Saturday, March 1, 2014

सच्चा टूट जाता है...

देश की राजधानी में एक युवक जबरन पिट गया। उसका कसूर था कि वह दलित था। वह जब घुड चढी की रस्म निभाने के लिए बग्घी पर सवार हो रहा था तो उसी दौरान दो दबंग युवक अपनी दादागिरी दिखाने लगे। उन्होंने दुल्हे पर अपशब्दों की तेजाबी बौछार की और घोडे पर चढने से रोका। विरोध किये जाने पर दुल्हे तथा उसके परिजनों को भी मारा-पीटा गया। दबंगों को दलित की तामझाम वाली शादी और घुड चढायी शूल की तरह चुभ गयी। ऐसे में उन्होंने अपना आपा खोने में जरा भी देरी नहीं लगायी और अपनी औकात पर उतर आये। ऐसे कितने ही मामले अक्सर पढने और सुनने में आते हैं। देश को आजाद हुए ६६ वर्ष बीत गये पर दलितों और शोषितों पर अभी भी जुल्म ढाये जाते हैं। यह सब कुछ उन राजनेताओं की आंखों के सामने होता रहता है जो दलितों के मसीहा कहलाते हैं। वे तो इनके वोट झटक कर कहां से कहां पहुंच गये पर ये वहीं के वहीं हैं। आजादी का असली मज़ा तो दलित नेता ले रहे हैं। एक बार सत्ता पाते ही राजा-महाराजाओं को मात देने लगते हैं। पूंजीपति राजनेताओं और धन्नासेठों के साथ उठना-बैठना शुरू हो जाता है और उनके रंग में रंगकर दलितों और गरीबों को पूरी तरह से भूल जाते हैं।
वैसे भी इस देश के अधिकांश नेताओं का आम आदमी से कभी कोई खास लेना-देना नहीं रहा। खास आदमी के आतंक और लूटपाट की तलवारें आम आदमी पर चलती ही रहती हैं। कानून के रखवाले देख कर भी अनदेखा कर देते हैं। इसलिए तो कहा जाता है कि भारत में दो देश बसते हैं। एक अमीरों का, दूसरा गरीबों का। यह शर्मनाक बंटवारा उन नेताओं की देन है जो अवसरवाद की राजनीति करते चले आ रहे हैं। इन्होंने समस्त देशवासियों को एक सूत्र में जोडने की कभी कोई ईमानदार कोशिश नहीं की। इनकी नीयत ही इनकी कलई खोल देती है। इन्होंने देश की अस्सी प्रतिशत जनता को बेमौत मरने के लिए छोड दिया है। कोई तो होता जो उनकी पैरवी करता जिन्हे आजादी कभी आजादी नहीं लगी। जिनकी वेदना, पीडा, गरीबी, बदहाली और बर्बादी के गीत तो कइयों ने गाये पर तस्वीर बदलने की किसी ने नहीं सोची। वे अपनों के बीच रहकर भी बेगाने बने रहे। उसके वोटों की बदौलत कितनों की तकदीर बदल गयी पर वे वहीं के वहीं रहे। इन्हीं के बारे में किसी शायर ने कहा है :
''जुबां रसीद सी चेहरा लगान जैसा है,
वो सिर से पांव तक हिं‍दुस्तान जैसा है।''
धर्मवाद, जातिवाद, अवसरवाद, आतंकवाद और छल- फरेब की राजनीति करने वालों के लिए आम इंसान की तकलीफें कोई अहमीयत नहीं रखतीं। उनके निजी स्वार्थ इतने ज्यादा हैं कि उनकी पूर्ति करने में ही उनका सारा वक्त जाया हो जाता है। चुनाव जब करीब आते हैं तो यह लोग धडाधड ऐसे-ऐसे आश्वासन देने लगते हैं जिनको पूरा कर पाना इनके बस की बात नहीं होती। दरअसल, सवाल नीयत का है। इनकी नीयत में अगर खोट नहीं होती तो देश इस कदर टूटा-फूटा और बदहाल न होता। बडे से बडे वायदे भी कभी अधूरे न रह पाते। यहां तो आदिवासियों, दलितों और हर वर्ग के गरीबो के हिस्से का धन कुछ शातिर चेहरे लूट ले जाते हैं। वर्षों पहले देश के एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि गरीबों के विकास के लिए भेजा जाने वाला ८५ प्रतिशत धन बिचौलिए निगल जाते हैं। हालात आज भी वैसे के वैसे हैं। यह बिचौलिए कोई और नहीं, सत्ताधीशों और नौकरशाहों के वो गिरोह हैं जिनकी संवेदनाएं मर-खप चुकी हैं। देश की धन सम्पदा को लूटना ही इनका पेशा है। इस चुनावी मौसम में भी कैसे-कैसे कलाकार अपनी जादूगरी दिखाने को उतावले हैं। कोई चाय के तराने गा रहा है तो किसी को पुराने गडे मुर्दे उखाडने में मज़ा आ रहा है। किसी को इस देश का वो भूखा, नंगा गला-कटा इंसान नजर नहीं आता जो वोट देते-देते थक गया है। बुरी तरह से हताश हो गया है। वह बेहद गुस्से में है। उसका बस चले तो वह देश के तमाम झूठे और मक्कार नेताओं को ठिकाने लगा दे। यह भी कोई बात हुई कि आज भी उन्ही के वोटों के लिए घमासान मचा है जिनको बार-बार छला गया है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का मानना था कि राजनीति में सच और सिद्धांतों का होना बहुत जरूरी है। झूठे लोगों के लिए राजनीति में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन आज का सच यही है कि सच्चे हाशिये में हैं और झूठे सुर्खियां बटोर रहे हैं। जहां देखो वहां छल-कपट और फरेब का बोलबाला है। नेताओं की करनी और कथनी में जमीन आसमान का अंतर इस देश को बेहाल कर चुका है। बापू के नाम की कसमें खाने वाले नेताओं की राजनीति के उसूल समय-समय पर बदलते रहते हैं। सच से तो उनका दूर-दूर तक नाता नहीं रहा। गज़लकार हसीब सोज की यह पंक्तियां काबिले गौर हैं :
''यहां मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है।''

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