कुछ बातें, वारदातें, घटनाएं, हादसे और समाचार, खुशी, भय और चिंता के कगार पर पहुंचा देते हैं। अरविंद केजरीवाल के उदय ने लोगों के उत्साह को बढाया। नयी उम्मीदें जगायीं। लोकप्रियता के मामले में अन्ना हजारे को पछाडने वाले अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के देखते ही देखते छा जाने पर पेशेवर राजनेताओं से त्रस्त करोडों देशवासियों को अथाह प्रसन्नता और तसल्ली हुई। केजरी की आम आदमी पार्टी को दिल्ली की सत्ता संभाले हुए अभी तीस दिन ही बीते थे कि मीडिया तरह-तरह के सवाल दागने लगा। विरोधी पार्टी के नेता तो ऐसे उछलने लगे जैसे उनके मन की चाहत पूरी हो गयी है। उन्होंने 'आप' को फ्लॉप घोषित करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। यह वही नेता हैं जो कुर्सी हथियाने के बाद पांच साल तक निष्क्रिय रहने की परंपरा निभाते रहे हैं। जैसे-तैसे पांच साल पूरे होते ही फिर से सत्ता पाने के जोड-जुगाड लगाते रहे हैं। इन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एकाएक कोई 'आम आदमी' आयेगा जो लोगो का दिल जीत ले जायेगा। हां, यही तो हुआ है। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी के साथ-साथ दूसरी सभी राजनीतिक पार्टियों के दिग्गजों को कभी सपने में भी ख्याल नहीं आया कि यह देश जागने की राह पर है। लोग इनके झूठे वादों से उकता चुके हैं। सजग मतदाताओं के सब्र का पैमाना टूट चुका है। अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने किस तरह से आम आदमी पार्टी बनायी, वो कहानी भी ज्यादा पुरानी नहीं है। इस नयी पार्टी ने कैसे दिल्ली की सत्ता पायी वो भी जगजाहिर है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब सभी 'आप' के ही गीत गा रहे थे। मीडिया यह दिखाने और बताने की होड में लग गया था कि अब पीएम की कुर्सी का एक और नया दावेदार सामने आ चुका है। जैसे ही दिल्ली पुलिस की नालायकी और नाफरमानी के खिलाफ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने फिर से अपने धरने के पुराने हथियार को चलाने के लिए सडकों पर डेरा डाला तो राजनीति के पुराने खिलाडी ऐसी-वैसी बातें करने लगे: कभी किसी मुख्यमंत्री ने अपनी मांग मनवाने के लिए अनशन-हडताल का सहारा नहीं लिया। केजरीवाल तो नौटंकीबाज है। इसे सत्ता चलानी नहीं आती। मुख्यमंत्री को अपने वातानुकूलित कमरे में बैठकर हुक्म चलाना चाहिए। यह तो खुद को आज के युग का महात्मा गांधी समझने लगा है। इसे अब कौन समझाए कि आज अगर खुद गांधी भी होते तो वे अपने ही बनाये उसूलों से पल्ला झाड लेते। इस शख्स ने मतदाताओं को जो सपने दिखाये उन्हें पूरा करने में इसे नानी याद आ रही है।
देश का निम्न और मध्यमवर्ग अभी भी केजरीवाल से निराश नहीं हुआ है। देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए अरविंद केजरीवाल और 'आप' पर निशाना तो साधा ही, उन्हें भी सचेत कर दिया जो अरविंद केजरीवाल पर रातों-रात कोई करिश्मा कर दिखाने का जबरन दबाव बनाये हुए हैं। उन्होंने कहा कि, 'लोकप्रिय अराजकता किसी भी रूप में प्रशासन का विकल्प नहीं हो सकती। झूठे वायदे मोहभंग पैदा करते हैं, जिससे गुस्सा उपजता है और उस गुस्से के वाजिब शिकार सत्ता में बैठे लोग ही होते हैं। इस विशाल देश की तमाम समस्याएं रातों-रात खत्म नहीं हो सकतीं।'
देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे एक उम्रदराज नेता हैं। उनसे गंभीरता और संजीदगी की उम्मीद की जाती है। उन्हें भी अरविंद केजरीवाल रास नहीं आ रहे। शिंदेजी का बस चले तो वे केजरीवाल की सीएम की कुर्सी को फौरन अपने कब्जे में ले लें और दिल्ली से उनकी रवानगी कर दें। इन्हीं गृहमंत्री महोदय ने कभी पुणे के एक सम्मान समारोह में यह रहस्योद्घाटन किया था कि इस देश की जनता मूर्ख है। इसकी याददाश्त का दिवाला पिट चुका है इसलिए बहुत जल्दी सब कुछ भूल जाती है। लेकिन इस बार उन्होंने जनता को कोसने की बजाय दिल्ली के मुख्यमंत्री पर शब्दबाण चला कर अपनी हताशा और पीडा को उजागर कर दिया। उन्होंने फरमाया कि केजरीवाल तो 'येडा' मुख्यमंत्री है। येडा यानी मुर्ख या पागल। लोकसभा के चुनाव निकट हैं इसलिए आम जनता शिंदेजी निशाने से बच गयी। फिर भी यह विषैली चोट तो उन सजग मतदाताओं पर ही की गयी है, जिन्होंने अरविंद केजरीवाल को विधानसभा चुनावों में अभूतपूर्व विजयश्री दिलवायी और शीला दीक्षित जैसी मगरूर मुख्यमंत्री को वहां पटक दिया जहां की वे हकदार थीं। अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को विधानसभा चुनावों में जितवा और दिल्ली की सत्ता तक पहुंचाकर मतदाताओ ने मूर्खता की है या अक्लमंदी का परिचय दिया है यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। लेकिन राजनीति के भुलक्कड और बेशर्म खिलाडी बहुत जल्दी में हैं। किसी को अरविंद केजरीवाल और उनके साथी नक्सली लगते हैं तो कोई उन्हें अराजक और दंगई घोषित करने में लगा है।
मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि दिल्ली के मतदाताओं का मिजाज देश से जुदा नहीं है। वे न तो मूर्ख हैं और ना ही भुलक्कड। नक्सली, दंगई, अराजक और अराजकता के असली मायने भी उन्हें पता हैं। आप को लेकर फैसले पर फैसले सुनाने की इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं। अरविंद केजरीवाल और उनकी जुझारू टीम को वक्त दिया जाना चाहिए। यही मौका है जब देश की बदरंग तस्वीर बदल सकती है। अगर यह काम २०१४ में नहीं हो पाया तो फिर कभी भी नहीं हो पायेगा। शोर-मचाने वाले नेताओं को अपने दुष्ट कर्मों की पडताल करनी चाहिए। यही लोग जब अपने गिरेबान में झांकेंगे तो इनकी बोलती बंद हो जाएगी। देश के कुछ तथाकथित महान नेता भले ही खुद के द्वारा बार-बार उच्चारित किये जाने वाले शब्दों के अर्थ भूल गये हों पर आम आदमी नहीं भूला। वह २००२ में हुए उस हत्याकांड को भी नहीं भूला जिसमें साबरमती एक्सप्रेस के दो डिब्बों में आग लगाकर ५८ कार सेवकों को जिंदा फूंक दिया गया था। दंगाइयों के इस अमानवीय कृत्य के पश्चात पूरे गुजरात में साम्प्रदायिक हिंसा के बेखौफ तांडव के चलते हजारों लोगों के मारे जाने का खूनी मंजर आज भी लोगों के दिलो-दिमाग में छाया हुआ है। देश का इतिहास ऐसे न जाने कितने रक्तिम पन्नों से भरा पडा है जिन्हें पढकर आने वाली पीढियां भी शर्मसार होती रहेंगी। कौन भूल पायेगा १९८४ का वह भयावह काल जब इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात पूरी दिल्ली को ज्वालामुखी में तब्दील कर दिया गया था। सिख विरोधी हिंसा के तांडव में कुछ कांग्रेसियों को नाचते-गाते देखा गया था। सैकडों सिख जिंदा जला दिये गये। न जाने कितनों की खून-पसीने से कमायी गयी लाखों-करोडों की सम्पति को लूटा और फूंका गया। यह अराजक और आतंकी खेल दिल्ली के साथ-साथ लगभग पूरे देश में तीन-चार दिन तक निरंतर चलता रहा। धूएं के बादलों के साथ-साथ खून का बदला खून के नारे गुंजते रहे। सत्ताधीश, प्रशासन और पुलिसवाले मूकदर्शक बने रहे। देश और दुनिया के इतिहास में हिंसा और अराजकता का ऐसा और कोई उदाहरण दर्ज नहीं है।
देश का निम्न और मध्यमवर्ग अभी भी केजरीवाल से निराश नहीं हुआ है। देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए अरविंद केजरीवाल और 'आप' पर निशाना तो साधा ही, उन्हें भी सचेत कर दिया जो अरविंद केजरीवाल पर रातों-रात कोई करिश्मा कर दिखाने का जबरन दबाव बनाये हुए हैं। उन्होंने कहा कि, 'लोकप्रिय अराजकता किसी भी रूप में प्रशासन का विकल्प नहीं हो सकती। झूठे वायदे मोहभंग पैदा करते हैं, जिससे गुस्सा उपजता है और उस गुस्से के वाजिब शिकार सत्ता में बैठे लोग ही होते हैं। इस विशाल देश की तमाम समस्याएं रातों-रात खत्म नहीं हो सकतीं।'
देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे एक उम्रदराज नेता हैं। उनसे गंभीरता और संजीदगी की उम्मीद की जाती है। उन्हें भी अरविंद केजरीवाल रास नहीं आ रहे। शिंदेजी का बस चले तो वे केजरीवाल की सीएम की कुर्सी को फौरन अपने कब्जे में ले लें और दिल्ली से उनकी रवानगी कर दें। इन्हीं गृहमंत्री महोदय ने कभी पुणे के एक सम्मान समारोह में यह रहस्योद्घाटन किया था कि इस देश की जनता मूर्ख है। इसकी याददाश्त का दिवाला पिट चुका है इसलिए बहुत जल्दी सब कुछ भूल जाती है। लेकिन इस बार उन्होंने जनता को कोसने की बजाय दिल्ली के मुख्यमंत्री पर शब्दबाण चला कर अपनी हताशा और पीडा को उजागर कर दिया। उन्होंने फरमाया कि केजरीवाल तो 'येडा' मुख्यमंत्री है। येडा यानी मुर्ख या पागल। लोकसभा के चुनाव निकट हैं इसलिए आम जनता शिंदेजी निशाने से बच गयी। फिर भी यह विषैली चोट तो उन सजग मतदाताओं पर ही की गयी है, जिन्होंने अरविंद केजरीवाल को विधानसभा चुनावों में अभूतपूर्व विजयश्री दिलवायी और शीला दीक्षित जैसी मगरूर मुख्यमंत्री को वहां पटक दिया जहां की वे हकदार थीं। अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को विधानसभा चुनावों में जितवा और दिल्ली की सत्ता तक पहुंचाकर मतदाताओ ने मूर्खता की है या अक्लमंदी का परिचय दिया है यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। लेकिन राजनीति के भुलक्कड और बेशर्म खिलाडी बहुत जल्दी में हैं। किसी को अरविंद केजरीवाल और उनके साथी नक्सली लगते हैं तो कोई उन्हें अराजक और दंगई घोषित करने में लगा है।
मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि दिल्ली के मतदाताओं का मिजाज देश से जुदा नहीं है। वे न तो मूर्ख हैं और ना ही भुलक्कड। नक्सली, दंगई, अराजक और अराजकता के असली मायने भी उन्हें पता हैं। आप को लेकर फैसले पर फैसले सुनाने की इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं। अरविंद केजरीवाल और उनकी जुझारू टीम को वक्त दिया जाना चाहिए। यही मौका है जब देश की बदरंग तस्वीर बदल सकती है। अगर यह काम २०१४ में नहीं हो पाया तो फिर कभी भी नहीं हो पायेगा। शोर-मचाने वाले नेताओं को अपने दुष्ट कर्मों की पडताल करनी चाहिए। यही लोग जब अपने गिरेबान में झांकेंगे तो इनकी बोलती बंद हो जाएगी। देश के कुछ तथाकथित महान नेता भले ही खुद के द्वारा बार-बार उच्चारित किये जाने वाले शब्दों के अर्थ भूल गये हों पर आम आदमी नहीं भूला। वह २००२ में हुए उस हत्याकांड को भी नहीं भूला जिसमें साबरमती एक्सप्रेस के दो डिब्बों में आग लगाकर ५८ कार सेवकों को जिंदा फूंक दिया गया था। दंगाइयों के इस अमानवीय कृत्य के पश्चात पूरे गुजरात में साम्प्रदायिक हिंसा के बेखौफ तांडव के चलते हजारों लोगों के मारे जाने का खूनी मंजर आज भी लोगों के दिलो-दिमाग में छाया हुआ है। देश का इतिहास ऐसे न जाने कितने रक्तिम पन्नों से भरा पडा है जिन्हें पढकर आने वाली पीढियां भी शर्मसार होती रहेंगी। कौन भूल पायेगा १९८४ का वह भयावह काल जब इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात पूरी दिल्ली को ज्वालामुखी में तब्दील कर दिया गया था। सिख विरोधी हिंसा के तांडव में कुछ कांग्रेसियों को नाचते-गाते देखा गया था। सैकडों सिख जिंदा जला दिये गये। न जाने कितनों की खून-पसीने से कमायी गयी लाखों-करोडों की सम्पति को लूटा और फूंका गया। यह अराजक और आतंकी खेल दिल्ली के साथ-साथ लगभग पूरे देश में तीन-चार दिन तक निरंतर चलता रहा। धूएं के बादलों के साथ-साथ खून का बदला खून के नारे गुंजते रहे। सत्ताधीश, प्रशासन और पुलिसवाले मूकदर्शक बने रहे। देश और दुनिया के इतिहास में हिंसा और अराजकता का ऐसा और कोई उदाहरण दर्ज नहीं है।
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