Thursday, March 13, 2014

शर्म तो उन्हें कभी नहीं आती

होली भी है... चुनावी मौसम भी। नेता और दल खासे मूड में हैं। उनके चेहरों की रौनक देखते बनती है। दलबदलुओं की भी बन आयी है। जनता के खस्ता हाल हैं। कहीं कोई खुशी नहीं। उदासी ही उदासी। नेताओं के रंगारंग आश्वासनों का भी उस पर कोई असर नहीं दिखता। कितनी-कितनी बार जो ठगी गयी है बेचारी। इस बार के हश्र को लेकर भी वह सशंकित है। सत्ता के दलाल अमर सिं‍ह को फिर से नया ठिकाना मिल गया है। हो सकता है वह लोकसभा का चुनाव जीत भी जाए। इस देश में कुछ भी नामुमकिन नहीं। लग तो यह रहा था कि उद्योगपतियों के इशारों पर नाचने वाले अमर सिं‍ह को कोई पार्टी अपने करीब भी नहीं फटकने देगी। पर चौधरी चरण सिं‍ह के बेटे अजीत सिं‍ह ने पता नहीं क्या सोचकर इसे और इसकी साथी फिल्मी नारी जया प्रदा को अपनी पार्टी में शामिल कर चुनाव लडवाने का भी ऐलान कर दिया। चौधरी चरण सिं‍ह किसानों के नेता थे। उनका बेटा धनवानों का नेता है। जिधर दम उधर हम ही उसकी राजनीति का मूलमंत्र है। खोटे सिक्के राजनीति के बाजार में भरे पडे हैं। नयों के आने का सिलसिला भी जारी है। तय है कि पूरे चुनावी अभियान के दौरान इनकी खनक सुनने को मिलती रहेगी। असली सिक्कों का पता नहीं क्या होगा। इस देश की राजनीति पता नहीं कौन से उसूलों पर चलती है।
राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सांसद रामकृपाल यादव को नाराज करने में पार्टी सुप्रिमो लालू प्रसाद यादव ने जरा भी देरी नहीं लगायी। रामकृपाल, लालू को अपना बडा भाई मानते थे। २००४ में रामकृपाल पटना सीट से लोकसभा चुनाव जीते थे। २००९ में इसी सीट को उन्होंने लालू के लिए न्यौछावर कर दिया था। बदले में लालू ने २०१० में उन्हें राज्यसभा में भेजकर अहसान का बदला चुकाया था। लेकिन इस बार मामला गडबडा गया। भाई, भाई न रहा। रामकृपाल पाटलीपुत्र से लोकसभा चुनाव लडना चाहते थे, लेकिन बडे भइया की नीयत डोल गयी। वजह बनी मीसा भारती जो लालू की लाडली बिटिया हैं। असली बिटिया के सामने राजनीति का मायावी रिश्ता धरा का धरा रह गया। छोटे भाई ने ऐसे भाजपा का दामन थाम लिया जैसे वो इसकी पूरी तैयारी में था। बडा भाई अब छोटे को भस्मासुर बता रहा है तो छोटे ने नरेंद्र मोदी को अपना सर्वस्व मान लिया है।
एक कहावत है- 'डूबते को तिनके का सहारा।' इस देश का थका हारा असहाय आदमी बडे-बडे राजनीतिक दिग्गजों की झांसेबाजी और वादाखिलाफी से इस कदर निराश और आहत हो चुका है कि वह ऐसे तिनके की तलाश में रहता है जो उसे डूबने से बचा सके। आम आदमी पार्टी और अरविं‍द केजरीवाल ने जब डूबतों को सहारा और उनकी तकदीर बदलने का आश्वासन दिया तो लोगों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया। यह सच है कि जब भी कोई समाजसेवक देश के कायाकल्प का वायदा करता है और भ्रष्ट व्यवस्था को खत्म करने की बात करता है तो लोग उसके पीछे हो लेते हैं। अन्ना हजारे के नाम पर भी कभी खासी भीड जुटती थी। उनके गडमड रवैय्ये से उनकी साख छीन ली है। अब उनके नाम पर भीड नहीं जुटती। आम आदमी पार्टी के उदय की दास्तां ज्यादा पुरानी है। अन्ना की देन इस पार्टी ने दिल्ली की सत्ता पायी। हालात कुछ ऐसे बने कि इस पार्टी को फिर से सडकों पर उतरना पडा। किसी भी पार्टी और उसके नेताओं के आकलन के लिए पांच-सात माह का समय नाकाफी होता है। अरविं‍द केजरीवाल ने लोगों को कुछ ज्यादा ही सपने दिखा दिये थे। जो काम महीनों में होने संभव हैं उन्हें कुछ ही दिनों में पूरा कर दिखाने का पक्का वायदा कर दिया था। लोग भी चाहते थे कि पलक झपकते ही सब कुछ बदल जाए पर नहीं हो पाया, नहीं हो सकता। यहीं पर अरविं‍द पर झूठे होने का ठप्पा लग गया। केजरीवाल कहते रहे कि वे अपने सिद्धांतो से समझौता नहीं कर सकते। इसमें सच्चाई नजर आती तो है। अगर उन्हें सत्ता का लालच होता तो दिल्ली की गद्दी से चिपके रहते। आज जब कुर्सी के लिए मारा-मारी चल रही है तब कोई शख्स ऐसा तो है जो कुर्सी को लात मारने की हिम्मत रखता है। ऐसे लोगों का स्वागत किया जाना चाहिए। कमियां सब में होती हैं। मुझे समझ में नहीं आता कि आखिर इस एक शख्स ने ऐसा क्या कर डाला है कि उसकी तथा उसकी पार्टी के नेताओं की खिल्ली उडायी जा रही है। कल तक जिन केजरीवाल को प्रधानमंत्री की कुर्सी के काबिल समझा जा रहा था आज उन्हें नरेंद्र मोदी के नाखून से कमतर बताया जा रहा है। यह अरविं‍द ही हैं जिन्होंने डंके की चोट पर कहा कि इस देश की सरकार को अंबानी और अदानी जैसे उद्योगपति चला रहे हैं। इसमें गलत क्या है? इतिहास गवाह है लीक से हटकर चलने और बोलने वालों को वो ताकतें बर्दाश्त नहीं करतीं जो सत्ता और व्यवस्था को अपनी उंगलियों पर नचाती हैं। दिल्ली के जंतर-मंतर पर आम आदमी के वरिष्ठ नेता योगेंद्र यादव के मुंह पर कालिख पोत दी गयी। अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में शिरकत करने पहुंचे यादव जब मीडिया से मुखातिब थे तब अचानक एक युवक मंच पर आया और अपना काम कर गया। यादव पर क्या बीती इसका सच तो शायद ही कभी सामने आ पाए, लेकिन उनके इर्द-गिर्द खडे लोग भौचक्के रह गए। उन पर कालिख पोतने वाला उन्हीं की 'आम आदमी पार्टी' का ही कोई बेचैन इंसान था। कुछ लोगों को तमाशा खडा करने और तमाशा बनने में बडा मज़ा आता है। न्यूज चैनलों पर अपनी शक्ल दिखाने और चर्चा में आने के लिए यह लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। योगेंद्र यादव एक सुलझे हुए इंसान है। जाने-माने चुनाव विश्लेषक रहे हैं। उनका यह कहना गलत तो नहीं कि उनकी लडाई बडी-बडी ताकतों से है। वे ऐसे ओछे हथकंडे अपनाएंगी ही...। हां मैंने ऐसा कोई काम नहीं किया है जिसे लेकर मुझे शर्मिंदगी हो। यादव का कहना सौ फीसदी सच है। पर उन लोगों का क्या किया जाए जो गलत पर गलत काम करने के बाद भी छाती तान कर चलते हैं। शर्म तो उन्हें कभी आती ही नहीं...।

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