है। अखबार के अलावा भी इनके कई धंधे होते हैं। मंत्रियों और नेताओं की जेबों से निकाली गयी रकम को भी तो सफेद करना होता है।
राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' केवल अपने पाठकों और शुभचिंतकों की बदौलत ही भ्रष्टाचारियों की नींद हराम करता चला आ रहा है। सिद्धांतों से समझौता करना इसने सीखा ही नहीं। गलत को सही बनाने का खेल इसे नहीं भाता। बडे से बडे तुर्रमखां के आगे झुकना भी इसके उसूल के खिलाफ है। शासकों के तलवे चाटने वालो से नफरत करने वाले 'विज्ञापन की दुनिया' ने कभी भी शासकों के दरबार में हाजिरी नहीं बजायी। हमें अपने साथ-साथ अपने उन लाखों पाठकों के मान-सम्मान और स्वाभिमान की सदैव चिन्ता रहती है। उनके अपार विश्वास को हम कभी भी ठेस नहीं पहुंचने देंगे। यह हमारी प्रतिज्ञा भी है और वायदा भी।
१५ अगस्त २०१३...। भारतवर्ष की आजादी की ६६वीं वर्षगांठ। क्या होते हैं ६६ वर्ष के मायने? इसका जवाब शासक तो देने से रहे जिन्होंने सतत भ्रष्टाचार के कीर्तिमान रचे और भारत माता की आत्मा को आहत-दर-आहत किया। अब तो देशवासियों को जाग ही जाना चाहिए। कब तक बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, शोषण, लूटमारी, अनाचार, व्याभिचार, माफियागिरी और महंगाई के दंश पर दंश झेलते रहेंगे? हिन्दुस्तान से भी छोटे कई देश दस-बीस साल में कहां से कहां पहुंच गये और यह विशालतम देश हाथों में भीख का कटोरा थामे लगभग वहीं का वहीं खडा है। इस देश के नेता यही मानकर चल रहे हैं कि चंद लोगों के अरबपति-खरबपति बन जाने से मुल्क की तस्वीर बदल गयी है। गरीबी का खात्मा हो गया है। देश में चारों तरफ खुशहाली ही खुशहाली है। देश को हांकने वाले नेता अंधे तो कतई नहीं हैं। यह तो हद दर्जे के शातिर और चालाक हैं। आम जनता को हर हाल में भ्रम के भंवर में फंसाये रखना चाहते हैं। यह सतत अपने मकसद में कामयाब भी होते चले आ रहे हैं। जिस दिन हम और आप पूरी तरह से जाग जाएंगे तब इनकी हस्ती मिटते देर नहीं लगेगी। कब जागेंगे हम-सब?
समस्त देशवासियों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
१५ अगस्त १९९६ के शुभ दिन 'विज्ञापन की दुनिया' की यात्रा की शुरुआत हुई। स्वतंत्रता दिवस के पर्व पर ही इस अखबार के प्रकाशन के पीछे और भी कई उद्देश्य थे। धन्नासेठों के अखबारों में नौकरी करते-करते और उनके दांवपेचों को देखते-समझते यह बात तो समझ में आ गयी थी कि पत्रकारिता को पतित करने की कैसी-कैसी साजिशें रची जा रही हैं। राजनेताओं और भिन्न-भिन्न माफियाओं के इशारों पर चलने वाले तथाकथित बडे-बडे अखबार अपने आकाओं की आरती गाने के सिवाय और कुछ नहीं कर रहे हैं। उद्योगपतियों, बिल्डरों और नेताओं के अखबारों के प्रकाशन का एकमात्र उद्देश्य दौलत कमाना तथा सरकार और जनता को बेवकूफ बनाना है। खुद को बुद्धिजीवी और प्रगतिशील कहने वाले सम्पादकों को बाजारी और अंगूठा छाप मालिकों की जी हजूरी करते देख बहुत पीडा होती थी। मोटी तनख्वाह के लालच में उनके दडंवत होने के शर्मनाक अंदाज को देखकर गुस्सा भी आता था। हालात आज भी पूरी तरह से नहीं बदले हैं। ऐसे हालातों में निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की कल्पना ही नहीं की जा सकती। हां... राज्यसभा का सदस्य जरूर बना जा सकता है। करोडों के सरकारी ठेके हथियाये जा सकते हैं। कौडिंयों के मोल सरकारी जमीनों की खैरात पायी जा सकती है। स्कूल, कालेज और दारू की फैक्टरियां खोलने के लायसेंस बडी आसानी से प्राप्त किये जा सकते हैं। सरकारी जमीनों को कौडिंयों के मोल हासिल करने में भी कोई अडचन नहीं आती। लगभग मुफ्त में पायी गयी इन लम्बी-चौडी जमीनों पर भव्य व्यावसायिक इमारतें खडी कर अरबों-खरबों के वारे-न्यारे किये जा सकते हैं। अब तो कुछ मीडिया दिग्गज दलाली भी करने लगे हैं। पिछले दिनों देश के दो अखबार मालिकों ने हजारों करोड की कोयला खदाने हथिया कर अपने जबरदस्त दमदार होने का सबूत पेश कर दिया है। आम आदमी कल्पना भी नहीं कर सकता कि कारोबारी अखबारीलाल अखबारों की आड में कितने काले-पीले धंधों को अंजाम देते हैं। सरकारी तंत्र को यह ताकतवर लोग अपनी उंगलियों पर नचाते हैं। नचैयों की भी अपनी कमजोरियां और मजबूरियां होती हैं। पत्रकारिता के ऐसे दुखद और दमघोंटू माहौल में 'विज्ञापन की दुनिया' के प्रकाशन का निर्णय लिया गया। देशभर के सजग पाठकों के बीच अपनी छाप छोडने में इस साप्ताहिक को ज्यादा समय नहीं लगा। हमारी कल्पना से भी कहीं बहुत ज्यादा लोग इससे जुडते चले गये और कारवां बनता चला गया। ऐसे में हमारा विश्वास और भी पुख्ता हो गया कि पाठक ऐसे अखबारों को कतई पसंद नहीं करते जो अपने धंधे चमकाने की पत्रकारिता करते हों। जिनपर किसी राजनीतिक पार्टी का ठप्पा लगा हो। सजग पाठक सिर्फ और सिर्फ ऐसी कलम के पक्षधर हैं जो बेखौफ हो और किसी भी कीमत पर बिकने को तैयार न हो। सरकारी विज्ञापनों के लिए सरकार के हर गुनाह की अनदेखी करने वाले अखबारों को पहचानने में भी सजग पाठक देरी नहीं लगाते। फिर भी वे ऐसे अखबारों को इसलिए भी ताउम्र खरीदते रहते हैं क्योंकि महंगाई के जमाने में भी यह डेढ-दो रुपये में मिल जाते हैं। रद्दी में बेचने पर भी फायदा हो जाता है। ऐसे अखबारों के मालिकों को तो मुफ्त में भी अखबार बांटने से कोई फर्क नहीं पडता। सरकार की आखों में धूल झोंककर अधिकतम कीमत पर विज्ञापन हथियाने के लिए धन्नासेठ ऐसे ही फंडे अपनाते हैं। मुफ्त में अखबार बांटते हैं और उसे बिक्री में दर्शाकर अपना सर्कुलेशन बढाते हैं। इससे काली कमायी भी सफेद हो जाती है। अखबार के अलावा भी इनके कई धंधे होते हैं। मंत्रियों और नेताओं की जेबों से निकाली गयी रकम को भी तो सफेद करना होता है।
राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' केवल अपने पाठकों और शुभचिंतकों की बदौलत ही भ्रष्टाचारियों की नींद हराम करता चला आ रहा है। सिद्धांतों से समझौता करना इसने सीखा ही नहीं। गलत को सही बनाने का खेल इसे नहीं भाता। बडे से बडे तुर्रमखां के आगे झुकना भी इसके उसूल के खिलाफ है। शासकों के तलवे चाटने वालो से नफरत करने वाले 'विज्ञापन की दुनिया' ने कभी भी शासकों के दरबार में हाजिरी नहीं बजायी। हमें अपने साथ-साथ अपने उन लाखों पाठकों के मान-सम्मान और स्वाभिमान की सदैव चिन्ता रहती है। उनके अपार विश्वास को हम कभी भी ठेस नहीं पहुंचने देंगे। यह हमारी प्रतिज्ञा भी है और वायदा भी।
१५ अगस्त २०१३...। भारतवर्ष की आजादी की ६६वीं वर्षगांठ। क्या होते हैं ६६ वर्ष के मायने? इसका जवाब शासक तो देने से रहे जिन्होंने सतत भ्रष्टाचार के कीर्तिमान रचे और भारत माता की आत्मा को आहत-दर-आहत किया। अब तो देशवासियों को जाग ही जाना चाहिए। कब तक बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, शोषण, लूटमारी, अनाचार, व्याभिचार, माफियागिरी और महंगाई के दंश पर दंश झेलते रहेंगे? हिन्दुस्तान से भी छोटे कई देश दस-बीस साल में कहां से कहां पहुंच गये और यह विशालतम देश हाथों में भीख का कटोरा थामे लगभग वहीं का वहीं खडा है। इस देश के नेता यही मानकर चल रहे हैं कि चंद लोगों के अरबपति-खरबपति बन जाने से मुल्क की तस्वीर बदल गयी है। गरीबी का खात्मा हो गया है। देश में चारों तरफ खुशहाली ही खुशहाली है। देश को हांकने वाले नेता अंधे तो कतई नहीं हैं। यह तो हद दर्जे के शातिर और चालाक हैं। आम जनता को हर हाल में भ्रम के भंवर में फंसाये रखना चाहते हैं। यह सतत अपने मकसद में कामयाब भी होते चले आ रहे हैं। जिस दिन हम और आप पूरी तरह से जाग जाएंगे तब इनकी हस्ती मिटते देर नहीं लगेगी। कब जागेंगे हम-सब?
समस्त देशवासियों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
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