ऐन दिवाली से कुछ दिन पूर्व पटना में हुई भाजपा की चुनावी महारैली ने दबे-छिपे खतरों के संकेत दे दिये हैं। यह तो खबर थी कि कई ताकतें नरेंद्र मोदी से खफा हैं। उनकी हुंकार रैली को जिस तरह से बम और बारुद से सलामी दी गयी उससे बिहार सरकार की निष्क्रियता की भी पोल खुल गयी है। नीतीश कुमार सुशासन के दावे करते हैं। उनके सुशासन में एक के बाद एक बमों का फटना, छह लोगों का बे-मौत मारा जाना और लगभग सौ लोगों का घायल होना उनकी घोर लापरवाही और नाकामी को ही दर्शाता है। मोदी की पटना किसी भी हालत में रैली न होने पाए, ऐसा तो नीतीश कुमार शुरू से ही चाहते थे। राजनीतिक शत्रुता तो समझ में आती हैं पर यह सिलसिलेवार धमाकेबाजी कई शंकाएं पैदा करती है। सत्ता के नशे में चूर मुख्यमंत्री के चेहरे पर कहीं कोई शिकन नजर नहीं आयी। मृतकों और घायलों के प्रति उन्होंने ऊपरी तौर पर ही संवेदना और सहानुभूति दर्शायी। यह निर्मम चेहरा किसी को भी नहीं भाया। क्या राजनीति इंसान को पत्थर से भी गया-बीता बना देती है? उनकी निगाहें सिर्फ और सिर्फ मोदी की हुंकार रैली और उनके भाषण पर टिकी रहीं। तभी तो उन्होंने मोदी के सवालों के सिलसिलेवार जवाब देने में देरी नहीं लगायी। उन्होंने मोदी को अज्ञानी और हिटलर का अनुयायी घोषित कर तालियां बटोरीं। यकीनन नीतीश अंदर से घबराये हुए हैं। उन्हें मोदी का भय खाये जा रहा है। उन्हीं के प्रदेश की राजधानी में आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन ने जिस तरह का खूनी खेल खेला उससे तो अगले वर्ष होने जा रहे लोकसभा चुनावों पर भी भयावह खतरा मंडराने लगा है। मुख्यमंत्री के दंभी तेवरों से तो यही लगा कि वे बिहार के जन्मजात शासक हैं। वे जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा। अपने राजनीतिक विरोधियों का बिहार की धरा पर कदम धरना भी इन्हें खलता है। उनके इसी रवैये के कारण ही उनकी पार्टी के कुछ नेता भी उनसे काफी नाराज हैं। जेडीयू के मुखर सांसद शिवानंद तिवारी ने तो मुख्यमंत्री के चेहरे का रंग ही उतार दिया। उन्होंने भरी सभा में कहा कि नीतीश जमीनी नेता नहीं हैं। नरेंद्र मोदी ने पिछडे परिवार में जन्म लेकर कडा परिश्रम कर जो मुकाम हासिल किया है उसकी तारीफ की ही जानी चाहिए। हुंकार रैली के दौरान भाषण देते वक्त नरेंद्र मोदी ने शालीनता का दामन छोडने की भूल नहीं की। नीतीश ने तो नरेंद्र मोदी की तुलना जेल में कैद दुराचारी आसाराम से ही कर डाली। उनकी इस सोच ने उनके अंदर छिपे कपटी चेहरे को उजागर कर दिया है। राजनीति इतनी विषैली भी हो सकती है, इसका भी पता चल गया है।
देश के पांच राज्य पूरी तरह से चुनावी रंग में डूब चुके हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में भाजपा, दिल्ली राजस्थान और मिजोरम में कांग्रेस की सत्ता है। दोनों पार्टियों ने सत्ता पाने और सत्ता में बने रहने के लिए तरह-तरह की तिकडमों और प्रलोभनों का जाल फेंकना शुरू कर दिया है। दिल्ली में 'आप' पार्टी ने भाजपा और कांग्रेस की नींद हराम कर दी है। शीला दीक्षित को पता नहीं क्यों फिर से दिल्ली की सत्ता पाने का पूरा भरोसा है। उनके राज में दिल्ली में कितने बलात्कार हुए और कितनी लूटपाट की घटनाएं हुर्इं, इसका तो शायद उन्हें अता-पता नहीं है फिर भी बडी-बडी बातें करने से बाज नहीं आतीं। इसी शीला ने कभी कहा था कि लडकियों को अंधेरा होते ही घरों में दुबक जाना चाहिए। यानी वे उनकी सुरक्षा कर पाने में असमर्थ हैं। दोनों ही पार्टियां लोकलुभावन योजनाओं की घोषणाएं कर वही वर्षों पुराना खेल खेल रही हैं। धर्म, जाति और क्षेत्र की राजनीति करने में कांग्रेस और भाजपा को महारथ हासिल है। इस जंग में 'आप' के सुप्रिमो अरविंद केजरीवाल की कितनी दाल गल पाती है इस ओर सभी की निगाहें लगी हैं। सभी जानते हैं कि बिना धन-बल के चुनाव लड पाना असंभव है। फिर भी यदि वे जमे-जमाये सूरमाओं को पटकनी देने में कामयाब हो जाते हैं तो यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं होगा कि इस देश में ईमानदारी की अभी भी पूछ होती है...। जहां-जहां भाजपा की सत्ता है वहां पर कांग्रेस जी-जान लगा रही है कि किसी भी तरह से बिल्ली के भाग्य से छींका तो टूट जाए। वही हाल भाजपा का भी है। वह भी येन-केन-प्रकारेण कांग्रेस शासित प्रदेशों को अपने कब्जे में लेना चाहती है। सत्ता को पाने और हथियाने का जबरदस्त नाटक चल रहा है। जनहितकारी मुद्दों का कहीं अता-पता नहीं है। कोई पार्टी बिजली मुफ्त देने का प्रलोभन दे रही है तो किसी ने एकाध रुपये किलो में चावल-गेहूं देने का वायदा कर वोटरों को फांसने के लिए अपना-अपना जाल फेंक दिया है। भ्रष्टाचार के दलदल में धंसी कांग्रेस की धारणा है कि वह दिल्ली में चौथी बार भी चुनाव जीतने की अधिकारी है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह आश्वस्त हैं कि मतदाता तीसरी बार भी उन्हीं के गले में विजय की माला पहनाएंगे। छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी अपनी चाउरबाबा की छवि को भुनाने की फिराक में हैं। उन्होंने जब छत्तीसगढ की कमान संभाली थी तो प्रदेशवासियों के दिलों में उम्मीद जगी थी कि वे प्रदेश में उद्योग धंधो की कतार खडी कर देंगे। जिनसे लोगों को रोजगार मिलेगा। गरीबी और बदहाली दूर होगी। लोगों को यह भी भरोसा था कि नक्सली समस्या का भी खात्मा हो जायेगा। डॉ. रमन चाउर वाले बाबा बनकर अपनी छवि को चमकाने में तो कामयाब जरूर हुए पर छत्तीसगढ की हालत में कोई खास सुधार नहीं कर पाये। लोगों को औने-पौने दाम पर या फिर मुफ्त में चावल-दाल उपलब्ध करवा कर गरीबी तो दूर नहीं की जा सकती। अब इसका जवाब तो डॉ. रमन ही दे सकते हैं कि उन्होंने मूल समस्याओं के निराकरण की तरफ ध्यान क्यों नहीं दिया? उन्हें इस बात की भी खबर होगी कि नक्सलियों ने उस आतंकी संगठन इंडियन मुजाहीदीन से हाथ मिला लिए हैं, जिसने पटना में बम बिछाकर मनचाहा खूनी कहर ढाया।
वसुंधरा राजे भी राजस्थान की मुख्यमंत्री बनने के सपनों के घोडे पर सवार हैं। उन्हें यकीन है कि अशोक गहलोत भले ही असली जादूगर हों पर इस बार उनका ही जादू चलने वाला है। प्रदेश की जनता रानी साहिबा को हाथोंहाथ लेने को तैयार खडी है। सत्ता के सिंहासन के लिए बेशुमार आश्वासन बांटते राजनेताओं के भ्रम को अगर कोई तोड सकता है तो वे सिर्फ और सिर्फ मतदाता ही हैं। देखें, इस बार वे क्या करते हैं। जागते हैं या फिर सोये के सोये रह जाते हैं। दरअसल आजकल चुनावी मंचों पर अभिनेताओं की भरमार हो गयी है। फिल्मी अभिनेताओं की तो पूछ रही नहीं, इसलिए नेता ही अभिनेता बन गये हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को अतीत की दास्तानें सुनाने में सुकून मिलता है। भाजपा के भावी प्रधानमंत्री के अभिनय का तो कहीं कोई सानी ही नहीं है। ऐसे बनावटी और दिखावटी दौर में समस्त देशवासियों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
देश के पांच राज्य पूरी तरह से चुनावी रंग में डूब चुके हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में भाजपा, दिल्ली राजस्थान और मिजोरम में कांग्रेस की सत्ता है। दोनों पार्टियों ने सत्ता पाने और सत्ता में बने रहने के लिए तरह-तरह की तिकडमों और प्रलोभनों का जाल फेंकना शुरू कर दिया है। दिल्ली में 'आप' पार्टी ने भाजपा और कांग्रेस की नींद हराम कर दी है। शीला दीक्षित को पता नहीं क्यों फिर से दिल्ली की सत्ता पाने का पूरा भरोसा है। उनके राज में दिल्ली में कितने बलात्कार हुए और कितनी लूटपाट की घटनाएं हुर्इं, इसका तो शायद उन्हें अता-पता नहीं है फिर भी बडी-बडी बातें करने से बाज नहीं आतीं। इसी शीला ने कभी कहा था कि लडकियों को अंधेरा होते ही घरों में दुबक जाना चाहिए। यानी वे उनकी सुरक्षा कर पाने में असमर्थ हैं। दोनों ही पार्टियां लोकलुभावन योजनाओं की घोषणाएं कर वही वर्षों पुराना खेल खेल रही हैं। धर्म, जाति और क्षेत्र की राजनीति करने में कांग्रेस और भाजपा को महारथ हासिल है। इस जंग में 'आप' के सुप्रिमो अरविंद केजरीवाल की कितनी दाल गल पाती है इस ओर सभी की निगाहें लगी हैं। सभी जानते हैं कि बिना धन-बल के चुनाव लड पाना असंभव है। फिर भी यदि वे जमे-जमाये सूरमाओं को पटकनी देने में कामयाब हो जाते हैं तो यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं होगा कि इस देश में ईमानदारी की अभी भी पूछ होती है...। जहां-जहां भाजपा की सत्ता है वहां पर कांग्रेस जी-जान लगा रही है कि किसी भी तरह से बिल्ली के भाग्य से छींका तो टूट जाए। वही हाल भाजपा का भी है। वह भी येन-केन-प्रकारेण कांग्रेस शासित प्रदेशों को अपने कब्जे में लेना चाहती है। सत्ता को पाने और हथियाने का जबरदस्त नाटक चल रहा है। जनहितकारी मुद्दों का कहीं अता-पता नहीं है। कोई पार्टी बिजली मुफ्त देने का प्रलोभन दे रही है तो किसी ने एकाध रुपये किलो में चावल-गेहूं देने का वायदा कर वोटरों को फांसने के लिए अपना-अपना जाल फेंक दिया है। भ्रष्टाचार के दलदल में धंसी कांग्रेस की धारणा है कि वह दिल्ली में चौथी बार भी चुनाव जीतने की अधिकारी है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह आश्वस्त हैं कि मतदाता तीसरी बार भी उन्हीं के गले में विजय की माला पहनाएंगे। छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी अपनी चाउरबाबा की छवि को भुनाने की फिराक में हैं। उन्होंने जब छत्तीसगढ की कमान संभाली थी तो प्रदेशवासियों के दिलों में उम्मीद जगी थी कि वे प्रदेश में उद्योग धंधो की कतार खडी कर देंगे। जिनसे लोगों को रोजगार मिलेगा। गरीबी और बदहाली दूर होगी। लोगों को यह भी भरोसा था कि नक्सली समस्या का भी खात्मा हो जायेगा। डॉ. रमन चाउर वाले बाबा बनकर अपनी छवि को चमकाने में तो कामयाब जरूर हुए पर छत्तीसगढ की हालत में कोई खास सुधार नहीं कर पाये। लोगों को औने-पौने दाम पर या फिर मुफ्त में चावल-दाल उपलब्ध करवा कर गरीबी तो दूर नहीं की जा सकती। अब इसका जवाब तो डॉ. रमन ही दे सकते हैं कि उन्होंने मूल समस्याओं के निराकरण की तरफ ध्यान क्यों नहीं दिया? उन्हें इस बात की भी खबर होगी कि नक्सलियों ने उस आतंकी संगठन इंडियन मुजाहीदीन से हाथ मिला लिए हैं, जिसने पटना में बम बिछाकर मनचाहा खूनी कहर ढाया।
वसुंधरा राजे भी राजस्थान की मुख्यमंत्री बनने के सपनों के घोडे पर सवार हैं। उन्हें यकीन है कि अशोक गहलोत भले ही असली जादूगर हों पर इस बार उनका ही जादू चलने वाला है। प्रदेश की जनता रानी साहिबा को हाथोंहाथ लेने को तैयार खडी है। सत्ता के सिंहासन के लिए बेशुमार आश्वासन बांटते राजनेताओं के भ्रम को अगर कोई तोड सकता है तो वे सिर्फ और सिर्फ मतदाता ही हैं। देखें, इस बार वे क्या करते हैं। जागते हैं या फिर सोये के सोये रह जाते हैं। दरअसल आजकल चुनावी मंचों पर अभिनेताओं की भरमार हो गयी है। फिल्मी अभिनेताओं की तो पूछ रही नहीं, इसलिए नेता ही अभिनेता बन गये हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को अतीत की दास्तानें सुनाने में सुकून मिलता है। भाजपा के भावी प्रधानमंत्री के अभिनय का तो कहीं कोई सानी ही नहीं है। ऐसे बनावटी और दिखावटी दौर में समस्त देशवासियों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
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