कई सवाल वर्षों से जवाब मांग रहे हैं। जवाब नदारद हैं। सरकारें खामोश हैं। प्रशासन ने हाथ बांध रखे हैं। कितना भी खून खराब हो जाए, लाशें बिछ जाएं, नेताओं के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। बेचारा कानून हत्यारों को हाथ लगाने से घबराता है। सज़ा तो बहुत दूर की बात है। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी यह कैसा दमघोटू आतंकी अधेरा ही अंधेरा नज़र आता है? हरियाणा के एक गांव में दलित युवक का हाथ काट डाला गया। क्या आपको पता है कि उस युवक का कसूर क्या था? दरअसल उसने एक धनवान किसान के खेत में रखे मटके को छूने की हिमाकत की थी। उसे प्यास लगी थी। उसने मटके से पानी पी लिया। उसी दौरान एक दबंग युवक उसके पास आया। उसने उसकी जाति पूछी। जैसे ही उसने खुद को हरिजन बताया तो युवक का खून खौल उठा। एक हरिजन की इतनी हिम्मत! हमारे मटके का पानी पीने का साहस दिखाए। गुस्साये किसान के बेटे ने उसे सबक सिखाने की ठानी। इधर-उधर नजर दौडायी। साइकिल में लगी दरांती निकाली। हरिजन युवक का हाथ ऐसे काट डाला जैसे किसी पेड की सडी टहनी को काटा जाता है। हरियाणा में ऐसा होना आम बात है। कुछ ही खबरें मीडिया में सुर्खियां पाती हैं। अधिकांश खबरों को जहां का तहां दफन कर दिया जाता है। गांव-कस्बों के पत्रकार दबंगों के खिलाफ कलम चलाने से घबराते हैं। नेताओं और समाजसेवकों की संदिग्ध भूमिका भी दबंगों के हौसले बढाती रहती है। आज भी देश के प्रदेश हरियाणा, पंजाब, उत्तरप्रदेश और बिहार में दलितों को इंसान की निगाह से नहीं देखा जाता। उनके साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है। प्रेमी जोडों के प्रति भी कुछ ऐसे ही हालात हैं। यह भी एक किस्म की छुआछूत की बीमारी है। प्रेमियों को पकड-पकड कर मौत के घाट उतार दिया जाता है। हरियाणा में तो ऐसे बदतर हालात हैं कि लगता ही नहीं कि हम इक्कसवीं सदी में रह रहे हैं। इस प्रदेश में खाप पंचायतें देश के कानून को कुछ समझती ही नहीं। इनका अपना कानून है। खाप पंचायत के फरमान की अनदेखी करने वाले प्रेमियों को कुत्ते से भी बदतर मौत की सौगात देने का चलन है। खाप पंचायत का तथाकथित कानून एक ही समुदाय एवं गांव में शादी की अनुमति नहीं देता। ऑनर किलिंग यानी झूठी शान के लिए क्रूरतम हत्याओं को अंजाम देना आम बात है। इस आधुनिक दौर में भी हर वर्ष सैकडों प्रेमियों को इसलिए मार डाला जाता है, क्योंकि वे समाज और अपने परिवार की इच्छा के खिलाफ प्रेम और शादी करने की हिम्मत दिखाते हैं।
दलितों और प्रेमियों का एक जैसा हश्र करने वाले हरियाणा के रोहतक शहर में बीते सप्ताह झूठी शान के लिए एक युवक और युवती की निर्मम हत्या कर दी गयी। धर्मेंद्र और निशा का यही दोष था कि उन्होंने सच्चा प्रेम किया था। वे दोनों शादी करना चाहते थे। एक साथ जीना चाहते थे। पर उनके घरवाले कतई नहीं चाहते थे कि वे जीवनभर के लिए एक दूसरे के हो जाएं। यह दोनों प्रेमी इतने फटेहाल थे कि धन के अभाव में आर्य समाज मंदिर में शादी नहीं कर पाए। उनकी दिली इच्छा तो यही थी। धर्मेंद्र ने शादी के लिए कुछ रुपयों के लिए अपने गांव के दोस्त को फोन किया। धर्मेंद्र का दोस्त उस वक्त निधि के घर पर ही बैठा था। घर वालों को उनकी असली मंशा का पता चल गया। उन्होंने उसी दोस्त के माध्यम से प्रेमी जोडे को राजीखुशी शादी करवा देने का झांसा देकर बुलवाया और खात्मा कर दिया। इस खौफनाक हत्याकांड को अंजाम देने में युवती के परिजनों ने जो निर्मम भूमिका निभायी उससे बडे से बडे दिलवाला इंसान भी विचलित हो सकता है। ऐसे मामलों में पुरुषों को तो क्रूर कर्म करने का आदी माना जाता है, लेकिन एक मां के बेरहमी भी बेनकाब हो गयी। युवती की मां चीख-चीख कर हत्यारों का मनोबल बढाती रही और यह कहती रही कि इस कलमुंही ने पूरे परिवार की इज्जत पर बट्टा लगाया है। इसे जीने का कोई हक नहीं है। यह ऐसी मौत की हकदार है जिसे देखकर कोई भी बेटी घर से बाहर झांकने और परिवार की नाक कटवाने की जुर्रत न कर पाए। निर्मोही मां की आंखों के सामने एक मासूम बेटी की गर्दन धड से अलग कर दी गयी। प्रेमी युगल की चीखें गूंजती रहीं पर किसी को रहम नहीं आया। आसपास के लोगों ने भी उन्हें बचाने की बजाय हत्यारों का पूरा-पूरा साथ देने की नपुंसकता दिखायी। यह वही नपुंसकता है जो दलितों पर जुल्म ढाये जाने पर लोगों की चुप्पी में नजर आती है और इसी नपुंसकता की वजह से देश में बलात्कारों की संख्या को गिन पाना मुश्किल होता चला जा रहा है। देश के प्रदेशों में होने वाले आतंकी हमले और साम्प्रदायिक दंगे भी इसी मूक हिजडेपन की देन हैं।
यह कितनी हैरत की बात है कि इज्जत के नाम पर होने वाली अधिकांश हत्याओं में कभी लडके तो कभी लडकी के पूरे परिवार की सहमति होती है। कभी-कभी तो लडके और लडकी के परिवार वाले मिलकर ही मर्जी से विवाह करने के इच्छुक या सगोत्रीय प्रेमी जोडों को मौत की नींद सुला देते हैं। स्थानीय नेताओं की चुप्पी तो समझ में आती है पर मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने वाले दिग्गज उम्रदराज नेता भी आनर किलिंग की वकालत करते नजर आते हैं।
प्रा. दामोदर मोरे की कविता में उठाये गये प्रश्न पता नहीं कब तक उत्तर की बाट जोहते रहेंगे :
''मुझे बताओ! हमारे लिए
जातिवाद का जाल कौन बिछाता है?
हमारी राह पर ऊंच-नीच का गतिरोधक
कौन और क्यों खडा करता है?
अज्ञान के अंधियारे में हमें कौन ढकेलता है?
अन्याय की आग में हमें कौन जलाता है?
अस्पृश्यता की नागिन को,
हमारे आंगन में किसने छोडा है?
हमें हीन बनाकर इन्सानियत का गला किसने घोटा है?''
दलितों के दुश्मनों और इज्जत की खातिर अपनी ही संतानों के हत्यारों की अक्ल अगर समय रहते ठिकाने नहीं लगायी गयी तो भविष्य में और...और होने वाले अनर्थ की कल्पना कर यह कलम कांप उठती है। अब तो होश में आओ हुक्मरानों और राजनीति के ठेकेदारो... कब तक वोटों के लालच में अंधे और बहरे बने रहोगे?
दलितों और प्रेमियों का एक जैसा हश्र करने वाले हरियाणा के रोहतक शहर में बीते सप्ताह झूठी शान के लिए एक युवक और युवती की निर्मम हत्या कर दी गयी। धर्मेंद्र और निशा का यही दोष था कि उन्होंने सच्चा प्रेम किया था। वे दोनों शादी करना चाहते थे। एक साथ जीना चाहते थे। पर उनके घरवाले कतई नहीं चाहते थे कि वे जीवनभर के लिए एक दूसरे के हो जाएं। यह दोनों प्रेमी इतने फटेहाल थे कि धन के अभाव में आर्य समाज मंदिर में शादी नहीं कर पाए। उनकी दिली इच्छा तो यही थी। धर्मेंद्र ने शादी के लिए कुछ रुपयों के लिए अपने गांव के दोस्त को फोन किया। धर्मेंद्र का दोस्त उस वक्त निधि के घर पर ही बैठा था। घर वालों को उनकी असली मंशा का पता चल गया। उन्होंने उसी दोस्त के माध्यम से प्रेमी जोडे को राजीखुशी शादी करवा देने का झांसा देकर बुलवाया और खात्मा कर दिया। इस खौफनाक हत्याकांड को अंजाम देने में युवती के परिजनों ने जो निर्मम भूमिका निभायी उससे बडे से बडे दिलवाला इंसान भी विचलित हो सकता है। ऐसे मामलों में पुरुषों को तो क्रूर कर्म करने का आदी माना जाता है, लेकिन एक मां के बेरहमी भी बेनकाब हो गयी। युवती की मां चीख-चीख कर हत्यारों का मनोबल बढाती रही और यह कहती रही कि इस कलमुंही ने पूरे परिवार की इज्जत पर बट्टा लगाया है। इसे जीने का कोई हक नहीं है। यह ऐसी मौत की हकदार है जिसे देखकर कोई भी बेटी घर से बाहर झांकने और परिवार की नाक कटवाने की जुर्रत न कर पाए। निर्मोही मां की आंखों के सामने एक मासूम बेटी की गर्दन धड से अलग कर दी गयी। प्रेमी युगल की चीखें गूंजती रहीं पर किसी को रहम नहीं आया। आसपास के लोगों ने भी उन्हें बचाने की बजाय हत्यारों का पूरा-पूरा साथ देने की नपुंसकता दिखायी। यह वही नपुंसकता है जो दलितों पर जुल्म ढाये जाने पर लोगों की चुप्पी में नजर आती है और इसी नपुंसकता की वजह से देश में बलात्कारों की संख्या को गिन पाना मुश्किल होता चला जा रहा है। देश के प्रदेशों में होने वाले आतंकी हमले और साम्प्रदायिक दंगे भी इसी मूक हिजडेपन की देन हैं।
यह कितनी हैरत की बात है कि इज्जत के नाम पर होने वाली अधिकांश हत्याओं में कभी लडके तो कभी लडकी के पूरे परिवार की सहमति होती है। कभी-कभी तो लडके और लडकी के परिवार वाले मिलकर ही मर्जी से विवाह करने के इच्छुक या सगोत्रीय प्रेमी जोडों को मौत की नींद सुला देते हैं। स्थानीय नेताओं की चुप्पी तो समझ में आती है पर मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने वाले दिग्गज उम्रदराज नेता भी आनर किलिंग की वकालत करते नजर आते हैं।
प्रा. दामोदर मोरे की कविता में उठाये गये प्रश्न पता नहीं कब तक उत्तर की बाट जोहते रहेंगे :
''मुझे बताओ! हमारे लिए
जातिवाद का जाल कौन बिछाता है?
हमारी राह पर ऊंच-नीच का गतिरोधक
कौन और क्यों खडा करता है?
अज्ञान के अंधियारे में हमें कौन ढकेलता है?
अन्याय की आग में हमें कौन जलाता है?
अस्पृश्यता की नागिन को,
हमारे आंगन में किसने छोडा है?
हमें हीन बनाकर इन्सानियत का गला किसने घोटा है?''
दलितों के दुश्मनों और इज्जत की खातिर अपनी ही संतानों के हत्यारों की अक्ल अगर समय रहते ठिकाने नहीं लगायी गयी तो भविष्य में और...और होने वाले अनर्थ की कल्पना कर यह कलम कांप उठती है। अब तो होश में आओ हुक्मरानों और राजनीति के ठेकेदारो... कब तक वोटों के लालच में अंधे और बहरे बने रहोगे?
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