दूरदर्शन को सरकारी भोंपू भी कहा जाता है। इस भोंपू ने बीते सप्ताह खूब सुर्खियां बटोरीं। तमाम न्यूज चैनलों को नरेंद्र मोदी के साक्षात्कार प्रसारित करते देख उसकी भी मोदी को दिखाने की इच्छा जागी। मोदी को किसी तरह से पटाया गया। मीडिया से जुडे लोगों को पता है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के यह प्रत्याशी आसानी से पकड में नहीं आते। जब कभी पकड में आ भी जाते हैं... तो ऐसे नचाते हैं कि इंटरव्यू लेने वाले को नानी याद आ जाती है। इस मामले में राज ठाकरे और नरेंद्र मोदी में ज्यादा फर्क नहीं है। देशभर के लगभग सभी न्यूज चैनलों को साक्षात्कार दे चुके मोदी ने दूरदर्शन को भी खुश कर दिया। काफी चिन्तन-मनन करने के बाद दूरदर्शन पर उनका साक्षात्कार दिखाया तो गया, लेकिन बहुत कुछ छिपाया गया। इसी बात को लेकर हंगामा मच गया। अगर दूरदर्शन को कांट-छांट करनी थी तो उनका इंटरव्यू लिया ही क्यों गया? सवाल का जवाब जानने के लिए सबसे पहले आते हैं साक्षात्कार के उन अंशो पर जिन्हें जानबूझकर दिखाया ही नहीं गया। यह तो जगजाहिर सच है कि चुनावों के मौसम में नेता कुछ ज्यादा ही चालाकी दिखाते हैं। फिर नरेंद्र मोदी की चतुराई का तो कोई सानी नहीं है। कांग्रेस की स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी मोदी को कोसने का कोई मौका नहीं छोडतीं। उन्हीं प्रियंका को लेकर मोदी ने कहा था कि, 'प्रियंका तो बेटी है। बेटी होने के नाते उन्हें अपनी मां और भाई के लिए काम करने का हक है। इतना तो हमें उन्हें देना ही होगा... वह बेटी हैं, दस गाली और देंगी तो भी मैं नाराज नहीं होऊंगा।' प्रियंका के प्रति उदार भावना व्यक्त करने के क्रम में ही नरेंद्र मोदी ने यह कह कर खलबली मचाने की कोशिश की, कि कांग्रेस में उनके कई चाहने वाले हैं। सोनिया गांधी के एकदम करीबी अहमद पटेल के प्रति अपनी निकटता उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त की :
अहमद पटेल मेरे खास मित्रों में शामिल हैं। हम उन्हें बाबू भाई कहते थे। आजकल वे हमारा फोन नहीं उठाते। लेकिन हमारी पुरानी दोस्ती है। कई बार आपस में मिलना-जुलना और बतियाना होता रहा है। नरेंद्र मोदी ने दूरदर्शन को दिये गये इंटरव्यू में देशभक्ति और मांस व्यापार पर भी अपने विचार व्यक्त किये थे। लेकिन हंगामा मचा प्रियंका और अहमद पटेल के बारे में कहे गये शब्दों को गायब करने के लिए की गयी चालाकी को लेकर। साक्षात्कार में मोदी की जिन बातों को काट दिया गया था उन्हें सोशल मीडिया ने उजागर कर दिया। आखिर दूरदर्शन की मनमानी की असली वजह क्या है? नरेंद्र मोदी तो जीते जागते राजनेता हैं। जिन्होंने सरकार की नींद हराम कर रखी है। सरकारें तो काल्पनिक पात्रों को भी बर्दाश्त नहीं कर पातीं। १९८९ में दूरदर्शन ने 'बूंद' नामक सीरियल का प्रसारण महज इसलिए रोक दिया था, क्योंकि उसका नायक तबके विपक्ष के लोकप्रिय नेता वी.पी.सिंह की तरह उठता-बैठता और बोलता था। सरकार को लगा कि यदि यह सीरियल दिखाया गया तो वी.पी.सिंह की लोकप्रियता में इजाफा होगा। ऐसे बहुतेरे मामले हैं जो दूरदर्शन की गुलामी की हकीकत बयां करते हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि दूरदर्शन पर सतत सरकारी अंकुश बना रहता है। सरकारी भोंपू से वही प्रसारित होता हैं जो सरकार चाहती है। ऐसे में वह अपने घोर शत्रु नरेंद्र मोदी की छवि को चमकाने वाला पूरा का पूरा साक्षात्कार कैसे प्रसारित होने देती? अगर यह साक्षात्कार जस का तस चल जाता तो मोदी नायक बन जाते। राजनीति में ऐसी खुली छूट मिलती कभी देखी भी नहीं गयी। सरकार चाहे कोई भी हो, उसकी इमारत तो राजनीति की नींव पर ही टिकी रहती है। उसे तो उन फिल्मों से भी डर लगता है जिनमें उनके मुखियाओं के मिलते-जुलते चरित्रों को पेश किया गया हो। गुलजार की आंधी पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया गया था, क्योंकि उसकी नायिका इंदिरा गांधी जैसी नजर आती थीं। आपातकाल और उस दौर की तिकडी संजय गांधी, विद्याचरण शुक्ल और चौधरी बंसीलाल का जुल्मी चेहरा दिखाने वाली फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' को तो आग के हवाले ही कर दिया गया था। ताकि लोग आपातकाल के काले चेहरों के चरित्र से वाकिफ ही न होने पाएं।
दूरदर्शन पर सरकारी अंकुश की इतनी अधिक दास्ताने हैं जिनका यहां पर उल्लेख करना संभव नहीं। जब देश में अन्ना आंदोलन चला था तो सभी न्यूज चैनलवालो में अन्ना को अधिकतम कवरेज देने की प्रतिस्पर्धा चल पडी थी। लेकिन अन्ना दूरदर्शन पर नहीं के बराबर थे। मोदी का प्रियंका को बेटी समान कहना खुद प्रियंका को ही रास नहीं आया। उन्होंने बिफरते हुए कहा कि वे तो उस राजीव गांधी की बेटी हैं जिन्होंने देश के लिए शहादत दी है। प्रियंका भले ही खुले तौर पर राजनीति में न आईं हो पर राजनीति करनी तो उन्हें भी खूब आती है। यदि उन्हीं की पार्टी के किसी बुजुर्ग नेता ने उन्हें 'बेटी' कहा होता तो शायद ही वे ऐसी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करतीं जैसी कि मोदी को लेकर की है। अहमद पटेल ने भी मोदी से दोस्ती होने की बात को पूरी तरह से नकार दिया। नरेंद्र मोदी इतने झूठे तो नहीं हो सकते कि बेवजह किसी को अपना मित्र बताएं। अहमद को मैडम सोनिया की निगाहों में बने रहना है इसलिए वे कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। वैसे भी राजनेताओं में दोस्ती का होना कोई गुनाह नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी तो डंके की चोट पर कहते हैं कि एक दूसरे से काम निकलवाने के लिए दोस्ती तो करनी ही पडती है। इस हाथ ले और उस हाथ दे का नाम ही भारतीय राजनीति है। अगर इसे राजनीतिक नौटंकी और जनता की आंख में धूल झोंकना भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इस नौटंकी के खेल में कोई भी योद्धा मात खाने को तैयार नहीं दिखता।
अहमद पटेल मेरे खास मित्रों में शामिल हैं। हम उन्हें बाबू भाई कहते थे। आजकल वे हमारा फोन नहीं उठाते। लेकिन हमारी पुरानी दोस्ती है। कई बार आपस में मिलना-जुलना और बतियाना होता रहा है। नरेंद्र मोदी ने दूरदर्शन को दिये गये इंटरव्यू में देशभक्ति और मांस व्यापार पर भी अपने विचार व्यक्त किये थे। लेकिन हंगामा मचा प्रियंका और अहमद पटेल के बारे में कहे गये शब्दों को गायब करने के लिए की गयी चालाकी को लेकर। साक्षात्कार में मोदी की जिन बातों को काट दिया गया था उन्हें सोशल मीडिया ने उजागर कर दिया। आखिर दूरदर्शन की मनमानी की असली वजह क्या है? नरेंद्र मोदी तो जीते जागते राजनेता हैं। जिन्होंने सरकार की नींद हराम कर रखी है। सरकारें तो काल्पनिक पात्रों को भी बर्दाश्त नहीं कर पातीं। १९८९ में दूरदर्शन ने 'बूंद' नामक सीरियल का प्रसारण महज इसलिए रोक दिया था, क्योंकि उसका नायक तबके विपक्ष के लोकप्रिय नेता वी.पी.सिंह की तरह उठता-बैठता और बोलता था। सरकार को लगा कि यदि यह सीरियल दिखाया गया तो वी.पी.सिंह की लोकप्रियता में इजाफा होगा। ऐसे बहुतेरे मामले हैं जो दूरदर्शन की गुलामी की हकीकत बयां करते हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि दूरदर्शन पर सतत सरकारी अंकुश बना रहता है। सरकारी भोंपू से वही प्रसारित होता हैं जो सरकार चाहती है। ऐसे में वह अपने घोर शत्रु नरेंद्र मोदी की छवि को चमकाने वाला पूरा का पूरा साक्षात्कार कैसे प्रसारित होने देती? अगर यह साक्षात्कार जस का तस चल जाता तो मोदी नायक बन जाते। राजनीति में ऐसी खुली छूट मिलती कभी देखी भी नहीं गयी। सरकार चाहे कोई भी हो, उसकी इमारत तो राजनीति की नींव पर ही टिकी रहती है। उसे तो उन फिल्मों से भी डर लगता है जिनमें उनके मुखियाओं के मिलते-जुलते चरित्रों को पेश किया गया हो। गुलजार की आंधी पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया गया था, क्योंकि उसकी नायिका इंदिरा गांधी जैसी नजर आती थीं। आपातकाल और उस दौर की तिकडी संजय गांधी, विद्याचरण शुक्ल और चौधरी बंसीलाल का जुल्मी चेहरा दिखाने वाली फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' को तो आग के हवाले ही कर दिया गया था। ताकि लोग आपातकाल के काले चेहरों के चरित्र से वाकिफ ही न होने पाएं।
दूरदर्शन पर सरकारी अंकुश की इतनी अधिक दास्ताने हैं जिनका यहां पर उल्लेख करना संभव नहीं। जब देश में अन्ना आंदोलन चला था तो सभी न्यूज चैनलवालो में अन्ना को अधिकतम कवरेज देने की प्रतिस्पर्धा चल पडी थी। लेकिन अन्ना दूरदर्शन पर नहीं के बराबर थे। मोदी का प्रियंका को बेटी समान कहना खुद प्रियंका को ही रास नहीं आया। उन्होंने बिफरते हुए कहा कि वे तो उस राजीव गांधी की बेटी हैं जिन्होंने देश के लिए शहादत दी है। प्रियंका भले ही खुले तौर पर राजनीति में न आईं हो पर राजनीति करनी तो उन्हें भी खूब आती है। यदि उन्हीं की पार्टी के किसी बुजुर्ग नेता ने उन्हें 'बेटी' कहा होता तो शायद ही वे ऐसी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करतीं जैसी कि मोदी को लेकर की है। अहमद पटेल ने भी मोदी से दोस्ती होने की बात को पूरी तरह से नकार दिया। नरेंद्र मोदी इतने झूठे तो नहीं हो सकते कि बेवजह किसी को अपना मित्र बताएं। अहमद को मैडम सोनिया की निगाहों में बने रहना है इसलिए वे कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। वैसे भी राजनेताओं में दोस्ती का होना कोई गुनाह नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी तो डंके की चोट पर कहते हैं कि एक दूसरे से काम निकलवाने के लिए दोस्ती तो करनी ही पडती है। इस हाथ ले और उस हाथ दे का नाम ही भारतीय राजनीति है। अगर इसे राजनीतिक नौटंकी और जनता की आंख में धूल झोंकना भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इस नौटंकी के खेल में कोई भी योद्धा मात खाने को तैयार नहीं दिखता।
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