पत्रकारों को तो हिम्मती और दिलेर माना जाता है। हर संकट-कंटक और जुल्म से भिडने का उनमें अभूतपूर्व साहस होता है। उनकी निर्भीक कलम बडे-बडे माफियाओं, जालसाजों और भ्रष्टाचारियों की रूह को कंपा कर रख देती है। यह भी सबको खबर है कि अराजक तत्वों को बेनकाब करने वाले निष्पक्ष पत्रकारों को अक्सर कई जानलेवा तूफानों का सामना भी करना पडता है। भ्रष्ट सत्ताधीशों, अफसरों और राजनेताओं के द्वारा खोजी पत्रकारों को पिटवाये और मरवाये जाने की कितनी ही खबरें पढने और सुनने में आती रहती हैं। फिर भी पत्रकारों का उत्साह कम नहीं होता। पत्रकारीय दायित्व को निभाते हुए समाज के शत्रुओं के साथ उनकी लडाई सतत जारी रहती है। बीते सप्ताह भोपाल के एक पत्रकार की आत्महत्या कर लेने की खबर बेहद स्तब्ध कर गयी। समर्पित कलमकारों को वतन के लुटेरों और धोखेबाजों के द्वारा गोलियों से भून-भूना देने के दौर में एक सजग पत्रकार को जहर पीकर इस दुनिया से विदायी लेनी पडी! यह तो वाकई बेहद चौकाने वाली घटना है।
देश के प्रदेश मध्यप्रदेश की राजधानी के पत्रकार राजेंद्र सिंह राजपूत एक जुनूनी पत्रकार थे। बिलकुल वैसे ही जैसे हर देश प्रेमी पत्रकार होता है। उन्हें कहीं से खबर लगी कि मौजूदा काल में जब देश के लाखों पढे-लिखे नवयुवक नौकरियों की तलाश में मारे-मारे भटक रहे हैं, तब कई शातिरों ने शासन और प्रशासन की आंख में धूल झोंककर अच्छी-खासी सरकारी नौकरियां हथिया ली हैं। वे फौरन सक्रिय हो गये। उन्होंने सूचना के अधिकार के जरिए ऐसे ३०० अफसरों की पुख्ता जानकारी हासिल की जिन्होंने सामान्य वर्ग के होने के बावजूद अनुसूचित जाति के फर्जी प्रमाण पत्र बनवाये और भारत सरकार तथा विभिन्न प्रदेशो में शानदार रूतबे वाली नौकरियां पायीं। यह तो शासन और प्रशासन के साथ बहुत बडी धोखाधडी थी। इसका पर्दाफाश होना बहुत जरूरी था। पत्रकार राजपूत ने सजग पत्रकारिता के धर्म को निभाते हुए अपने अखबार में उन तमाम जालसाजों को नंगा करने का अभियान शुरू कर दिया, जो फर्जी प्रमाण पत्रों की बदौलत मेडिकल आफिसर, इंजिनियर, रजिस्ट्रार, इन्कम टैक्स कमिश्नर, पुलिस और वन अधिकारी आदि-आदि की कुर्सी पर काबिज होकर ऐश कर रहे हैं। योग्य उम्मीदवार जिन्हें नौकरी की दरकार है वे अपनी किस्मत को कोस रहे हैं।
फर्जीवाडा कर अफसरी के मज़े लूटने वाले २५० लोगों के खिलाफ राजपूत ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका भी दायर करवायी। उनकी शिकायत पर मध्यप्रदेश शासन की राज्य स्तरीय अनुसूचित जाति छानबीन समिति ने २० सितंबर २००६ को ५६ अधिकारियों, कर्मचारियों को तत्काल नौकरी से बर्खास्त करने का आदेश दे दिया। इतना ही नहीं उनके फर्जी प्रमाण पत्रों को राजसात कर दंडात्मक कार्रवाई करने व उनके पुत्र-पुत्रियो के जाति प्रमाण पत्र भी निरस्त कर राजसात करने का आदेश पारित कर पत्रकार राजपूत की खबर पर पूरी सच्चाई की मुहर लगा दी।
राजपूत यकीनन पत्रकारिता के धर्म निभा रहे थे, लेकिन फर्जीवाडा करने वालों की धाकड जमात उनकी जान की दुश्मन बन गयी। उनका अपहरण किया गया। शिकायत वापसी के लिए आवेदन पत्र एवं शपथ पत्र पर हस्ताक्षर कराये गये। उनकी पत्नी और बेटी को भी धमकाया गया। मारने-पीटने और फर्जी केस में फंसाने का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला चला दिया गया। आरोपी अफसरों की ऊपर तक पहुंच थी, इसलिए राजपूत की किसी ने नहीं सुनी। उन्होंने मुख्य सचिव, डीजीपी, आईजी से लेकर हर पुलिस अफसर और सत्ताधीश की चौखट पर जाकर फरियाद की, कि माई-बाप मुझे बचाओ। फर्जीवाडा करने वाला गिरोह मेरी जान लेने को उतारू है। मेरे खिलाफ अलग-अलग थानों में धोखाधडी के फर्जी केस दर्ज करवा दिये गये हैं। यह तो 'उलटा चोर कोतवाल को डांटे' वाली बात है। मैंने जालसाजों को बेनकाब कर देश की सेवा की है। इन ठगों और लुटेरों को तो जेल में होना चाहिए। पर इनका तो बाल भी बांका होता नहीं दिखता। मैं आखिर कहां जाऊं? सच की लडाई लडने वाला पत्रकार जालसाजों से निरंतर जूझता रहा। न शासन ने उसकी सुनी, न ही प्रशासन ने। सफेदपोश गुंडों की धमकियों और चालबाजियों ने उसका तथा उसके परिवार का जीना इस कदर हराम कर दिया था कि आखिरकार उसे आत्महत्या करने को विवश होना पडा। आत्महत्या करने से पहले उसने २२ पेज का एक सुसाइड नोट भी लिखा, जिसमें उन तमाम बदमाश अफसरों के नाम दर्ज हैं। यकीनन राजपूत कायर तो नहीं था। अगर बुजदिल होता तो इस जंग की शुरुआत ही नहीं करता। दरअसल, उन्हीं जालसाज कायरों ने ही उसकी हत्या की है जिसका उन्होंने बेखौफ होकर पर्दाफाश किया। उन्हें तो पुरस्कृत किया जाना चाहिए था। पर उन्हें मौत दे दी गयी। यह कैसी व्यवस्था है? उनकी मौत के बाद मुख्यमंत्री का बयान आया कि पत्रकार के परिवार के लोग मेरे परिवार जैसे ही हैं। मैं इनकी हर तरह से सहायता करने को कटिबद्ध हूं। यह कैसी विडंबना है कि एक जीते-जागते पत्रकार को पूरी तरह से निरीह बनाकर रख दिया गया और उसके मरने के बाद उसके परिवार को दाल-रोटी देने और न्याय दिलाने का आश्वासन दिया जा रहा है! यह ढोंग कब तक चलता रहेगा।
देश के प्रदेश मध्यप्रदेश की राजधानी के पत्रकार राजेंद्र सिंह राजपूत एक जुनूनी पत्रकार थे। बिलकुल वैसे ही जैसे हर देश प्रेमी पत्रकार होता है। उन्हें कहीं से खबर लगी कि मौजूदा काल में जब देश के लाखों पढे-लिखे नवयुवक नौकरियों की तलाश में मारे-मारे भटक रहे हैं, तब कई शातिरों ने शासन और प्रशासन की आंख में धूल झोंककर अच्छी-खासी सरकारी नौकरियां हथिया ली हैं। वे फौरन सक्रिय हो गये। उन्होंने सूचना के अधिकार के जरिए ऐसे ३०० अफसरों की पुख्ता जानकारी हासिल की जिन्होंने सामान्य वर्ग के होने के बावजूद अनुसूचित जाति के फर्जी प्रमाण पत्र बनवाये और भारत सरकार तथा विभिन्न प्रदेशो में शानदार रूतबे वाली नौकरियां पायीं। यह तो शासन और प्रशासन के साथ बहुत बडी धोखाधडी थी। इसका पर्दाफाश होना बहुत जरूरी था। पत्रकार राजपूत ने सजग पत्रकारिता के धर्म को निभाते हुए अपने अखबार में उन तमाम जालसाजों को नंगा करने का अभियान शुरू कर दिया, जो फर्जी प्रमाण पत्रों की बदौलत मेडिकल आफिसर, इंजिनियर, रजिस्ट्रार, इन्कम टैक्स कमिश्नर, पुलिस और वन अधिकारी आदि-आदि की कुर्सी पर काबिज होकर ऐश कर रहे हैं। योग्य उम्मीदवार जिन्हें नौकरी की दरकार है वे अपनी किस्मत को कोस रहे हैं।
फर्जीवाडा कर अफसरी के मज़े लूटने वाले २५० लोगों के खिलाफ राजपूत ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका भी दायर करवायी। उनकी शिकायत पर मध्यप्रदेश शासन की राज्य स्तरीय अनुसूचित जाति छानबीन समिति ने २० सितंबर २००६ को ५६ अधिकारियों, कर्मचारियों को तत्काल नौकरी से बर्खास्त करने का आदेश दे दिया। इतना ही नहीं उनके फर्जी प्रमाण पत्रों को राजसात कर दंडात्मक कार्रवाई करने व उनके पुत्र-पुत्रियो के जाति प्रमाण पत्र भी निरस्त कर राजसात करने का आदेश पारित कर पत्रकार राजपूत की खबर पर पूरी सच्चाई की मुहर लगा दी।
राजपूत यकीनन पत्रकारिता के धर्म निभा रहे थे, लेकिन फर्जीवाडा करने वालों की धाकड जमात उनकी जान की दुश्मन बन गयी। उनका अपहरण किया गया। शिकायत वापसी के लिए आवेदन पत्र एवं शपथ पत्र पर हस्ताक्षर कराये गये। उनकी पत्नी और बेटी को भी धमकाया गया। मारने-पीटने और फर्जी केस में फंसाने का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला चला दिया गया। आरोपी अफसरों की ऊपर तक पहुंच थी, इसलिए राजपूत की किसी ने नहीं सुनी। उन्होंने मुख्य सचिव, डीजीपी, आईजी से लेकर हर पुलिस अफसर और सत्ताधीश की चौखट पर जाकर फरियाद की, कि माई-बाप मुझे बचाओ। फर्जीवाडा करने वाला गिरोह मेरी जान लेने को उतारू है। मेरे खिलाफ अलग-अलग थानों में धोखाधडी के फर्जी केस दर्ज करवा दिये गये हैं। यह तो 'उलटा चोर कोतवाल को डांटे' वाली बात है। मैंने जालसाजों को बेनकाब कर देश की सेवा की है। इन ठगों और लुटेरों को तो जेल में होना चाहिए। पर इनका तो बाल भी बांका होता नहीं दिखता। मैं आखिर कहां जाऊं? सच की लडाई लडने वाला पत्रकार जालसाजों से निरंतर जूझता रहा। न शासन ने उसकी सुनी, न ही प्रशासन ने। सफेदपोश गुंडों की धमकियों और चालबाजियों ने उसका तथा उसके परिवार का जीना इस कदर हराम कर दिया था कि आखिरकार उसे आत्महत्या करने को विवश होना पडा। आत्महत्या करने से पहले उसने २२ पेज का एक सुसाइड नोट भी लिखा, जिसमें उन तमाम बदमाश अफसरों के नाम दर्ज हैं। यकीनन राजपूत कायर तो नहीं था। अगर बुजदिल होता तो इस जंग की शुरुआत ही नहीं करता। दरअसल, उन्हीं जालसाज कायरों ने ही उसकी हत्या की है जिसका उन्होंने बेखौफ होकर पर्दाफाश किया। उन्हें तो पुरस्कृत किया जाना चाहिए था। पर उन्हें मौत दे दी गयी। यह कैसी व्यवस्था है? उनकी मौत के बाद मुख्यमंत्री का बयान आया कि पत्रकार के परिवार के लोग मेरे परिवार जैसे ही हैं। मैं इनकी हर तरह से सहायता करने को कटिबद्ध हूं। यह कैसी विडंबना है कि एक जीते-जागते पत्रकार को पूरी तरह से निरीह बनाकर रख दिया गया और उसके मरने के बाद उसके परिवार को दाल-रोटी देने और न्याय दिलाने का आश्वासन दिया जा रहा है! यह ढोंग कब तक चलता रहेगा।
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