Saturday, January 25, 2014

खादी और खाकी के कलंक

खाकी और खादी के गठबंधन को तोड पाना आसान नहीं है। मुंबई के एक भूतपूर्व पुलिस अधिकारी वाय.के.सिं‍ह ने अपनी पुस्तक में इन दोनों के मजबूत रिश्तों पर इतना कुछ लिखा है कि हर पढने वाला स्तब्ध रह जाता है। जिस देश में खादी और खाकी एक हो जाएं उसका तो भगवान ही मालिक है। बडी से बडी क्रांति इनके चेहरे पर शिकन नहीं ला सकती। क्या यह चौंकानेवाला सच नहीं है कि इस देश में थानों की बोली लगती है! यह बोली पच्चीस-पचास हजार में सिमट कर नहीं रह जाती। इसका आंकडा तो लाखों और करोडों तक जाता है। जिस इलाके में जितने ज्यादा अपराध और अपराधी होते हैं उतनी ही उसकी कीमत बढ जाती है। इसलिए तो कहा जाता है कि पुलिस वालों की रजामंदी के बिना कहीं भी सतत अवैध कारोबार नहीं चल सकते। शहरों और महानगरों में अपराध और अपराधियों की एक अपनी दुनिया आबाद हो चुकी है। किस-किस इलाके में अवैध शराब बनती है, देह व्यवसाय होता है, जुए के अड्डे चलते हैं और दिन के उजाले में तमाम काले धंधे होते हैं इनकी पूरी खबर चतुर और कमाऊ पुलिसवालों को रहती है। जब तक उन्हें अपना हिस्सा मिलता रहता है तब तक कोई छापेमारी नहीं की जाती। इस कमाई का हिस्सा ऊपर तक पहुंचता है। ऊपर वालों का जिन मंत्रियों-विधायकों से टांका भिडा रहता है उनकी सारी मुरादें पूरी कर दी जाती हैं। तभी तो पुलिस अधिकारियों को मनचाहे थाने की गद्दी मिलती है। जब कभी किसी समाजसेवक अथवा ईमानदार नेता के द्वारा अराजक तत्वों और उनके ठिकानों के खिलाफ आवाज उठायी जाती है और खाकी वर्दीवालों को कानूनी कार्रवाई करने के लिए कहा जाता है तो वे बडी चालाकी के साथ आनाकानी करते नज़र आते हैं। ऐसे में अक्सर यह भी होता है कि कुछ जिम्मेदार नागरिक अपराधियों को सबक सिखाने के लिए ऐसा कदम उठाने को विवश हो जाते हैं जिसे गैर कानूनी कहा जाता है। जहां कानून के रक्षक अपने कर्तव्य ईमानदारी और नैतिकता को रिश्वतखोरी की मंडी में नीलाम कर चुके हों वहां ऐसी तथाकथित अवैधानिक पहल और कोशिश को आम जनता के द्वारा सराहा जाता है। किसी के हिस्से की तालियां कोई और बटोर ले जाता है और इससे जो परिदृष्य बनता है उससे वो 'कोई' नायक बन जाता है। पुलिस विभाग की नस-नस में घर कर चुके भ्रष्टाचार और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार के चलते आमजनों को जहां मुसीबतें झेलनी पडती हैं, वहीं उन वर्दीधारियों का भी दम घुटने लगता है जो कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के साथ काम करना चाहते हैं। उन्हें अपने उच्च अधिकारियों और नेताओं, मंत्रियों की दखलअंदाजी शूल की तरह चुभती है। अपने उसूलों पर टिके रहने का खामियाजा उन्हें भुगतना पडता है। भ्रष्ट उन पर भारी पड जाते हैं। तरक्की दर तरक्की पाते चले जाते हैं। ईमानदार पुलिस कर्मी मन मसोस कर रह जाते हैं। इनकी हर स्तर पर अवहेलना की जाती है। आखिरकार एक वक्त ऐसा भी आता है जब स्वाभिमानी खाकी वर्दीधारी को नौकरी छोड देनी पडती है। कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो आत्महत्या कर 'दुखद खबर' बन जाते हैं। पर ऐसी खबरें किसी को नहीं चौंकाती। पुलिसवाले के फांसी पर झूल जाने या खुद के हाथों खुद को गोली का शिकार बनाने के पीछे भ्रामक कारण गिनाये जाते हैं। असली सच को छुपा लिया जाता है।
एक असली सच यह भी है कि पुलिस वालों को १६ से १८ घंटे तक कोल्हू के बैल की तरह खून-पसीना बहाना पडता है। खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं होता। वे जिन सरकारी घरों में रहते हैं उनकी जर्जर हालत दबे हुए सच को उजागर करती है। जिन्हें धन कमाने का हुनर आता है और अफसरों की चाटूकारिता करनी आती है उनके यहां तमाम सुख-सुविधाओं के सामान भरे रहते हैं। जो इस कला से नावाकिफ हैं या जिनकी खुद्दारी ने उन्हें बिकाऊ नहीं बनाया वे तमाम असुविधाओं के बीच जैसे-तैसे दिन काटते रहते हैं। २०१४ एक नयी दास्तान लिखने को आतुर है। जागरूक जनता ने कमर कस ली है। हिं‍दुस्तान की पुलिस को बदलना ही होगा। अगर उसने खुद का नहीं सुधारा तो लोग उसे सुधरने के लिए मजबूर कर देंगे। बर्दाश्त करने की भी कोई हद होती है। यहां तो सभी हदें पार कर दी गयी हैं। सीधा-सादा आदमी, अनपढ आदमी, मेहनतकश आदमी, बेसहारा आदमी पुलिस थाने जाता है तो उसकी सुनी नहीं जाती। उसे दुत्कार कर भगा दिया जाता है। अधिकांश पुलिस वालों का नैतिकता, कर्तव्य और संवेदना से कोई लेना-देना नहीं है। वे हमेशा अपनी मुट्ठी गर्म करने की ताक में लगे रहते हैं। हुक्मरानों, सत्ता के दलालों, माफियाओं, छटे हुए बदमाशों और सफेदपोशों के सामने अधिकांश पुलिसवालो की घिग्गी बंधी रहती है और आम आदमी पर उसके आतंकी डंडे का जबर्दस्त जोर चलता है। यह हमारा नहीं, उन लाखों भुक्तभोगियों का कहना है जो तथाकथित वर्दी वाले गुंडों के सताये हुए हैं। रिश्वतखोर पुलिस वालों की दादागिरी आम लोगों पर ज्यादा ही चलती है। पिछले वर्ष एक खूंखार हत्यारे ने अपना दर्द बयां करते हुए कहा था कि उसे बेईमान खाकी वर्दी वालों ने अपराधकर्म करने को विवश किया। वह तो अपनी रोजी-रोटी के लिए सडक के किराने सामान बेचता था। पुलिस वाले उसे 'हफ्ता' देने के लिए मजबूर करते थे। उसकी इतनी कमायी नहीं थी कि हर पुलिस वाले की मांग को पूरा कर पाता। उसने 'खाकी' का अपराधी चेहरा देखकर अपराधी बनने की ठान ली। अपराधी से हत्यारा बनने में उसे ज्यादा समय नहीं लगा। इस देश में ऐसे कई लोग हैं जिन्हें पुलिस ने गलत मार्ग पर चलने को विवश किया और आज अपराध जगत में उनकी तूती बोलती है। कई नेता और पुलिस वाले उनके दरबार में हाजिरी लगाते हैं। ऐसे शर्मनाक हालातों को बदलने के लिए किसी न किसी नायक को तो सामने आना ही पडेगा।

No comments:

Post a Comment