Thursday, March 6, 2014

सत्ता का लालच और मजबूरी

कहीं भी अपनी दाल गलती न देख आखिरकार रामविलास पासवान ने भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया। रामविलास को दलितों का मसीहा कहलवाने में फख्र होता है। उन्हें यकीन है कि देश के अधिकांश दलित वोटर उनके साथ हैं। मायावती ने भी यही भ्रम पाल रखा है। दलितों और पिछडों के मतों पर अपना अधिकार जताने और उनके हितो की लडाई लडने का ढोल पीटने वाले नेता तो ढेरों हैं पर कुछ नाम हमेशा सुर्खियों में बने रहते हैं। चारा घोटाला के नायक और जगजाहिर भ्रष्टाचारी लालू प्रसाद यादव भी दलितों और मुसलमानों के उद्धारकर्ता होने का दावा करते हैं। उदितराज और रामदास आठवले जैसे नेता भी खुद को किसी से कम नहीं मानते! इन्हें भी पिछडों और दलितों के सारे वोट अपनी जेब में नजर आते हैं। यह दोनों दलित नेता भी भाजपा के साथी बन गये हैं। रामविलास, उदितराज और रामदास आठवले को अपने पाले में लाकर भाजपा काफी उत्साहित है। उसे यकीन है कि इन महान दलित नेताओं को भगवा रंग में सराबोर कर देने से देश के सभी दलित मतदाता उसे वोटों से मालामाल कर देंगे। नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनने से कोई भी नहीं रोक पायेगा। भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन करने वाले लोकजन शक्ति पार्टी के सर्वेसर्वा रामविलास पासवान ने यह शुभ काम पहली बार नहीं किया है। जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तब भी उन्होंने अपनी पार्टी का भाजपा के साथ गठबंधन कर रेलमंत्री की आलीशान गाडी की सवारी की थी और सत्ता का भरपूर मज़ा लूटा था। २००२ के गुजरात दंगों के बाद वाजपेयी सरकार से एकाएक समर्थन वापस लेने और नरेंद्र मोदी को हत्यारा करार देने वाले पासवान के अब अचानक हुए हृदय परिवर्तन के पीछे सिर्फ और सिर्फ सत्ता और अपने पुत्र चिराग पासवान को राजनीति में स्थापित करने का स्वार्थ छिपा है। पासवान जैसे लोग दावे चाहे कुछ भी करें, लेकिन सच्चाई यही है कि कुर्सी की चाह उन्हें राजनीति में खींच लाती है। इनकी नीयत समय-समय पर डोल जाती है। मौके के हिसाब से सिद्धांत और विचार भी बदल जाते हैं। तभी तो इन्हें कभी नरेंद्र मोदी गुजरात दंगों के जनक नजर आते हैं और भाजपा घोर साम्प्रदायिक पार्टी प्रतीत होती है। फिर सुहावना चुनावी मौसम आते क्या से क्या हो जाता है...। सत्ता लोलुपता इनसे क्या-क्या नहीं करवाती। कल तक जो इनकी निगाह में हत्यारे थे, अछूत थे, आज पाक-साफ हो गये हैं। एकदम अपने लगे हैं। उनसे किसी किस्म की शिकायत ही नहीं रही...! सभी गिले-शिकवे हवा हो गये हैं।
अफसरी छोडकर राजनीति में आये उदितराज पिछले १३ वर्षों से राजनीति में हैं। यदा-कदा न्यूज चैनलों पर आयोजित होने वाली राजनीतिक परिचर्चाओं में नजर आ जाते हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने मायावती से भी ज्यादा नाम कमा लिया है। उनका दावा है कि वे बहुजन समाज पार्टी की मुखिया को कहीं से भी चुनाव में पराजित करने का दमखम रखते हैं। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर निशाना साधकर अपनी राजनीति की शुरुआत करने वाले अंबेडकर के इस अनुयायी का तथाकथित साम्प्रदायिक पार्टी की शरण में आना क्या यह नहीं बताता कि सत्ता का लालच किसी के भी ईमान को डगमगा सकता है। रामदास आठवले भी सत्ता के पुजारी हैं। दलितों की राजनीति की बदौलत उन्होंने बहुत कुछ पाया है। जो पार्टी उन्हें राज्यसभा में पहुंचाने का प्रलोभन देती है वे उसी की शरण में चले जाते हैं। कभी शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस तो कभी शिवसेना उनके ठिकाने रहे हैं। भाजपा से बहुत कुछ पाने की उनकी तमन्ना है। जिस तरह से रामविलास को ११ सीटें देने का सौदा हो चुका है उसी तरह से आठवले को भी निराश नहीं करने की भाजपा ने ठानी है। १९९८ में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। पहले जो दल और उनके नेता भाजपा को घोर साम्प्रदायिक घोषित करते नहीं थकते थे वे भी एकाएक पलटी खा गए। दरअसल उन्हें जब यह लगने लगा कि एनडीए की सरकार बनने वाली है तो उन्होंने भाजपा से हाथ मिलाने में जरा भी देरी नहीं लगायी। आज भी लगभग वही दल हैं। वही नेता हैं। दिखावे के लिए भले ही नरेंद्र मोदी को हत्यारा कहते हों, भाजपा को 'देश तोडक' पार्टी करार देते हों, पर जैसे-जैसे ही देश में भाजपा के पक्ष में और अधिक सकारात्मक माहौल बनता और बढता चला जाएगा, मतलब परस्त कुर्सी प्रेमी नेता और दल उसके निकट आते चले जाएंगे। वैसे इसकी शुरूआत तो हो ही चुकी है। सत्ता का आकर्षण होता ही कुछ ऐसा है कि अच्छे-अच्छों का ईमान डोल जाता है। उपदेश और सिद्धांत धरे के धरे रह जाते हैं। कल तक भाजपा को गालियां देने वाले रामविलास पासवान, रामदास आठवले, उदितराज की इस तिकडी ने दलित राग की जगह भाजपा के गीत गाने शुरू कर दिए हैं। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के शर्मनाक हालात तो और भी हैरान कर देने वाले हैं। लालू प्रसाद यादव को सारी दुनिया भ्रष्ट मानती है। चारा घोटाला के चलते वे जेल की यात्रा भी कर आये हैं। फिलहाल जमानत पर हैं। कांग्रेस है कि लालू को अपराधी मानने को तैयार ही नहीं दिखती। कांग्रेस ही क्यों, और भी कई नेता लालू को निर्दोष मानते हैं। कोई उनसे यह तो पूछे कि क्या कोर्ट का फैसला निराधार है? दरअसल ऐसे अंध भक्तों की वजह से ही लालू जैसे भ्रष्टाचारियों के हौसले बुलंद हैं। लालू खुद तो कानूनन लोकसभा का चुनाव लडने के काबिल नहीं रहे। लेकिन उन्हें लगता है उनकी आरजेडी पार्टी, जिसके वे सर्वेसर्वा हैं बिहार में सबसे ताकतवर और लोकप्रिय पार्टी है। कांग्रेस ने भी यही मान लिया है। इसलिए वह खुद के दम पर बिहार में लोकसभा चुनाव लडने से कतरा रही है। उसका लालू के साथ चुनावी गठबंधन कहीं न कहीं उसकी कमजोरी और विवशता को ही दर्शाता है।

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