Friday, January 17, 2014

मीडिया किसी का गुलाम नहीं

यह कोई नयी बात नहीं है। मीडिया को निशाने पर लेना बडा पुराना चलन है। ऐसे राजनेता कम हैं जो सच का सामना करने का दम रखते हों। अपने खिलाफ चलने वाली हर खबर में इन्हें कोई गहरी साजिश नजर आने लगती है। अपनी उग्र प्रतिक्रिया दर्शाने के लिए यह फौरन सीना तानकर ख‹डे हो जाते हैं। अखिलेश यादव से लोगों को कितनी उम्मीदें थीं। उनको उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने के लिए प्रदेश की जनता ने वोटो के अंबार लगा दिये। युवा अखिलेश के वादे ही कुछ ऐसे थे। हर किसी ने फौरन भरोसा कर लिया। पर धीरे-धीरे जो परिणाम सामने आये उनसे मतदाताओं को फिर से एक बार बुरी तरह से ठगे जाने का यकीन हो गया है। उत्तरप्रदेश 'दंगा प्रदेश' बन कर रह गया है। समाजवादी नेताओं और खाकी वर्दी धारियों की गुंडागर्दी ने जनता का जीना हराम कर दिया है। अखिलेश उस कठपुतली की तरह इधर-उधर डोलते नजर आ रहे हैं, जिसकी डोर किन्हीं अदृष्य हाथों में है। मुजफ्फर नगर में हुए दंगों ने उनके 'अपंग' होने के पूरे सबूत पेश कर दिये। उनके पिता मुलायम सिंह यादव दंगा पीडितों को 'अराजक तत्वों का जमावडा' कहने से भी बाज नहीं आए। भरी ठंड में उनके तंबुओं को ही उखडवा दिया गया। सत्ता लोलुप मुलायम सिंह का निष्ठुर और निर्लज्ज होना तो समझ में आता है, लेकिन उनके सुपुत्र अखिलेश सिंह यादव की निर्ममता, नीचता और नालायकी की पठकथा समझ से बाहर है। उन्होंने क्या सोचकर 'सैफई महोत्सव' में करोडों रुपये फूंके? इसी दरम्यान उन्होंने अपने कुछ विधायकों और मंत्रियों के काफिले को तथाकथित अध्यन्न यात्रा के लिए विदेश भी भेज दिया! यह जनप्रतिनिधि हद दर्जे के घटिया इंसान निकले। इन्हें प्रदेश की जनता की बदहाली का ज़रा भी ख्याल नहीं आया। मुजफ्फर नगर के कैंपों में कडकडाती ठंड में अपनी रातें गुजारते बदनसीबों को मंत्री आजमखां ने ऐसे नजअंदाज कर दिया जैसे कि वे कीडे मकोडे हों। ऐसे ही मर-खप कर दुनिया से रुखसत हो जाना उनकी नियति हो। जो मंत्री और विधायक इंसानी पीडा को नहीं समझ सकते उन्हें तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। अखिलेश कहते हैं विधायकों और मंत्रियों का विदेशों में अध्यन्न करने के लिए जाना कोई गलत काम नहीं है। इस नकारे मुख्यमंत्री को कौन समझाये कि यह पढायी नहीं अय्याशी है, हद दर्जे की लंपटता और नालायकी है। अध्यन्न के नाम पर किये जाने वाले सैर-सपाटों में तो शालीनता होती है। फिर ऐसे सैर सपाटे तो तभी शोभा देते हैं जब प्रदेश में अमन और चैन का वातावरण हो। यहां तो समूचा प्रदेश ही जैसे सुलग रहा है। लोगों में गुस्सा भरा है। आजमखां सहित प्रदेश के १७ मंत्रियों को विदेशी मजे लूटने की खुली छूट और सैफई महोत्सव में सलमान खान, माधुरी दीक्षित आदि-आदि फिल्मी सितारों के ठुमकों में करोडों रुपये लूटाने वाले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को जब मीडिया ने आईना दिखाया तो वे ऐसे ताव में आ गये जैसे उन्हें भरे चौराहे नंगा कर दिया गया हो। उनकी दादागिरी तो देखिये। उन्होंने उन अखबारों और न्यूज चैनलों पर धडाधड प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी जो हकीकत बयां कर रहे थे। क्या शासक ऐसे होते हैं? यह तो हिटलरशाही है। मीडिया को अपने इशारों पर नचाने की मंशा पालने वाले सत्ताधीशों को नहीं भूलना चाहिए कि यदि सजग मीडिया अपनी पर आ गया तो उनके मायावी सपनों को चकनाचूर होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। मीडिया किसी का गुलाम नहीं हो सकता।
भारतीय जनता पार्टी के भावी पीएम सहित बहुतों की यह शिकायत है कि आम आदमी पार्टी मीडिया की देन है। अन्य पार्टियों के भी कुछ नेता हैं जिन्हें मीडिया किसी षडयंत्रकारी की भूमिका में दिखायी दे रहा है। बेचारे घबराये हुए हैं कि मीडिया का बहुत बडा हिस्सा उन्हें सत्ता से वंचित करने और आम आदमी पार्टी को केंद्र की सत्ता तक पहुंचाने की भरपूर कोशिशों में जुटा है। इन्हीं नेताओं की बिरादरी में कई ऐसे नेता हैं जो मीडिया पर बिकाऊ होने का आरोप भी लगाते रहे हैं। प्रिंट मीडिया को तो यह ऐसे धमकियां देते हैं जैसे वह इनकी खैरात पर चल रहा हो। इन्हें लगभग सभी अखबार वाले धन के लालची लगते हैं। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों में ईमानदारी से पत्रकारिता करने वालों की कमी नहीं है। जो मीडिया संस्थान पूंजीपतियों के कब्जे में हैं उन्हीं की घोर व्यवसायिक प्रवृत्ति के कारण ही भ्रष्टों और बददिमागों को तमाम मीडिया पर उंगली उठाने का अवसर मिलता है। ठग और लुटेरे पूंजीपतियों की जमात ने मीडिया को बाजार के चौराहे पर खडा कर दिया है। लेकिन पाठकों का एक ऐसा विशाल वर्ग है जो अच्छे और बुरे के बीच फर्क करना जानता है। इसलिए अच्छों और सचों पर कभी कोई आंच नहीं आ सकती। देश के सजग मीडिया को जब लगा कि भ्रष्टाचारियों की जमात को अरविंद केजरीवाल जैसे ईमानदार चेहरे ही मात दे सकते हैं तो उसने उसका साथ देने में जरा भी देरी नहीं लगायी। मीडिया का तो काम ही है लोगों को जगाना और होश में लाना। 'आप' का साथ देकर उसने कोई गुनाह नहीं किया। उसने तो पत्रकारिता के धर्म का पालन ही किया है। सच तो यह है कि देश की आम जनता मीडिया की शुक्रगुजार है। नाराज तो वो नेता हैं जिनकी दुकानों पर अब ताले लगने की नौबत आ गयी है। याद किजिए वो दिन जब उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनावों का मौसम था। मायावती के प्रति जनता में जबरदस्त आक्रोश था। ऐसे में जब युवा अखिलेश यादव चुनावी दंगल में उतरे थे तो प्रदेश की जनता उनके साथ हो ली थी। इसके पीछे मीडिया का भी अच्छा-खासा रोल था। देशभर के अखबारों और न्यूज चैनलों में अखिलेश रातों-रात छाते चले गये थे। सभी को उम्मीद थी कि यह युवक कुछ 'खास' करके दिखायेगा और जनता को राहत दिलायेगा। बरबादी के कगार पर पहुंच चुके प्रदेश को खुशहाली नसीब होगी। यह भी काबिलेगौर है कि यदि मुलायम सिंह यादव मायावती के खिलाफ मैदान में उतरते तो प्रदेश की जनता उन्हें नकार देती। उनके पुत्र अखिलेश के वादों पर जनता ने आंख मूंदकर भरोसा किया। पर इस युवक ने तो मायावती के शासन काल की दरिंदगियों को भी मात दे दी। अखिलेश के शासन में समाजवादी गुंडे कुछ भी कर गुजरने को आजाद हैं। महिलाएं पुलिसवालों के हाथो पिट रही हैं। अपराधी कानून को अपने हाथ में लेने से नहीं घबराते। दलितों, शोषितों और अल्पसंख्यकों का जीना मुहाल हो गया है। अखिलेश ने जिस तरह से जनता के भरोसे को तोडा है उससे तो अब तरह-तरह के सवाल उठने लगे हैं। वे ईमानदार युवक जो राजनीति में वास्तव में कुछ करके दिखाना चाहते हैं उन्हें भी शंका की निगाह से देखा जाने लगा है। दरअसल अखिलेश ने तो युवकों की साख को बट्टा लगा दिया है। कथनी और करनी में घोर अंतर रखने वाले ऐसे नेताओं का जब मीडिया पर्दाफाश करता है तो उनके तन-बदन में आग लग जाती है। वे खुद को बदलने और सुधारने की बजाय मीडिया को कटघरे में खडा करने लगते हैं। उन्हें किसी नये नेता और नयी पार्टी का बनना और उभरना तो कतई नहीं सुहाता। मीडिया पर आखें तरेरने वाले कितना भी जोर लगा लें पर मीडिया उनके इशारे पर नहीं नाचने वाला।

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